यहां से देखो: CAA-NRC संविधान की मूल भावना को खत्म कर देगा

जितेंद्र कुमार का साप्ताहिक स्तंभ

जब से नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएबी) नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) बना है, पूरे देश में हंगामे का माहौल है। पूर्वोत्तर के लगभग सभी राज्य जल रहे हैं। पूरे भारत के विश्वविद्यालय जल रहे हैं, लेकिन देश का प्रधानमंत्री अपने भाषण में बता रहा है कि जो लोग सीएए का विरोध कर रहै हैं उन्हें कपड़े से पहचाना जा सकता है। कपड़ों से पहचाने जाने का मतलब सिर्फ यह है कि वह सीधे तौर पर कहना चाह रहे हैं कि जो लोग मुसलमान हैं वही इस कानून का विरोध कर रहे हैं। 

 

बीजेपी और उसके नंबर एक और दो पद पर आसीन दोनों व्यक्तियों का बार बार ऐसा बयान आ रहा है जिससे कि आम जनता को लगे कि यह मामला हिन्दू बनाम मुसलमान का है। बीजेपी इस बात को बहुत अच्छी तरह जानती है कि देश की अर्थव्यवस्था जिस अवस्था में पहुंच गई है, बेरोजगारी का जो हाल है, बदहाली का जो हाल है उन सभी समस्याओं से पार पाना अब उसके बस की बात नहीं है। बीजेपी पांच साल सत्ता में रहकर इस बात को बहुत अच्छी तरह जान गई है कि अगला पांच साल बिना कुछ किए कैसे बिताया जा सकता है।

 

देश के तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने वर्ष 2016 के अंत में संसद को बताया था कि 31 दिसंबर 2014 तक कुल 2,89,394  ‘स्टेटलेस इंसान’ भारत में रह रहे हैं। इन स्टेटलेस लोगों में सबसे ज्यादा 103817 बंगालादेश से हैं जबकि 1,02,467 श्रीलंका से, 58,155 तिब्बत से 12,434 म्यांमार से, 8,799 पाकिस्तान से और अफगानिस्तान से 3,469 व्यक्ति भारत में रह रहे हैं। अब भारत सरकार के इन आंकडों पर गौर कीजिए।

 

अमित शाह ने राज्यसभा में नागरिकता संशोधन बिल पेश करते हुए सदन में कहा कि मोदी की सरकार लाखों-करोड़ों गैर मुसलमानों को लाभ पहुंचाने के लिए यह बिल संसद में पेश कर रही है। हकीकत यह है कि जिन गैर-मुसलमानों को इस बिल से कोई लाभ नहीं होगा, उसमें श्रीलंका के हिन्दू भी शामिल हैं जिनकी संख्या बांग्लादेश के हिन्दुओं से कुछ सौ ही कम है। अर्थात अगर मोदी-शाह को सभी हिन्दुओं को चिंता करनी थी तो उन्हें श्रीलंका से भारत में आकर रह रहे लोगों को भी प्राथमिकता में रखना चाहिए था लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया। अमित शाह या नरेन्द्र मोदी इस बात को बहुत अच्छी तरह समझते हैं कि श्रीलंका के तमिलों को नागरिकता देकर गोबरपट्टी के लोगों को उद्वेलित नहीं किया जा सकता है। गोबरपट्टी के लोगों को उद्वेलित करने के लिए सभी मामले का हिन्दू-मुसलमान किया जाना अनिवार्य है!  

 

सवाल यह भी है कि आखिर क्या कारण है कि बीजेपी हर मसले का समाधान हिन्दू-मुसलमान में ही खोज लेना चाह रही है? असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और दिल्ली मिलाकर 300 से अधिक लोकसभा की सीटें हैं, जहां बीजेपी सांप्रदायिता के आधार पर काफी ‘बेहतर’ ढंग से खेल ले रही है। यही वे राज्य हैं जहां जातीय और धार्मिक अाधार पर सबसे गहरी गोलबंदी होती रही है। बीजेपी इस बात को भी समझती है कि अगर धार्मिक गोलबंदी न हो तो भले ही सवर्ण उसके पक्ष में पूरी तरह गोलबंद हो गया हो, सत्ता तक उसे नहीं पहुंचा सकती है। सत्ता तक पहुंचने या पहुंचाने तक के लिए उसे दलितों का वोट चाहिए, पिछड़ों का वोट चाहिए! और दलित व पिछड़ों का वोट बिना धार्मिक गोलबंदी के उसे नहीं मिल सकता है। 

 

वैसे बीजेपी की तरफ से आजकल जो भी दलीलें दी जा रही हैं, सच्चाई से ज्यादा लफ्फाजी और भावनात्मक है। उदाहरण के लिए इसी तरह का यह तर्क दिया जा रहा है कि जिन गैर मुसलमानों को पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से प्रताड़ित होकर भारत आना पड़ा है उन्हें भारत की नागरिकता नहीं दी जानी चाहिए? तो यहां सवाल यह भी है कि क्या इन लोगों को पहले नागरिकता नहीं दी जा रही थी? अनुमान है कि पाकिस्तान,बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आये लगभग दो करोड़ शरणार्थियों को भारत की नागरिकता दी जा चुकी है। 

 

तो सरकार जो भी बहस चलाए यह तो साफ है कि इस कानून के पास होने तक पुराने कानून में भी किसी शरणार्थी को, जो नागरिकता की चाहत रखता हो, उसे नागरिकता देने से मना नहीं किया गया इसलिए जिन आंकड़ों को राजनाथ सिंह ने दिसंबर 2016 में संसद में पेश किया था उन्हें नागरिकता क्यों नहीं दी गई जबकि 22 मई 2014 से ही केन्द्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार है।इन्हें नागरिकता देने के लिए कानून बनाने की तो कोई आवश्यकता ही नहीं थी। मोदी-शाह को इसे हिन्दू-मुसलमान के आधार पर विभाजित करना था- जो इन्होंने करने की कोशिश की है। 

 

बीजेपी के लीडरान की तरफ से तरह-तरह के तर्क गढ़े जा रहे हैं जिससे कि लोगों को यह मामला हिन्दू-मुसलमानों का लगने लगे। इस हिन्दू-मुसलमान बनाने का बीड़ा मोदी और शाह ने खुद उठा रखा है, जिसे उनके अनुयायी टीवी चैनलों और अखबारों के माध्यम से आम जनता के बीच पहुंचाना चाह रहे हैं। लेकिन हकीकत तो यह है कि इसका सबसे ज्यादा असर देश के सभी गरीबों पर होगा, मुख्य रूप से उन गरीबों पर सबसे अधिक होगा जिनके पास किसी तरह की शिक्षा नहीं है। इससे जुड़े एनआरसी का सबसे ज्यादा नुकसान हमारे देश के मूलनिवासी आदिवासियों का होगा क्योंकि सैकड़ों वर्षों से जहां वे और उनके पूर्वज रह रहे हैं उनके पास कोई कागजात ही नहीं होंगे। इसकी चपेट में घुमक्कड़ जातियां आएगीं जो अपना आवास एक जगह से दूसरी जगह पीढ़ी दर पीढ़ी बदलती रही हैं। 

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