यहां से देखाेः साइंटिफिक टेम्पर की “सामूहिक हत्या”!

“पिछले कुछ साल में गैर-जिम्मेदार नेताओं ने जान-बूझ कर विज्ञान, सरकारी संस्थाओं और मीडिया से जनता का विश्वास डिगाया है. ये ग़ैर-ज़िम्मेदार नेता अधिनायकवाद का रास्ता अपनाने को लालायित हैं, उनकी दलील होगी कि जनता सही काम करेगी इसका यकीन नहीं किया जा सकता.”

इज़रायली दार्शनिक युवाल नोह हरारी ने प्रसिद्ध अखबार फाइनेंशियल टाइम्स में बीते 20 मार्च को लिखे अपने लंबे लेख में कुछ बहुत ही मार्के की बातें कही हैं. नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के छह साल बाद इसका परिणाम वैश्विक आपदा कोरोना के समय हमारे देश में भी बहुत साफ़-साफ़ दिखने लगा है.

प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने कुछ बच्चों से बात करते हुए राज्यसभा टीवी चैनल के एक प्रोग्राम में कहा कि क्लाइमेट चेंज जैसी कोई बात नहीं होती है, दरअसल जब आपकी उम्र बढ़ जाती है तो आपको अधिक ठंड लगती है, यह प्राकृतिक सत्य है जबकि कुछ लोग इसे क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) का नाम देकर लोगों को डराते हैं.

इसी तरह प्रधानमंत्री मोदी ने एक अवसर पर कहा कि जब भगवान गणेश के सिर पर हाथी का सिर फिट कर दिया गया था तो वह दुनिया की सबसे पहली प्लास्टिक सर्जरी थी और इसका मुझे गर्व है कि वह हमारे देश भारत में हुआ था. इसी तरह एक बार उन्होंने हारवर्ड युनिवर्सिटी का मज़ाक उड़ाते हुए उसकी जगह हार्डवर्क कहा था.

उसी तरह तब के विज्ञान व प्रौद्योगिकी मंत्री व वर्तमान में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने कहा था कि स्टीफेंन हॉकिग्स ने भी E=mc2 समीकरण में वेद की श्रेष्ठता को स्वीकार किया है.

यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती है. सरकारी व महत्वपूर्ण पदों पर बैठे भाजपा के नेताओं के इस तरह के बयान बराबर आते रहते हैं. भाजपा नेता व त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बिप्लव कुमार देव ने कहा कि महाभारत के समय भी इंटरनेट था. सबसे दुखद यह है कि सत्ताधारी पार्टी के नेताओं के द्वारा इस तरह के अवैज्ञानिक बयान लगातार दिये जाते हैं, लेकिन वैज्ञानिक समुदाय से किसी तरह का प्रतिरोध सुनाई नहीं पड़ता है.

अभी एक हफ्ता पहले देश के प्रधानमंत्री ने अपने विशेष अंदाज़ में (जो समान्यतया शाम के आठ बजे करते हैं) देश की जनता के नाम एक संदेश दिया. उस संदेश में उन्होंने देशवासियों से अपील की कि 22 मार्च, रविवार को शाम पांच बजे वे “जनता कर्फ्यू” का पालन करें और अपनी बालकनी में या छत पर खड़े होकर पांच मिनट के लिए थाली, प्लेट, घंटी और शंख बजाएं. यह शंख कोरोना बीमारी से लड़ने वाले उन लोगों के प्रति आदर व्यक्त करने का एक जरिया होगा जिसमें वे लोग रात-दिन पीड़ितों की सेवा में लगे हुए हैं. (यद्यपि यह आइडिया भी स्पेन का था जब 14 मार्च को रात के दस बजे देशवासियों ने डॉक्टरों और नर्सों के लिए तालियां बजायी थीं).

इसका परिणाम देखिएः रविवार की शाम देश की जनता अपने घरों की छत पर, बालकनी में, खड़ी हो गयी और जोर-जोर से शंख, घंटी, थाली आदि पीटने लगी. शाम के पांच बजे ही लोगों ने जोरशोर से ‘भारत माता की जय’ और ‘गो करोना गो’ के नारे लगाए!

इतना ही नहीं, देश के विभिन्न भागों में, खासकर जहां भाजपानीत सरकार है, वहां पर ‘कोरोना को हरा दिये जाने पर’ बड़ी संख्या में लोगों ने विजय जुलूस निकाला.

सवाल यह नहीं है कि देश की जनता को डॉक्टरों, नर्सों व विकट परिस्थिति में सेवा कर रहे लोगों के प्रति आभार प्रकट नहीं करना चाहिए. यहां सवाल यह है कि जब देश अभूतपूर्व स्वास्थ्य संकट से जूझ रहा है तब इस तरह के प्रहसन का क्या मतलब होता है? सवाल यह भी है कि जब इस भावी महामारी की सूचना दो महीने पहले से थी तो केन्द्र सरकार ने क्या किया? यह सवाल भी इतना ही महत्वपूर्ण है कि जब इस तरह के प्रहसन की शुरूआत होती है तो समाज को कितना नुकसान होता है!

पूरी दुनिया में इस महामारी से बचने के लिए सरकारों ने अपने पूरे संसाधन झोंक दिये हैं जबकि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब 24 तारीख की रात 8 बजे 21 दिनों तक ‘लक्ष्मण रेखा’ में रहने और घर की दहलीज पार न करने की चेतावनी दे रहे थे तब तक कोरोना के खतरे की चेतावनी को लगभग ढाई महीने बीत चुके थे. संसद का बजट सत्र शुरू होने से पहले ही यह सवाल कम से कम तीन बार निर्मला सीतारमण से पूछा गया था कि सरकार कोरोना से निपटने के लिए क्या कदम उठा रही है? इस सवाल पर उनका जवाब होता था कि हम उससे निपटने में सक्षम हैं. यही जवाब देश के स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन का होता था, जबकि हम जानते हैं कि जितनी तैयारी होनी थी उसकी तैयारी भारत में बिल्कुल ही नहीं थी और न आज है.

कल रात के अपने संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने कोरोना से ‘लड़ने के लिए’ 15 हजार करोड़ रुपए आंवटित किये हैं, जो इस तरह की महामारी से बचने के लिए नाकाफ़ी है. इससे दस दिन पहले केरल की सरकार बीस हजार करोड़ रुपये की सहायता राशि आवंटित कर चुकी है. भारत सरकार ने यह पूरी राशि मेडिकल सुविधा के लिए रखी है, जबकि देश के सभी बड़े अस्पतालों में रूटीन मरीज़ों को देखना बंद कर दिया गया है. सरकार के इसी फैसले से सैकड़ों मरीज़ों की जान चली जाएगी. इसके अलावा मजदूरों, किसानों व हाशिये पर जिंदगी जी रहे नागरिकों को गरीबी व भुखमरी से बचाने के लिए कोई उपाय ही नहीं किया गया है.

आखिर क्या कारण है कि कोरोना वायरस से बचने के लिए सरकार ने अंतिम क्षण में आकर न्यूनतम राशि आवंटित की जबकि यह खतरा लंबे समय से देश में बना हुआ था? अभी तक इसका इलाज नहीं खोजा जा सका है लेकिन इसके बचाव का उपाय काफी पहले ढ़ूंढ लिया गया था. बचाव का उपाय यही था कि लोगों को भीड़ से अलग कर दिया जाए क्योंकि विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में यह वायरस तीसरे दौर में पहुंच गया है जहां एक दूसरे के संपर्क में आने से यह फैलेगा.

सरकार ने इस आशंका को गंभीरता से बिल्कुल नहीं लिया. अब जब इसका वास्तविक रूप सामने आना शुरू हुआ तो सरकार इससे लड़ने के लिए जनता से ताली बजवा रही है.

इसका प्रमुख कारण यह है कि लंबे समय से वैज्ञानिक सोच को खत्म करने की तैयारी की जा रही थी, जिसने मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद एकाएक जोर पकड़ ली. पिछले अनेक वर्षों से आरएसएस व बीजेपी के ने गौमूत्र और गोबर को सबसे बेहतर कीटाणुनाशक पेय व दवा के रूप में प्रचारित किया, लेकिन देश के वैज्ञानिक समुदाय ने किसी तरह का विरोध नहीं दर्ज कराया. परिणाम यह हुआ कि कोरोना के समय हिन्दू महासभा और बीजेपी के कई नेताओं ने गौमूत्र सेवन को कोरोना से लड़ने वाली दवा के रूप में सार्वजनिक रूप से पेश करना शुरू कर दिया. फिर भी सरकार के प्रमुख या वैज्ञानिकों ने इसका प्रतिरोध नहीं किया.

जब देश से साइंटिफिक टेंपर खत्म हो गया तो समाज से रेशनल थिकिंग भी खत्म होने लगी. वैज्ञानिकता को ज्योतिष शास्त्र से चुनौती दी जाने लगी और धर्म के नाम पर शासन करने वाली भाजपा को इसी वक्त का इंतज़ार था. यही कारण है कि जब देश में स्वास्थ्य आपातकाल हो गया है तो छत या बालकनी से अमिताभ बच्चन का ताली बजाना, अंबानी का घंटी बजाना, राजदीप सरदेसाई और सागरिका घोष का बालकनी में आकर ताली बजाना- ये सब हरकतें वैज्ञानिक चेतना के ताबूत में अंतिम कील की तरह ठुक गयीं।

हर सरकार की प्राथमिकता होती है. इस सरकार की पहली प्राथमिकता वैज्ञानिक चेतना को खत्म करना थी, जो 22 मार्च को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित हुआ.  उस दिन जिस तरह से ताली बजे, थाली पीटी गयी, ‘भारत माता की जय’ और ‘गो कोरोना गो’ के नारे लगे, वह साबित करता है कि देश में सामूहिक रूप से ‘साइंटिफिक टेंपर’ को खत्म कर दिया गया है! इसलिए कोरोना हो या और कोई बीमारी, इसके लिए किसी तरह की सरकारी सहायता मुहैया नहीं करायी जाएगी बल्कि एक नये तरह का प्रहसन होगा.

हमें यह भी याद रखना चाहिए कि जिनके कहने पर हम ताली बजा रहे हैं, उनके खुद का और उनके परिवार का स्वास्थ्य सुरक्षित है. हां, ताली बजाने वाली बहुसंख्य जनता विपत्ति के समय असहाय होगी, जिसके लिए घंटी या ताली बजाने वाला भी कोई नहीं होगा.

पूर्व आइएएस अधिकारी जवाहर सरकार के इस ट्वीट पर गौर करें, जिसमें वे लिखते है कि भारत के पास 1826 लोगों पर एक बिस्तर है, 11,600 लोगों पर एक डॉक्टर है, 84 हजार लोगों पर एक आइसोलेशन बेड है. भारत सरकार विज्ञापन पर 6000 करोड़ खर्च करती है, 9130 करोड़ मूर्तियों पर खर्च करती है, 2021 करोड़ प्रधानमंत्री जी विदेश यात्रा पर खर्च करते हैं. सरकार इस खर्च से 17 एम्स बनवा सकती थी, 35 मेडिकल कॉलेज बनवा सकती थी जबकि 50 सरकारी अस्पताल बना सकती थी.

सवाल यह है कि हमारे प्रधानमंत्री की प्राथमिकता में यह हो तब तो…?


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