हम भारत के लोग: कोरोना काल में चिंतन: नागरिक और संविधान
उत्तर कोरोना परिदृश्य में क्या लोकतंत्र व शासन का वर्तमान स्वरुप यथावत रहेगा, ऐसा सवाल उठता है सोचने-समझने वाले वर्ग के मन में? संघीय ढांचे को लेकर भी आशंकाएं उठ रही हैं. क्या इसका वर्तमान रूप आगे भी जारी रहेगा? असल मुद्दा तो यह है कि संविधान व नागरिकता की चेतना जनता में जाग्रत व सक्रिय कितनी व किस स्तर की है? दोनों का सघन-गहन बोध होना ज़रूरी है। याद रहे, देश व राष्ट्र सिर्फ भूभाग से ही नहीं, लोग और उनकी संस्कृति, सभ्यता, विरासत, इतिहास, आस्था, स्मृतियों, इंद्रधनुषी जीवन शैलियों तथा राज्य के साथ जीवंत संवाद से बनता है। इन तमाम मूलभूत तत्वों की निरंतरता ही किसी भी राष्ट्र राज्य के चरित्र और राष्ट्रों के इतिहास में उसका स्थान निर्धारित करती है।
21 वीं सदी में उन मानकों को स्वीकार नहीं किया जा सकता जिनके आधार पर एकरंगी देश हुआ करते थे और धर्म-मज़हब के आधार पर राष्ट्र और लोगों के पारस्परिक संबंधों को तय किया जाता था। राज्य और लोग के सम्बन्ध राजपक्षीय हुआ करते थे। पिछली दो सदियों में इन मानकों में आमूलचूल परिवर्तन आ चुके हैं; आज लोग या जनता राज्य व शासन पद्धति के चरित्र की विधाता है; प्रजा से अब जनता व नागरिक में रूपांतरित हो चुकी है; लोकशाही ने राजशाही को प्रतिस्थापित कर दिया है; राजा की स्वेच्छाचारिता का स्थान संविधान सत्ता ने ले लिया है; संविधान के साँचें में शासन-प्रशासन को ढाला जाता है, संवैधानिक व्यवस्थाओं के तहत जनता के साथ राज्य को व्यवहार करना पड़ता है।
शायद 1947 में आज़ादी के बाद यह पहला दौर है जब राष्ट्रीय स्तर पर लोकतंत्र, संविधान और नागरिक पर इतनी बहु आयामी बहस चल रही है। यह भी पहला अवसर है जब लोगों को देशभक्त, राष्ट्रवादी, देशद्रोही-राज्य द्रोही-राष्ट्र द्रोही और हम, तुम व वो की श्रेणियों में विभाजित किया जा रहा हो! कौन जनता था, किसे नागरिक कहें और कौन अनागरिक घोषित होगा, इन मुद्दों पर इतनी तीखी बहसें देश में होंगी आज़ादी के सात दशक पश्चात। इसकी कल्पना नहीं थी; संदेहों, आशंकाओं और भय के चौराहे पर खड़े हैं संविधान, लोकतंत्र और हम लोग। विभिन्न कारणों से आज संविधान और नागरिक व नागरिकता पर जितनी गंभीर बहसें हो रही हैं, संविधान की प्रतियां खरीदी जा रही हैं, नागरिकता की चेतना का जितना विस्तार अब हो रहा है, इससे पहले कभी नहीं हुआ था। इसका श्रेय, यह लेखक नि:संकोच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह को देना चाहेगा।
संविधान क्या होता है? इसकी प्रस्तावना क्या कहती है? इसमें नागरिक व नागरिकता का स्थान कहां है? बहुसंख्यकवाद बनाम अल्पसंख्यकवाद किसे कहते हैं? जनगणना किसे कहते हैं? नागरिक पंजीयन क्यों किया जाता है?- समाज के सभी लोग इन तमाम तरह के सवालों पर चल रही बहसों में खुलकर शिरकत भी कर रहे हैं। प्रतिरोध के नए नए रूप सामने आ रहे हैं, बीती सदी के गांधीवादी प्रतिरोध नए प्रकार से अवतरित हो रहे हैं, भूमंडलीकरण के दौर में गाँधी जी की प्रासंगिकता पुनर्जीवित की जा रही है।
स्वीकार इस सच्चाई को भी करना पड़ेगा कि इस नाना-रूपी विषमताओं से रुग्ण काल में बाबा साहब की बहुआयामी प्रासंगिकता का विस्तार उतना ही हुआ है जितना महात्मा का हुआ है क्योंकि संविधान के सपनों का भारत आज तक नहीं बन सका है। हम हज़ारों किलोमीटर दूरी के फासले पर स्थित चाँद व मंगल पर देश का परचम रोपने के मंसूबे बांधे हुए हैं लेकिन अपने ही गांव के दलित दूल्हे की घोड़ी पर चढ़ कर ब्याह रचाने को बर्दाश्त नहीं कर सकते; सरे आम उसे पीटा जाता है; सवर्णों की बस्ती में स्थित कुएं या पोखर से दलितों को पेयजल नहीं लेने दिया जाता है; हिन्दू धर्म शास्त्र पढ़ना योग्य मुस्लिम प्रोफेसर से मंज़ूर नहीं; गायों के साथ देखते ही मुस्लिम हमलों से घिर जाते हैं; आज भी नामंज़ूर है अंतर्जातीय विवाह, खापपंचायतों के फरमान इसकी तस्दीक़ करते हैं, इसीलिये बाबासाहब की दृष्टि में राजनीतिक स्वतंत्रता से कहीं अधिक ज़रूरी व महत्वपूर्ण था सामाजिक लोकतंत्र और स्वतंत्रता। राजनीतिक आज़ादी की जड़ें और असर तभी प्रभावशाली हो सकते हैं जब उससे लाभान्वित होने की आज़ादी से समाज के सभी वर्ग, विशेष रूप से हाशिये के लोग लैस रहेंगे।
निजी अनुभवों और अध्ययन के आधार पर यह लेखक कह सकता है कि बंधक श्रमिकों का 95 -96 प्रतिशत हिस्सा अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति समाज से आता है। आरक्षण के प्रावधानों के बावजूद नगरों-महानगरों की गंदगी को साफ़ करने वाले लोग भी इसी समाज के होते हैं। गटर को साफ़ करते हुए दलित श्रमिक ज़हरीली गैस के शिकार हो जाते हैं। डॉ. आम्बेडकर कहते हैं कि जातिप्रथा “ आध्यात्मिक और राष्ट्रीय विकास, दोनों के लिए नुकसानदेह है।” यह विषमता की जननी है। श्रम की समानता व गतिशीलता को बाधित करती है। समाज के अंतिम व्यक्ति तक राजनीतिक आज़ादी पहुँच सके, इसके मार्ग में अवरोध खड़े करती है। भारत की यथार्थवादी कल्पना को तभी मूर्तरूप दिया जा सकता है जब सामाजिक आज़ादी और राजनीतिक आज़ादी के मध्य समानता के रिश्ते रहें। 1943 में दिए गए अपने एक भाषण में उन्होंने कहा था “भारत में संसदीय लोकतंत्र पर विचार करना अत्यंत ज़रूरी है। भारत संसदीय लोकतंत्र प्राप्त करने के लिए बातचीत कर रहा है। इस बात की बहुत ज़रूरत है कि कोई यथेष्ट साहस के साथ भारतवासियों से कहे- संसदीय लोकतंत्र से सावधान…. संसदीय लोकतंत्र इसलिए असफल हुआ कि वह आम जनता के लिए स्वतंत्रता, सम्पति और सुख-शांति सुनिश्चित नहीं कर सका. समाज में जो आर्थिक असमानताएं हैं, उनकी तरफ उसने ध्यान ही नहीं दिया। उसने शहज़ोर को मौका दिया कि वह कमज़ोर को ठगता रहे। गरीबों के विरुद्ध आर्थिक-राजनैतिक अन्याय बढ़ता रहा। जो पददलित और सम्पत्तिहीन वर्ग थे, उनके विरुद्ध आर्थिक अन्याय होता रहा। जहां सामाजिक और आर्थिक जनतंत्र न हो, वहां राजनीतिक लोकतंत्र सफल नहीं हो सकता। सामाजिक और आर्थिक जनतंत्र वे रग-रेशे हैं जिनसे राजनीतिक लोकतंत्र निर्मित होता है..” ( डॉ. रामविलास शर्मा: गाँधी आम्बेडकर,लोहिया और भारत की समस्याएं; पृ 602 ).
इस मत से किसे असहमति है? पिछले दिनों 15 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान न्यायाधीश श्री अरुण मिश्रा ने निराशा के साथ आक्रोशित स्वरों में कहा था, “मुझे अब इस देश में काम नहीं करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट को बंद कर देते हैं। देश छोड़ना ही बेहतर होगा। दौलत के दम पर वह कुछ भी कर सकते हैं। कोर्ट के आदेश भी रोक सकते हैं।” ( इंडियन एक्सप्रेस, दिल्ली संस्करण, 16 फरवरी, 20 )। कोई भी राष्ट्र राज्य तीन स्तम्भों पर खड़ा रहता है: कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। न्यायपालिका के एक माननीय सदस्य की यह संगीन टिप्पणी सम्पूर्ण संसदीय व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करने के लिए काफी है। क्या यह सच नहीं है कि संसद और विधानसभाओं में अरबपतियों की आबादी तेजी से बढ़ती जा रही है? क्या यह सच नहीं है कि इसके साथ साथ विधायिका में दागी सदस्य या अपराधी (संगीन मुक़दमें विभिन्न अदालतों में चल रहे हैं) भी अपनी आबादी हर पांचवें साल बढ़ा लेते हैं? यह कैसी राजनीतिक स्वतंत्रता है? किस वर्ग के हितों के रक्षक हैं ये जनप्रतिनिधि? क्या इन लोगों के हाथों में लोकतंत्र, राष्ट्र और संविधान सुरक्षित है?
यह भी कल्पना कीजिए कि न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा के स्थान पर यदि दलित या अल्पसंख्यक समाज से सम्बंधित कोई न्यायाधीश या नेता या अभिनेता ऐसी टिप्पणी कर देता तो उस पर क्या गुजरती! सवर्ण आधिपत्य बहुसंख्यक समाज उस पर टूट पड़ता। उसका जीना मुश्किल कर देता। मुख्यधारा के कतिपय चैनलों के प्राइम टाइम में उसके परखचे उड़ जाते; उसे राष्ट्र विरोधी-देशविरोधी घोषित कर दिया जाता। इस सन्दर्भ में 2015 में चले असहिषुणता-आंदोलन के दौरान अभिनेता आमिर खान पर क्या गुजरी थी, शाहरुख़ खान पर क्या बीती थी? उन्हें बहिष्कार की खाईं में धकेल दिया गया था। जब देश या राष्ट्र और उसकी लोकतान्त्रिक व्यवस्था ‘सेलेक्टिव’ व ‘विभेदकारी’ बन जाती है तो उसके लोग भी संकटग्रस्त हो जाते हैं। राष्ट्र का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता है। हम लोगों के बीच राज्य द्वारा भेदभाव को स्वीकार नहीं किया जा सकता। इस सम्बन्ध में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सटीक ही कहा है “हम देश के अल्पसंख्यकों को यह आश्वासन देना चाहते हैं कि उनके साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा। उनके धर्म, भाषा और संस्कृति पूरी तरह सुरक्षित रहेंगे। देश के समस्त नागरिकों को हमारा आश्वासन है कि हम गरीबी व अभावों को तथा उनके साथ जुड़ी भुखमरी और बीमारी को पूरी तरह समाप्त करने का प्रयास करेंगे। शोषण का अंत हमारा लक्ष्य है।” ( मध्यप्रदेश सरकार द्वारा प्रकाशित ‘हमारा संविधान’ पुस्तिका; पृ.आवरण 2)
वास्तव में संविधान की प्रस्तावना में स्पष्ट रूप से भारतीय राष्ट्र राज्य के संकल्प को घोषित किया गया है कि “हम, भारत के लोग सम्प्रभुता सम्पन्न हैं और इस देश को समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाये रखने के लिए संकल्पबद्ध हैं। जाहिर है इसमें सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय, विश्वास, धर्म, उपासना और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखने के लिए प्रतिबद्धता निहित है। राष्ट्र की एकता व अखंडता और बन्धुत्व की भावना बनाये रखने का भी संकल्प है। जहाँ संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों की बात की गई है वहीँ उनसे राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों की अपेक्षा भी रखी गई है। इसके साथ ही राज्य के लिए नीति निर्देशक सिद्धांत भी रखे गए हैं. इसके साथ नागरिकों से यह भी अपेक्षा की गई है कि वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन की भावना का विकास करेंगे। सार्वजनिक सम्पति की रक्षा करेंगे। संविधान निर्माताओं का स्पष्ट मत था कि “नागरिकों को अधिकार प्रदान कर देना मात्र ही पर्याप्त नहीं है, यह भी आवश्यक है कि सरकार द्वारा इनका सम्मान किया जाए। यदि किसी नागरिक के प्रति अन्यायपूर्ण व्यवहार करे तो वह क्या कर सकता है ?( वही, ‘हमारा संविधान; पृ 14 )
लेकिन, आज क्या हो रहा है? सरकार की आलोचना को देशद्रोह या सेडिशन के रूप में निरूपित किया जा रहा है! प्रतिरोधी को ‘गद्दार’ कहा जा रहा है; गद्दारों को गोली मारो’ का नारा लगाया जा रहा है; चौराहों पर प्रतिरोधियों की तस्वीरें चस्पा की जा रही हैं; उन्हें लोकतंत्र विरोधी-राष्ट्र विरोधी बनाया जा रहा है। क्या शासकों-प्रशासकों की इन हरकतों से स्वस्थ लोकतान्त्रिक भारत की रक्षा की जा सकती है? आखिर लोग या नागरिक सड़कों पर क्यों उतरते हैं? क्यों हिंसा होती है? किसी भी स्थिति में किसी भी पक्ष की हिंसा की पैरवी नहीं की जा सकती लेकिन लोग ही हिंसा करते हैं, यह अवधारणा एकाधिकारवादी व अधिनायकवादी है। पिछले मास ही आला अदालत के एक अन्य न्यायमूर्ति धनञ्जय वाई. चंद्रचूड़ ने भी साफ़ शब्दों में लोकतंत्र की सफलता के लिए प्रतिरोध को ज़रूरी बताया था। उनके मत में विरोध या प्रतिरोध या असहमति एक ‘सेफ्टी वॉल्व’ का काम करते हैं। इसे कुचला नहीं जाना चाहिए। सरकार के विरोध को राजद्रोह या राष्ट्रद्रोह नहीं कहा जा सकता। इससे लोकतंत्र कमज़ोर होता है। राज्य हिंसा भी होती है या राज्य भी हिंसा लोगों पर लादता है, इस धारणा को भी स्वीकार करना होगा।
पिछले दिनों विख्यात कथाकार व पूर्व आई.पी .एस. अधिकारी विभूति नारायण राय की पुस्तक ‘हाशिमपुरा 22 मई’ प्रकाशित हुई, जिसमें उन्होंने स्वतंत्र भारत के सबसे बड़े पुलिस हिरासती हत्याकांड का कथात्मक शैली में खुलासा किया है… उन्होंने सिलसिलेवार बताया है कि उत्तर प्रदेश की पीएसी (सशस्त्र पुलिस बल ) ने 22 मई, 1987 की आधी रात को किस प्रकार कई दर्जन मुसलमानों को मेरठ के हाशिमपुरा बस्ती से उठा कर मारा और लाशों को नहर में फेंक दिया। राय उस समय ग़ाज़ियाबाद के पुलिस कप्तान थे। 160 सफों में फैली इस दर्दनाक कथा में राज्य के चरित्र और लोगों की स्थिति, विशेषतः अल्पसंख्यक समुदाय, का जीवंत व प्रामाणिक चित्रण किया गया है। वे लिखते हैं, “ …भारतीय राज्य और अल्पसंख्यकों के रिश्ते, पुलिस का गैर पेशवराना रवैया और घिसट-घिसट कर चलने वाली उबाऊ न्यायिक प्रणाली जैसे मुद्दे जुड़े हुए हैं,” पुलिस के चरित्र और राज्य हिंसा को समझने के लिए इस पुस्तक को एक प्रामाणिक दस्तावेज़ माना जा सकता है.
दरअसल, आधुनिक भारत के निर्माताओं ने लोकतंत्र को सिर्फ मतपेटी तक ही सीमित रखा और मतदाताओं पर अपना ध्यान केंद्रित किया। लोकतंत्र को स्वतंत्र भारत के नागरिकों की जीवन शैली का अभिन्न हिस्सा नहीं बनाया। मतदाता धार्मिक खानों में ही विभाजित रहे और तदनुसार उनके प्रति तुष्टिकरण का बरताव किया जाता रहा; राजनीतिक दलों के एक पक्ष ने मतों के लिए अल्पसंख्यकों को तुष्ट किया जबकि दूसरे पक्ष ने बहुसंख्यकों की तुष्टि की। साम्प्रदायिकता के प्रति भी ‘सेलेक्टिव एप्रोच’ से काम लिया गया. जनता हिन्दुस्तानी नागरिक बने, न कि हिन्दू-मुसलमान-ईसाई, दोनों पक्ष ऐसा करने से कतराते रहे क्योंकि सत्ता प्राप्ति उनकी पहली प्राथमिकता थी। जनता में सच्चे भारतीय और नागरिक का बोध पैदा हो, इसके लिए राज्य ने योजनाबद्ध ढंग से कोई अभियान चलाया हो, ऐसा दिखाई नहीं देता। फलस्वरूप, आज संविधान की आत्मा विभिन्न संकटों से घिरी हुयी दिखाई दे रही है। इसके बहुलतावादी चरित्र को एकलतावादी ललकार रहे हैं।
हमें इस अवधारणा को स्वीकार या आत्मसात कर लेना चाहिए कि आधुनिक विश्व में कोई भी राष्ट्र राज्य एकरंगीय या एक नस्ली या एक धर्मी-एक जातीय नहीं हो सकता। दुनिया अब ‘विश्व ग्राम’ ग्लोबल विलेज का रूप लेती जा रही है; करीब दो करोड़ लोगों का भारतीय डायसपोरा विभिन्न देशों में है; ब्रिटेन, कनाडा जैसे देशों में कैबिनेट मंत्री भी हैं। अतः लोग एकरूपी न हो कर बहुरूपी और बहुस्तरीय होते हैं। उन्हें एकरूपी या एक साँचें में ही ढालने से जहां विकास व गतिशीलता अवरुद्ध होते हैं वहीँ ज्ञान व अनुसंधान पर भी विराम लग जाता है। भारतीय राष्ट्रराज्य की अहम ज़िम्मेदारी यह है कि वह ऐसा परिवेश रचे जिसमें ‘हम लोग शुद्ध भारतीय नागरिक’ बनें, न कि बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक। वक़्त का तकाज़ा है कि हमारे वर्तमान व भावी शासक इस ‘राजधर्म’ का पालन करें।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।