दलित चेतना के संघी बझावनहार !

 

नितिन गडकरी जब बीजेपी के अध्यक्ष बने थे तो मीडिया एक्सरसाइज के तहत एक दिन नवभारत टाइम्स भी आए थे। हमने उनसे 2014 की रणनीति के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि अभी 27 पर्सेंट वोट बीजेपी को और 31 पर्सेंट कांग्रेस को लगभग स्थायी तौर पर मिलते हैं, तो हमारी पहली कोशिश यह चार पर्सेंट का फासला पाटने की है। बाद में इस रणनीति के तहत उन्होंने ऐसे-ऐसे समझौते किए, इतने बदनाम नेताओं को बीजेपी में लाने की कोशिश की कि लगभग हर रोज ही अखबार देखकर दांतों तले उंगली दबाने की नौबत आती थी। फिर उनके हटने पर कुछ समय तक ऐसी ही कोशिशें बतौर पार्टी अध्यक्ष उनके उत्तराधिकारी राजनाथ सिंह ने भी की, जिसका कुछ खास नतीजा नहीं निकला।

2012 में हुए पार्टी के गोवा सम्मेलन में राजनाथ बाबू ने जब मोदी को बीजेपी का शुभंकर बनाने की घोषणा की, तब भी किसी को अंदाजा नहीं था कि पार्टी अपने ब्राह्मण-बनिया और थोड़े-बहुत पिछड़ा जनाधार के सहारे देश में पूर्ण बहुमत की दावेदार हो सकती है। माहौल में अचानक बदलाव तब आया जब देश के बड़े पूंजीपति वर्ग ने (जिसमें सीधे या विज्ञापन भोगी के रूप में भारत के लगभग सभी मीडिया घराने भी शामिल हैं) अपनी सारी झिझक छोड़कर नरेंद्र मोदी पर दांव खेलने का फैसला किया। लेकिन इसके पहले बीजेपी ने देश के तमाम दलित नेताओं पर डोरे डालकर खुले लेनदेन के जरिए अपने गुजरात मार्का धुर कम्युनल और खुले फासिस्ट अजेंडे पर सामाजिक सर्वसहमति जैसा माहौल बनाया।

इसका श्रीगणेश गुजरात दंगों के तुरंत बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री नरेंद्र भाई मोदी के पहले विधानसभा चुनाव में उनके साथ कई चुनाव सभाएं करके सुश्री मायावती ने कर दिया था, लेकिन 2013 से तो जैसे बांध ही टूट गया। जेएनयू के प्रोफेसर तुलसीराम ने अपनी मृत्यु से ऐन पहले जनसत्ता में लिखे अपने यादगार लेख में यह प्रस्थापना दी थी कि किस तरह देश के बहुतेरे दलित नेताओं ने मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी के साथ जाकर अपने जीवन भर के काम का सत्यानाश कर दिया और देश के दलित-बहुजन समाज के साथ इतनी बड़ी गद्दारी की, जिसका खामियाजा इन समुदायों की आने वाली पीढ़ियों तक को भुगतना पड़ सकता है।

आज भी अपनी प्रबल सरकारी ताकत के बावजूद बीजेपी का सबसे बड़ा हथियार वह फर्जी सामाजिक सर्वसहमति ही है, जिसके बल पर उसकी सरकार देश की सभी लोकतांत्रिक प्रगतिशील ताकतों की जड़ खोद रही है और यहां के समूचे पर्यावरण पर तथा तमाम कमजोर तबकों पर बुलडोजर चला रही है। सिर्फ मौसम विज्ञानी जैसे व्यंग्य साधन से काम नहीं चलेगा। लोकतंत्र और अपने अधिकारों के लिए लड़ने वाली दलित-प्रगतिशील ताकतें ‘सहमति’ के इन सुपरिचित दलित स्तंभों से सीधी लड़ाई वाले विकल्प को नजरअंदाज नहीं कर सकतीं, भले ही इनकी जमीनी औकात कुछ हो या न हो।


 

चंद्रभूषण वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेख उनके फेसबुक पेज से साभार लिया गया है। 

 


 

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