सिनेमा तकनीक के महँगे और सस्ते होने के मायने

इस कठिन कठोर क्वारंटीन समय में संजय जोशी दुनिया की बेहतरीन फ़िल्मों से आपका परिचय करवा रहे हैं. यह मीडिया विजिल के लिए लिखे जा रहे उनके साप्ताहिक स्तम्भ ‘सिनेमा-सिनेमा’ की नौवीं कड़ी है। मक़सद है कि हिन्दुस्तानी सिनेमा के साथ–साथ पूरी दुनिया के सिनेमा जगत की पड़ताल हो सके और इसी बहाने हम दूसरे समाजों को भी ठीक से समझ सकें. यह स्तम्भ हर सोमवार को प्रकाशित हो रहा है -संपादक

 

मेरे अलावा जिन भी लोगों का बचपन 1970 के दशक में बीता है उनकी तस्वीर खीचने की यादें बहुत कम होगी, अपवाद स्वरुप ही कुछ लोगों ने अपने बचपन में कैमरे के साथ मजे किये होंगे. 1977 में जब मेरे बड़े भाई प्रतुल ने अपनी दसवीं की परीक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की तो मेरी मौसी ने उन्हें ‘बनी’ कैमरा भेंट दिया. हमारे लिए यह एक ऐसा मजेदार खिलौना था जिसको आने वाले दिनों में घटने वाले बहुत से यादगार लम्हों को कैद करना था. ‘बनी’ का यह मॉडल 120 मिलीमीटर फोरमैट का था. तब ऑरो कंपनी फ़ोटो के निगेटिव रोल तैयार करती थी. सन 1978 की गर्मियों के दिन जब हमने अपना ‘बनी’ प्रयोग शुरू किया तो हम निगेटिव का सिर्फ एक रोल खरीद सके थे क्योंकि उस सस्ते ज़माने में भी एक रोल के लिए हमें 30 या 40 रुपये चुकाने पड़े थे और हमारे पिता की कुल पगार तब 1000 रूपये ही थी. इस एक रोल को खर्च करने में हमने बड़ा वक्त लगाया क्योंकि उसमे सिर्फ 10 या 12 फ्रेम थे. उस ‘बनी’ के निगेटिव को हमने धुलवाया फिर 12 फ्रेमों से 3 या 4 फ्रेम छांटकर छोटे प्रिंट बनवाये. वे तीन –चार प्रिंट आज भी हमारी अमूल्य संपत्ति समान हैं. अपने बचपन के किस्से के जरिये मैं सिनेमा तकनीक के महंगे होने और इस वजह से तस्वीरों को न दर्ज कर सकने के महत्व को रेखांकित करना चाह रहा था. इसी बात को कुछ और दशक पीछे ले जायेंगे तो हिन्दुस्तानी विज़ुअल स्मृतियों में राजा दीन दयाल द्वारा राजा महाराजाओं की खींची तसवीरें ही याद आयेंगी जिसमे हर पोर्ट्रेट में वे अपने भारी भरकम लिबास और गहनों से लदे विशिष्ट दिखते हैं.

कम्युनिस्ट नेता कामरेड पी.सी.जोशी से प्रभावित होकर छायाकारी को अपना कैरियर बनाने वाले सुनील जाना इस लिहाज से अपवाद हैं. उनके सरोकार की वजह से भारतीय विज़ुअल स्मृतियों में पहली बार आम जन दिखाई देने शुरू हुए. जाना साहब का काम नए भारत के निर्माण का विज़ुअल दस्तावेज़ भी है. 

स्टिल छायाकारी के ऊपर वर्णित हिसाब–किताब को अगर हम चलती हुई तस्वीर पर लागू करेंगे तो पायेंगे कि दस मिनट के 16 मिलीमीटर वाले फ़िल्म निगेटिव के 400 फ़ीट के एक डब्बे के लिए उन्नीस सौ अस्सी के दशक तक के फ़िल्मकारों को तीन हजार रुपये तक खर्च करने पढ़ते थे. फिर इससे थोड़ा ही कम खर्च इसके धुलवाने का. 10 मिनट के दृश्यों का यह डब्बा एक बड़े वज़नी कैमरे, लैंस, ट्राईपौड, साउंड रिकार्डर, माइक, गाड़ी और दल–बल की मदद से किये छायांकन के द्वारा ही हासिल होता जिसकी व्यवस्था करने में कुछेक हजार रुपये और खर्च होते. कुल मिलाकर यह मामला लाखों तक पहुंचता और इस तरह हाशिये पर पड़े व्यक्ति की कहानी को दर्ज करने की संभावना क्रमश: ख़ारिज करता चलता. मजे की बात यह है कि अगर आप किसी तरह फ़िल्म बना भी लें तो उसके डुप्लीकेट प्रिंट बनवाना भी कम खर्चीला न था. इस कारण बहुत सी महत्वपूर्ण फ़िल्मों के अतिरिक्त प्रिंट न बन सकें और उनका उस तरह से प्रचार न हुआ जैसे होना चाहिए था. ध्यान रहे कि अब तक हमने सिर्फ़ फ़िल्म के निर्माण की लागत पर अपना फ़ोकस केन्द्रित किया है. अगर आप किसी जुगाड़ से अपनी फ़िल्म का एक प्रिंट हासिल भी कर लेते तो उसे दिखाना भी एक अलग पहेली था. फ़िल्म प्रभाग के कोलकाता केंद्र द्वारा उपयोग में लाये गए डबल आर्क लैंप फ़िल्म प्रोजक्टर से फ़िल्म दिखाने के भारी भरकम इंतज़ाम का कुछ अंदाजा आपको लग सकेगा. (देखें चित्र 3 ). 

मजे की बात है कि अभी तक सारा हिसाब किताब हमने फ़िल्म जमाने के अपेक्षाकृत सस्ते माध्यम के लिए लगाया है. मुख्यधारा के बम्बइया सिनेमा उद्योग में प्रचलित 35 मिलीमीटर के फोरमैट में खर्चा दुगुने से ज्यादा होता होगा. बड़े पूंजी के निवेश के चलते फ़िल्म निर्माण खासा सांस्थानिक काम था. इस कारण फ़िल्म भी उन ही लोगों की बनी जिन पर बड़े संस्थानों ने बनाने की सोची. इस वजह से सरकारी घोषणाएँ, योजनाएँ, सत्ता प्रतिष्ठान और सत्ता प्रमुख तो छवियों में दर्ज होते रहे लेकिन हाशिये के लोग और तीखे सवाल दर्ज नहीं हुए. इस बात को भाखड़ा नांगल बाँध के निर्माण की उपलब्धियों के छायांकन और उससे विस्थापित हुए लोगों की न दर्ज हुई कहानियों की तुलना से समझा जा सकता है. 

सिनेमा माध्यम के महंगा होने के दो नुकसान हुए. हर शुक्रवार अपनी नयी फ़िल्म के रिलीज़ होते ही मुख्यधारा का सिनेमा मजबूत होता गया और मुनाफ़े की रकम बढ़ने के साथ इसने जोख़िम वाली कहानियों को क्रमश: छोड़ना शुरू कर दिया और सफ़ल कहानियों की पुनरावृत्तियाँ ऊब तक बढ़ चली जबकि दूसरी तरफ़ दस्तावेज़ी सिनेमा में स्वतंत्र प्रयास इतने कम थे कि वे उँगलियों पर भी गिने जाने लायक न थे. इस वजह से दस्तावेज़ी सिनेमा से आशय भारत सरकार द्वारा निर्मित उबाऊ ‘वृत्त चित्रों’ तक ही सिमटा रहा. यही वजह है कि 1980 के दशक में चर्चित हुए फ़िल्मकारों -मीरा दीवान, सुहासिनी मुले, तपन बोस, आनंद पटवर्धन, शशि आनंद, दीपा धनराज, के पी ससि, रीना मोहन , रंजन पालित, मंजीरा दत्ता, वसुधा जोशी, निलिता वाछानी – का महत्वपूर्ण काम भी तकनीक के सस्ता होने पर दस –पंद्रह सालों बाद खूब देखा गया और सराहा गया.   

छवियों के फिल्मांकन का तरीका 1990 के दशक से तेजी से बदला. यह दशक सारी दुनिया में उदारीकरण के नाम रहा. इसके चलते सिनेमा तकनीक में बाज़ार के विस्तार की नीयत से नए कैमरे, एडिटिंग मशीन और प्रोजक्शन के उपकरण चलन में आये. 1995 तक वी एच एस यानि वीडियो होम सर्विस’ घर–घर में लोकप्रिय हो चला था. इसका आम इस्तेमाल भारतीय जनता ने छुट्टी के दिन तीन वीएचएस कैसटों को एक साथ किराये की दुकान से लाकर अनलिमिटेड मनोरंजन हासिल करने में किया तो अपवाद स्वरुप कुछेक समूहों ने नया सिनेमा को रचने के लिए भी किया. इस उल्लेख में दिल्ली में स्थापित सेंडिट (Cendit) संस्था का खासा  योगदान है. इस संस्था ने बहुत से युवाओं को नए उपलब्ध माध्यम वीडियो के जरिये सामाजिक परिवर्तनों को दर्ज करने की जरुरी सूझ दी. झारखंड में राजनीतिक-सामजिक रूप से सक्रिय संस्कृतिकर्मी मेघनाथ और दक्षिण में मदुराई से आये अमुधन रामलिंगम पुष्पम इस संस्थान से प्रशिक्षित दो महत्वपूर्ण दस्तावेज़ी फ़िल्मकार थे जिन्होंने आने वाले दिनों में महत्वपूर्ण काम किये.  

मेघनाथ ने रांची वापस जाकर एक आदिवासी युवक बीजू टोप्पो को जोड़कर ‘अखड़ा’ समूह बनाया जिसने वीएचएस कैमरे की तमाम उलझनों के साथ ही ‘शहीद जो अनजान रहे,’ हो या ‘एक हादसा और भी’ और  ‘विकास बंदूक की नाल से’ जैसी महत्वपूर्ण फ़िल्में बनायीं और आदिवासी समाज के जिन मुद्दों को आम दर्शकों को परिचित करवाया वे वर्षों से किसी फ़िल्मकार के इंतज़ार में थे. इसी तरह अमुधन ने 2003 आते–आते मदुराई नगर निगम से जुड़ी सफ़ाई कामगार मायाक्काल की कहानी को ‘पी’ फ़िल्म बनाकर सिनेमा माध्यम को तीख़े विमर्श का मंच बनाया. 

 नब्बे का दशक ख़तम होते –होते न सिर्फ़ फ़िल्म बनाना बल्कि दिखाना भी बहुत संभव हो चला क्योंकि वीडियो के एलसीडी प्रोजक्टर अब तेजी से सस्ते हो रहे थे. एक तरफ़ रिकार्डिंग के साज़ो सामान का सस्ता होना दूसरी तरफ़ रिकार्ड की हुई फ़िल्म को आसानी से ज्यादा लोगो को दिखा देना एक ऐसे समीकरण को गढ़ रहा था जिसकी वजह से दस्तावेज़ी सिनेमा जैसा जरुरी माध्यम अपनी अभिजातीय चौहद्दियों को तोड़कर नए दर्शक बनाने लगा. मजे की बात है कि 1980 के दशक में बना महत्वपूर्ण दस्तावेजी सिनेमा भी तकनीक के सस्ता होने के कारण पहले तेजी से डुप्लीकेट हुआ फिर दिखाने के सस्ते उपकरणों के कारण नए दर्शकों तक पहुंचा. 

इस बनाने और दिखने के नए सिलसिले के कारण न सिर्फ नए फ़िल्मकारों की एक नयी कतार पिछले दो दशकों में तैयार हुई बल्कि सिनेमा खुद भी तकनीक के नए पैरों पर चलकर अपने नए दर्शकों के बीच पहुंचा. अब नए–नए विषय भी सिनेमा में रूपांतरित होने लगे. स्त्री विषय, दलित मुद्दे, पर्यावरण, साम्प्रदायिकता, मजदूर वर्ग की जितनी अभिव्यक्तियाँ पिछले 15 वर्षों में हुई वे आज से चार दशक पहले संभव ही न थीं. सबसे अच्छी बात यह कि नया सिनेमा अब मेनस्ट्रीम से दबने और भय खाने की बजाय अपरिचित सिनेमाई ठिकानों पर अपनी दस्तक दे पाने में सफल है.  (चित्र 6 : ऊपर मुख्य तस्वीर- प्रतिरोध का सिनेमा द्वारा उत्तराखंड में आयोजित ‘घुमंतू सिनेमा’ यात्रा की एक स्क्रीनिंग. राजकीय बालिका विद्यालय, बेरीनाग, पिथौरागढ़. मई 2016 फ़ोटो : पाखी ) 

इस नए समय को हम दो –तीन उदाहरणों से समझेंगे तो तकनीक के सस्ता होने के क्रांतिकारी अर्थ सामने आयेंगे. पहला उदहारण फ़िल्म के निर्माण का लेते हैं.  पिछले छ –सात वर्षों से भोपाल के आसपास काम कर रहे समूह ‘एकतारा’ ने फ़िल्म निर्माण को प्रचलित तरीकों से एकदम उलट कर सिनेमा आन्दोलन के नए मानक तैयार किये हैं. उन्होंने लोगों की जरुरत के हिसाब से उनके बीच में काम करते हुए ही कथा फ़िल्मों का निर्माण शुरू किया. ‘जादुई मच्छी’ और ‘चंदा के जूते’ जैसी दो लघु फ़िल्मों के निर्माण के बाद उन्होंने एक पूरी लम्बाई की कथा फ़िल्म ‘तुरुप’ का निर्माण किया. 76 मिनट की ‘तुरुप’ पिछले साल सिनेमा दिखाने के व्यावसायिक–गैर व्यवसायिक सभी फ़ोरमों पर खासी सफल रही. हाशिये की विभिन्न आवाज़ों को उनकी पूरी गुत्थियों के साथ पेश करने में यह फ़िल्म पूरी तरह सफल रही. फ़िल्म की कहानी और उसके ट्रीटमेंट का विस्तार इसकी स्वतंत्र फंडिंग की सीधी उपलब्धि है जिसकी वजह से न सिर्फ़ लोगों की अपनी कहानी का सिनेमा बना बल्कि कई लोगों से सहयोग लेने के कारण सिनेमा के वैकल्पिक दर्शक बनाने का भी एक सूत्र हासिल हुआ. हिन्दुस्तानी सिनेमा आन्दोलन में ‘अम्मा अरियन’ के निर्माण के बाद यह दूसरा सफल उदाहरण था. जान अब्राहम द्वारा निर्देशित मलयाली कल्ट फ़िल्म ‘अम्मा अरियन’ ( माँ को चिट्ठी ) 1980 के दशक में केरल के ओडेस्सा मूवीज़ द्वारा संयोजित सिनेमा आन्दोलन की सबसे महत्वपूर्ण फ़िल्म थी जिसके पोस्ट प्रोडक्शन का खर्च फ़िल्म की स्क्रीनिंग के लिए मिलने वाले पैसे से किया गया और जिसके हजारों प्रदर्शन केरल के कोने-कोने में हुए. 

एक दूसरा उदहारण कर्नाटक के बेंगलुरु शहर से संचालित पेडेस्ट्रियन पिक्चर का है जिन्होंने अपने आसपास की हर लोकेशन को सिनेमा हाल में बदला और सिनेमा देखने की आदत में गुणात्मक बदलाव किया. इस समूह ने न सिर्फ़ तमाम जरुरी सिनेमा को लोगों से परिचित करवाया बल्कि समय–समय पर जरुरी सामाजिक मुद्दों पर प्रोफेशनल तरह से फ़िल्म का निर्माण कर उसकी बहसों को अर्थवान भी बनाया. आज भी पेडेस्ट्रियन पिक्चर अपने महत्व को बनाये रखा हुआ है.           

तीसरा उदाहरण नयी तकनीक की वजह से बेवजह की सेंसरशिप को ठिकाने लगाने का है. साल 2015 में युवा फ़िल्मकार नकुल सिंह साहनी ने 120 मिनट लम्बी दस्तावेज़ी फ़िल्म ‘मुज्ज़फरनगर बाक़ी है’ का निर्माण किया. 2014 के मध्यावधि चुनाव के मद्देनजर उत्तर प्रदेश में भाजपा की राजनीति और उसके फलस्वरूप मुज्ज़फरनगर में जाट –मुस्लिम एकता को तोड़ने की साजिश का खुलासा इस फ़िल्म में विस्तार से हुआ है. 1 अगस्त 2015 को दिल्ली के किरोड़ीमल कालेज में जब इसकी स्क्रीनिंग को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के गुंडों ने जबरदस्ती रोकने की कोशिश की तो प्रतिरोध का सिनेमा अभियान ने 25 अगस्त 2015 को पूरे देश में ‘प्रतिरोध स्क्रीनिंग’ का आहवाहन किया. दिल्ली के एक ऑफिस में रातोंरात पचासों डीवीडी प्रतियाँ बनाई गयीं और एक सघन अभियान के फलस्वरूप पूरे देश के 60 से ज्यादा कस्बों और शहरों में 25 अगस्त को एकसाथ 90 से ज्यादा स्क्रीनिगें हुईं जिसे एलसीडी प्रोजक्टरों की मदद से हजारों लोगों ने देखा. इस नए सिनेमाई उत्साह की वजह से कई दर्शकों की फ़ेसबुक वाल पर कई दिनों तक अभियान का पोस्टर ‘सिनेमा जारी है’ चस्पा रहा.  

  चित्र 8 : ‘मुजज़फरनगर बाक़ी है’ की प्रतिरोध स्क्रीनिंग का पोस्टर. सौजन्य : प्रतिरोध का सिनेमा आर्काइव          

तकनीक के सस्ते होने और फिर सर्वसुलभ होने के कारण सिनेमा सक्रियता बड़े सिनेमाघरों और दमकते फिल्म फेस्टिवलों से निकलकर अब नए –नए ठिकाने खोज रही है. बहुत साल पहले यमुनानगर, हरियाणा के महिलाओं के एक कालेज में होने वाले फिल्म फेस्टिवल में धुर नारीवादी फ़िल्म के लिए सिनेमा हाल के बाहर लगी युवा लड़कियों की कतार ने बहुत से सिनेमा प्रेमियों का ध्यान आकर्षित किया था. इसी तरह से जलंधर में काम करने वाला समूह ‘पीपुल’स वोइस’ अपने जुनूनी साथियों की मदद से कापीराईट कानूनों की परवाह किये बिना सिर्फ़ 70 रूपये में शानदार पैकिंग के साथ विश्व सिनेमा की कई कालजयी फिल्मों को आम लोगों को उपलब्ध करवा रहा था. ‘वीडियो वालंटियर्स’ नामक एनजीओ ने असंख्य दलित युवाओं के हाथ में कैमरा पकड़ा कर 3-4 मिनट की छोटी कहानियों के माध्यम से ऐसे सच को सामने लाने में मदद की जिसके लिए पहले कहीं कोई गुंजायश न थी.  

इस नए समय में नए विषयों के साथ नए समूहों को भी मौका मिला है. वीडियो फोरमैट के निरन्तर सर्वसुलभ होने की वजह से कम से कम दस्तावेज़ी फ़िल्मों में महिला फ़िल्मकारों की कई नयी कतार निर्मित हुई और दलित व आदिवासी समूह की अपनी अभिव्यक्ति उन्ही की ज़ुबानी शुरू हुई है .  

तकनीक के इस विस्फोट ने सत्य के मुंह को एकदम उलट दिया है. अब कोई एक मुंह नहीं है. चूंकि एक मुंह नहीं है इसलिए आवाज़ें भी बहुविध हैं. आवाज़ों का बहुविध होना ही तकनीक के सस्ता और सर्वसुलभ होने की सबसे बड़ी उपलब्धि है. सारे हिंदुस्तान में घट रही इन नई अभिव्यक्तियों ने अगर आपस में अच्छा तालमेल बिठा लिया तो आने वाले वर्षों में सिनेमा की ऐसी धारा विकसित हो सकेगी जो न सिर्फ ज़मीनी मुद्दों को हाशिये से उठाकर मुख्यधारा बनायेगी बल्कि मुख्यधारा को भी ज़मीन पर उतरने की चुनौती देगी.         



इस शृंखला में वर्णित अधिकाँश फ़िल्में यू ट्यूब पर उपलब्ध हैं और जो आसानी से नहीं मिलेंगी उनका इंतज़ाम संजय आपके लिए करेंगे. 

दुनियाभर के जरुरी सिनेमा को आम लोगों तक पहुचाने का काम संजय जोशी पिछले 15 वर्षो से लगातार ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ अभियान के जरिये कर रहे हैं.संजय से thegroup.jsm@gmail.com या 9811577426 पर संपर्क किया जा सकता है -संपादक

 



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