CPC@100: माओ की बनायी ज़मीन पर देंग ने बोये समृद्धि के बीज!  

सोवियत संघ में निकिता ख्रुश्चेव के सत्ता में आते ही स्टालिन की विरासत से सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी ने न सिर्फ खुद को अलग कर लिया, बल्कि पार्टी से स्टालिन के प्रभाव को खत्म करने और स्टालिन की विरासत को लांछित करने के अभियान भी चलाये गए। माओ को लेकर ऐसा कुछ चीन में कभी नहीं हुआ। माओ आज भी कम्युनिस्ट चीन के सर्वोच्च प्रतीक पुरुष हैं। सीपीसी की लगातार ये समझ रही है कि देंग ने चीन की समृद्धि का जो महल खड़ा करने की शुरुआत की, वह बड़ा प्रयत्न माओवाद ने जो जमीन तैयार की थी, उसके ऊपर चलते हुए ही किया गया।

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के 100 साल-5

 

जब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी अपनी शताब्दी मनाने की तैयारियों में जुटी है, तब बाकी दुनिया के लिए दिलचस्पी का विषय यही समझना है कि आखिर चीन ने अपनी ऐसी हैसियत कैसे बनाई? सीपीसी ने कैसे एक जर्जर देश को वापस खड़ा किया? इस दौरान उसने क्या प्रयोग किए? उन प्रयोगों के सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम कैसे रहे हैं? वरिष्ठ पत्रकार सत्येंद्र रंजन इस विषय पर मीडिया विजिल के लिए एक विशेष शृंखला लिख रहे हैं। पेश है इसकी  पाँचवीं कड़ी-संपादक

जब 1990 के दशक के मध्य तक जब देंग शियाओ फिंग के सिद्धांत को चीन को अपना लिया और उनका स्वरूप पूरी तरह स्पष्ट हो गया, तब से यह बहस चलती रही है कि क्या ऐसा माओ दे दुंग के विचारों को तिलांजलि देते हुए किया गया? इसमें तो कोई शक नहीं कि ये रास्ता अलग था और इसकी कई बातें माओ के आदर्शों के खिलाफ जाती थीं। लेकिन यह सच है कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) के बहुमत ने बिना किसी प्रत्यक्ष प्रतिरोध के देंग के रास्ते को स्वीकार कर लिया। ये गौर करने की बात है कि न तो देंग के दौर में, और न ही उसके बाद- सीपीसी ने कभी माओवाद को अस्वीकार किया। 1980 के दशक में माओवाद की समीक्षा जरूर की गई थी, जिसमें सांस्कृतिक क्रांति की आलोचना की गई थी, लेकिन कुल मिलाकर माओवाद की विरासत को पार्टी ने लगे लगाए रखा था।

देंग की मृत्यु के बाद सीपीसी ने ‘no two denials’ का सिद्धांत घोषित किया। इसका अर्थ है कि वह न तो माओ की विरासत से इनकार करती है और न ही देंग के बताए रास्ते से। तब से पार्टी के मंचों पर मार्क्स- एंगेल्स- लेनिन- स्टालिन- माओ और देंग की तस्वीरें देखने को मिलती रही हैं। यहां ये तुलना उचित होगी कि सोवियत संघ में निकिता ख्रुश्चेव के सत्ता में आते ही स्टालिन की विरासत से सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी ने न सिर्फ खुद को अलग कर लिया, बल्कि पार्टी से स्टालिन के प्रभाव को खत्म करने और स्टालिन की विरासत को लांछित करने के अभियान भी चलाये गए। माओ को लेकर ऐसा कुछ चीन में कभी नहीं हुआ। माओ आज भी कम्युनिस्ट चीन के सर्वोच्च प्रतीक पुरुष हैं। सीपीसी की लगातार ये समझ रही है कि देंग ने चीन की समृद्धि का जो महल खड़ा करने की शुरुआत की, वह बड़ा प्रयत्न माओवाद ने जो जमीन तैयार की थी, उसके ऊपर चलते हुए ही किया गया। अगर माओ के जमाने में चीन में मानव विकास के क्षेत्रों में भारी निवेश नहीं किया गया होता, वहां एक स्वस्थ और शिक्षित युवा आबादी तैयार नहीं हुई होती, और संसाधनों को नए सिरे संगठित नही किया गया होता, तो देंग के लिए तेज गति से औद्योगिक और तकनीकी विकास की योजनाओं को लागू करना संभव नहीं होता।

देंग की विकास नीति संबंधी सोच क्या है, यह काफी कुछ सांस्कृतिक क्रांति के पहले स्पष्ट हो चुका था। इसलिए इसमें कोई हैरत की बात नहीं कि जब माओ की मृत्यु के बाद उनके हाथ में सीपीसी की कमान आई, तो वे उस दिशा में चीन को ले गए। लेकिन आज जब हमें यह सुविधा है कि तकरीबन चार दशक में चीजें जहां पहुंची हैं, वहां से मुड़ कर उन दिनों के हालात पर गौर करें, तो कुछ पहलुओं का जिक्र इस सिलसिले में अवश्य किया जाना चाहिए। ये बात ध्यान में रखने की है कि चीन में देंग के सिद्धांत पर बनी सहमति और सोवियत खेमे में साम्यवादी व्यवस्थाओं का ढहना लगभग समकालीन घटनाएं हैं। सोवियत खेमे के बिखरने के बाद पूरी दुनिया में नई परिस्थितियां पैदा हो गई थीं। तब दुनिया भर की चर्चाओं में चीन में कम्युनिस्ट शासन का खात्मा भी लगभग तय मान कर चला जा रहा था। सोवियत खेमे के देशों में समाजवादी व्यवस्था के खिलाफ जनता के एक बड़े हिस्से में भड़के विद्रोह की बड़ी वजह वहां पश्चिमी देशों की तुलना में उपभोग का स्तर निम्न होना माना गया था। वहां की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टियों में उभरी नौकरशाही जनता भावनाओं से लगभग कट गई थीं। नतीजा यह हुआ कि जनता का एक बड़ा तबका पश्चिमी जीवन शैली को ललचाई नजरों से देखने लगा। इससे सोवियत आर्थिक व्यवस्था हालांकि समता आधारित और जन-कल्याण की भावना से प्रेरित थी, लेकिन वह अपनी ही जनता में आकर्षण खोने लगी। धीरे-धीरे सत्ता के सख्त नियंत्रण के भीतर लोगों भावनाएं सुलगती रहीं, जिनका एक समय पर विस्फोट हो गया। ये सारी बातें चीन में भी हो सकती थीं।

जब सोवियत खेमे का ध्वंस हो गया, तो उसके बाद समाजवाद बनाम पूंजीवाद की वैश्विक बहस में पलड़ा पूंजीवाद के पक्ष में झुक गया था। बेशक समाजवाद की तरफ से इस बहस को तेज करने के लिए अनुकूल समय नहीं था। न ही अब माओ के युग की तरह समाजवादी विचारधारा का ‘निर्यात’ करने के लिए अनुकूल समय बचा था। ये अनुमान लगाना गलत नहीं होगा कि इन परिस्थितियों का भी असर चीन में देंग के रास्ते के प्रति आसानी से उभरी आम सहमति के पीछे एक कारण रहा होगा। देंग ने जब देश को धनी बनाने और तब अपनी ताकत छिपाते हुए समय काटने का सूत्र दिया, तो ये बात चीन की कम्युनिस्ट और आम जन को व्यावहारिक लगी होगी। इस नए सिद्धांत का असर यह हुआ कि चीन ने विदेशी पूंजी और तकनीक को आमंत्रित करने की मुहिम छेड़ दी। इस क्रम में  समझौते भी किए। मसलन, साल 2000 आते-आते चीन विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) का सदस्य बनने को तैयार हो गया। इस बात को तब पश्चिम में अपनी पूंजीवादी विचारधारा की जीत के रूप में देखा गया।

उस दौर के पर्यवेक्षकों ने इस बात को दर्ज किया है कि किस तरह 1949 की क्रांति के बाद तीन दशकों तक पश्चिमी दुनिया के लिए पराया रहा चीन धीरे-धीरे वहां गहरे आकर्षण का केंद्र बनने लगा। 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध तक अमेरिकी पूंजपतियों में चीन जाकर निवेश करने की होड़ लग गई। उनके लॉबिस्ट्स के प्रभाव में चलने वाली दोनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियों में चीन समर्थक नीतियां अपनाने की होड़ लग गई। जब अमेरिका में यह हो रहा था, तो जाहिर है कि उसके पीछे चलने वाला यूरोप इस होड़ से बच नहीं सकता था।

पश्चिमी मीडिया के अध्ययनकर्ताओं ने बताया है कि वहां का शासक वर्ग जिस देश को दोस्त या दुश्मन बता दे, मीडिया वफादार अनुयायी की तरह उनके पक्ष या विपक्ष में कृत्रिम सहमति या असहमति गढ़ने में लग जाता है। साल 2000 के आसपास के द इकॉनमिस्ट, फाइनेंशियल टाइम्स, वॉल स्ट्रीट जर्नल आदि जैसे पश्चिमी बहुराष्ट्रीय पूंजी के मुखपत्रों के अंकों पर गौर करें, तो उनमें चीन के महिमामंडन की एक पूरी शृंखला हम देख सकते हैं। ये जज्बा कुछ वैसा ही था, जैसा आज चीन के खिलाफ जूनून में दिख रहा है। और जब ये पत्र-पत्रिकाएं एक खास मुहिम चलाने लगती हैं, तो उसका असर पूरे पश्चिमी मीडिया, और फिर प्रकारांतर में तीसरी दुनिया के मीडिया पर भी देखने को मिलने लगता है। चूंकि देंग के रास्ते की वजह से चीन का सस्ता श्रम, बेहतर बुनियादी ढांचा और बड़ा बाजार पश्चिमी पूंजीपतियों को उपलब्ध हो गया था, तो वो दौर पश्चिम में चीन के महिमामंडन का दौर बन गया। इसका चीन पर जो असर हुआ, वही हमारी इस लेख शृंखला का विषय है। लेकिन पहले यह देखना भी उपयोगी होगा कि इसका पश्चिमी दुनिया पर क्या हुआ।

आज अमेरिका और एक हद तक यूरोप में भी जिस de-industrialization की चर्चा है, वह दरअसल उन दोनों जगहों पर नई भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था के तहत वहां से चीन के लिए पूंजी के हुए पलायन का ही परिणाम है। अमेरिका में पूंजीपतियों को चीन के बाजार का लाभ उठाने की छूट देने के लिए सितंबर 2000 में परमानेंट नॉर्मल ट्रेड रिलेशन्स (पीएनटीआर) ऐक्ट पारित किया गया था। विशेषज्ञों ने इसे दर्ज किया है कि उसके बाद के दो दशक में अमेरिका में 40 हजार कारखाने बंद हो गए, 20 लाख रोजगार के अवसर खत्म हो गए, और वेतन वृद्धि गतिरुद्ध हो गई। दूसरी तरफ बड़ी कंपनियों के मुनाफे में अरबों डॉलर की वृद्धि होती चली गई। इससे अमेरिका आज एक असंतुष्ट समाज है। ऐसे ही असंतोष का फायदा 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में चीन विरोधी माहौल बनाते हुए डॉनल्ड ट्रंप ने उठाया। नतीजा यह है कि अमेरिकी समाज में आज तीखा ध्रुवीकरण है। वहां के आम लोग दोनों प्रमुख पार्टियों को अपनी बदहाली के लिए जिम्मेदार मानते हैं, क्योंकि पूंजीपतियों के दबाव में 1990 से 2010 तक डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन पार्टियों ने चीन समर्थक नीतियां अपनाए रखी थीं। इस de-industrialization के परिणामस्वरूप अमेरिका और यूरोप के समाजों में आर्थिक गैर-बराबरी तेजी से बढ़ी है। वहां हालात ऐसे हो गए हैं कि जब कोरोना महामारी आई और चीन से सप्लाई चेन टूट गया, तो अपनी जनता को मास्क या पीपीई किट जैसी साधारण चीजों को आसानी से मुहैया करने में उन्होंने खुद को अक्षम पाया।

दूसरी तरफ चीन दुनिया का कारखाना बना हुआ है। दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वह बन चुका है। क्वांटम कंप्यूटिंग जैसी टेक्नोलॉजी में वह सबसे आगे है। वह एक बड़ी सैनिक शक्ति के रूप में भी उभर रहा है। बेशक चीन में भी आर्थिक गैर-बराबरी बढ़ी है, लेकिन उसके साथ-साथ ही उसकी पूरी आबादी का जीवन स्तर भी उठा है। इस कारण तमाम सर्वेक्षणों में चीनी समाज की तस्वीर आज एक संतुष्ट और अपनी व्यवस्था में भरोसा रखने वाले समाज के रूप में उभरती है।

ये गौरतलब है कि चीन में उत्पादन का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत जमीन अब भी सरकार के स्वामित्व में है। वहां एक मजबूत पब्लिक सेक्टर मौजूद है। पंचवर्षीय योजनाओं की प्रथा सशक्त बनी हुई है। आर्थिक नीतियों पर सरकार का नियंत्रण है। ये नियंत्रण किस हद तक है, यह हाल में दुनिया के सबसे धनी व्यक्तियों में से एक और अलीबाबा कंपनी के मालिक जैक मा पर हुई सरकारी कार्रवाई के दौरान जाहिर हुआ। उसके बाद ये खबरें दुनिया भर में सुर्खियां बनीं कि अलीबाबा और दूसरी कंपनियां चीन सरकार की योजना के मुताबिक आविष्कार (innovation) और तकनीक क्षेत्र में निवेश बढ़ाने पर राजी हो गई हैं। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी इसे ही ‘समाजवाद का चीनी स्वरूप’ (socialism with Chinese characteristic) कहती है।

देंगवादी सुधार के आरंभिक वर्षों में कई पब्लिक सेक्टर इकाइयों का निजीकरण हुआ था। तब हेल्थ केयर का बड़ा हिस्सा निजी क्षेत्र में चला गया। शिक्षा में प्राइवेट सेक्टर का हिस्सा बढ़ने लगा। लेकिन पिछले एक दशक में इनमें से कई नीतियों को बदला गया है। हेल्थ केयर में एक बार फिर से पब्लिक सेक्टर का रोल बढ़ा है। पब्लिक एजुकेशन का ढांचा दुरुस्त हुआ है। और हाल में कोरोना महामारी के समय ये दिखा कि किस तरह पब्लिक सेक्टर ने महामारी को संभालने में एक बड़ी भूमिका निभाई। दरअसल, चीनी अर्थव्यवस्था का वही स्वरूप वो वजह है, जिसको लेकर पश्चिमी देशों से पिछले एक दशक में उसका टकराव बढ़ता चला गया है। पश्चिमी देशों की मुख्य शिकायत यह है कि पूंजी के भूमंडलीकरण से जो नई अर्थव्यवस्था बनी, उसने उनके यहां सामाजिक विभेद और असंतोष खड़ा कर दिया, जिससे उनकी राजनीतिक व्यवस्था आज एक बड़ी चुनौती का सामना कर रही है। जबकि चीन में इस नई परिघटना का असर उसके धनी देश के रूप में उभरने के रूप में हुआ है। और ऐसा वहां सामाजिक और मानव विकास में अभूतपूर्व सुधार के साथ हुआ है। पश्चिमी देश इसे ‘अनुचित व्यापार व्यवहार’ कहते हैं। वे चाहते हैं कि चीन अपने पब्लिक सेक्टर को पूरी तरह ध्वस्त करे। लेकिन सीपीसी ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया है।

देंग का रास्ता सही था या नहीं, इस बारे में बहसें चलती रहेंगी। लेकिन फिलहाल यह तो साफ है कि उस रास्ते ने चीन को एक महाशक्ति बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है। चीन ने ये उपलब्धि ‘no two denials’ के सिद्धांत को मानते हुए हासिल की है। लेकिन चीन की आज जो व्यवस्था है, वह कितनी समाजवादी है? क्या चीन सचमुच अब भी मार्क्स-एंगेल्स-स्टालिन-माओ के रास्ते पर चल रहा है? यह विडंबना है कि एक समय खुद चीन ने सोवियत संघ पर सामाजिक साम्राज्यवादी होने का आरोप लगया था, आज खुद उस पर साम्राज्यवादी होने के इल्जाम लग रहे हैं। आखिर इस आरोप में कितना दम है? इन सवालों पर विवेचना इस लेख शृंखला की अगली किस्तों में हम करेंगे।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

पिछली कड़ियों के लिए नीचे के लिंक पर क्लिक करें–

 

1. चीन: एक देश के कायापलट की अभूतपूर्व कथा

2. CPC@100: पुरातन चीन को आधुनिक बनाने का एक ग्रैंड प्रोजेक्ट!

3. CPC@100: वो ग्रेट डिबेट और महा बँटवारा!

 

4.CPC@100: जब आया ‘समाजवाद का मतलब गरीबी नहीं’ का मूलमंत्र!

 

First Published on:
Exit mobile version