भारत में सैटेलाइट चैनल का पिछला बीस साल देश का भाग्यविधाता रहा है। हमारे देश की लंबी बौद्धिक परंपरा के लिए यह सबसे खतरनाक और चुनौती भरा दौर रहा है। जैसे-जैसे टेलीविजन चैनलों का विस्तार होता गया, धीरे-धीरे पूरी बौद्धिकता किताबों, पुस्तकालयों या आम सभा से निकलकर टेलीविजन चैनलों के स्टूडियो में जाकर सिमट गयी। वह इंसान बड़ा से बड़ा बौद्धिक बनता चला गया जो प्राइम टाइम में रात के भोजन के समय आपके अपने पसंददीदा चैनलों पर दिखाई देने लगा। और अगर किसी इंसान की उपस्थिति हफ्ते में एक बार भी किसी टीवी चैनल पर होने लगी तो हमारा यह दरिद्र समाज उसे ‘बड़ा ज्ञानी’ मान बैठा।
इसकी शुरुआत संभवतः एसपी सिंह से हुई जब ‘आजतक’ शुरू हुआ, जिसके वे पहले संपादक भी थे। चैनल बनने से पहले ‘आजतक’ दूरदर्शन पर दिखाया जाने वाला साप्ताहिक न्यूज़ बुलेटिन था जिसे एसपी सिंह एंकर के बतौर पेश करते थे। एसपी सिंह की खासियत यह थी कि वह खालिस पत्रकार थे। स्टार क्या होता है वह जानते भले ही थे, स्टारडम का अहसास उन्हें ठीक से हुआ भी नहीं था। इसलिए वह दूरदर्शन में रहते हुए भी सत्ता के खिलाफ खबरें करते थे, सत्ता को कई स्तर पर चुनौती देते थे और लीक से हटकर भी कई बार खबरें दिखाया करते थे।
एसपी संभवतः खुद को स्टार के रूप में नहीं देख रहे थे। वे सिर्फ पत्रकार थे, इसलिए हर समय पत्रकार के रूप में ही सवाल करते रहे थे। उनकी एक पत्रकारीय प्रतिबद्धता थी। बाद में जितने भी पत्रकार टेलीविजन में हुए, वे स्टार बनने की मंशा लेकर इस इंडस्ट्री में आए क्योंकि उन्होंने एसपी सिंह के स्टारडम को महसूस किया था।
इसका परिणाम यह हुआ कि उस दौर से लेकर आज तक जितने भी बड़े पत्रकार हुए, उनका एक तय मापदंड था। उन्हें पता था कि उन्हें स्टार बनाने में क्या-क्या तत्व मदद कर सकता है! और वे लगातार उन तत्वों को अपने व्यक्तित्व में समाहित करते चले गये और स्टार से बड़ा स्टार और कभी-कभी सुपर स्टार तक बन गये।
इसका सबसे ज्यादा नुकसान हालांकि भारतीय समाज को हुआ। पब्लिक इंटेलेक्चुअल का स्पेस टीवी पत्रकारों ने ले लिया। वे पब्लिक इंटेलेक्चुअल, जो हमारे समाज के और कभी-कभी सरकार के ‘कॉशिएंस कीपर’ थे। उन्हें एकाएक परिदृश्य से ओझल कर दिया गया। हिन्दी समाज में आज भी आनन्द स्वरूप वर्मा, अनिल चमड़िया, उर्मिलेश, अपूर्वानंद, सुभाष गताड़े, पंकज बिष्ट जैसे अनेक पब्लिक इंटेलेक्चुअल हैं लेकिन हमारा समाज उन्हें पब्लिक इंटेलेक्चुअल नहीं मानता है (इसमें अपूर्वानंद और उर्मिलेश अपवाद हैं क्योंकि वे टीवी पर दिखाई दे जाते हैं)।
आज हमारे समाज के लिए रवीश कुमार, रजत शर्मा, सुधीर चौधरी, रोहित सरदाना, अंजना ओम कश्यप, अजीत अंजुम, दीपक चौरसिया जैसे अनेक टीवी एंकर नए पब्लिक इंटेलेक्चुअल हैं जिनके मन-मस्तिष्क पर इनका कब्जा हो गया है। इन सारे एंकरों में रवीश कुमार को छोड़कर किसी भी एंकर को आप सत्ता के खिलाफ सवाल खड़ा करते हुए नहीं पाएंगे। वे स्टार एंकर हमेशा सत्ता पक्ष को बचाते हुए दिखते हैं और उलटा विपक्षी दलों के खिलाफ सत्ता पक्ष की तरफ से चुनौती देते रहते हैं। मोदी के शासनकाल में तो वे स्टार एंकर सिर्फ सत्ता की तरफ से सरकार के खिलाफ सवाल करने वालों के अस्तित्व को चुनौती दे रहे हैं।
यह परिस्थिति एक दिन में नहीं बनी है। इस ट्रेंड को सबसे पहले मालिकों ने समझा। चैनल मालिकों को इसका अहसास हो गया कि सरकार उनके सामने किस तरह से चुनौती पेश करने वाली है। अपवादों को छोड़ दें तो किसी भी न्यूज़ चैनल का एक धंधा नहीं है। सभी समाचारपत्रों और टीवी चैनलों का इस धंधे के अलावा भी कई तरह के धंधे हैं। टीवी चैनल और अखबार वह धंधा है जिसके तहत मालिकान अपने दूसरे हितों को साधते हैं।
यही हाल कमोबेश अंग्रेजी न्यूज़ चैनलों का है। अंग्रेजी न्यूज़ चैनलों ने भी बड़े-बड़े स्टार बनाये। बड़े स्टार एंकरों में राजदीप सरदेसाई, बरखा दत्त, अर्णब गोस्वामी, नविका कुमार या राहुल कंवल ने अंग्रेजी समाज के सभी बड़े पब्लिक इंटेलेक्चुअल्स को किनारे कर दिया। आशीष नंदी, आशुतोष वार्ष्णेय, प्रताप भानु मेहता, रामचंद्र गुहा, मुकुल केसवन जैसे लोग किनारे कर दिए गए और टीवी के गढ़े हुए स्टार हमारे समाज का भविष्य निर्धारित करने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि वे अपने स्टारडम को बचाने के लिए वही बोलने और गाने-गुनगुनाने लगे जो सत्ताधारी दल चाहता था।
यह अकारण नहीं है कि जब 2014 में नरेन्द्र मोदी की सरकार बन रही थी तो बतौर सीएनएन-आइबीएन संपादक, राजदीप सरदेसाई ने ऑन रिकॉर्ड भगवा रंग का केक खाया था और कहा थाः ”हफ्ते भर मेरी टाइ को देखकर आपको पता चला होगा कि राष्ट्र का मिजाज (मूड ऑफ द नेशन) क्या है और अब इस माहौल में मुझे भी छुट्टी मनाने का हक है” (संदीप भूषण की किताब से उद्धृत, पेज 59)। लगभग यही माहौल उस समय एनडीटीवी के न्यूज़रूम का था। बरखा दत्त खुशी से चहकते हुए ऑन स्क्रीन उद्घोष कर रही थीं: ”अमित शाह सचमुच स्टार हैं… क्या आपको नहीं लगता!” (संदीप भूषण की किताब से उद्धृत, पेज 59)
इसी किताब के एक अन्य अध्याय ‘स्टार्स आर द न्यूज़’ में संदीप बताते हैं कि स्टार एंकर को कैसा होना चाहिएः
* स्टार एंकर कभी छोटी स्टोरी पर काम नहीं करता है, जैसे वह कभी भी निराश करने वाली- जैसे कि कालाहांडी या मराठवाड़ा में किसानों की आत्महत्या पर कोई रिपोर्ट नहीं करेगा।
* वह सरकार के खिलाफ कोई पोजीशन नहीं लेगा। वह वैसे लोगों को बैठाकर पैनल में बहस करवाएगा जिससे कि दिन भर जो भी आरोप सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ लगें हों उसे मिटा दिए जाएं।
* स्टार एंकर माओवाद या वामपंथ का समर्थक तो कतई नहीं हो सकता है। अगर वह दक्षिणपंथी है, मुसलमान विरोधी है या थोड़ा-बहुत कांग्रेसी भी है तो कोई परेशानी नहीं है, मतलब बढ़िया ही है।
* उसे सेना के खिलाफ तो कतई नहीं लिखना चाहिए। स्टार पत्रकार या एंकर द्वारा सेना बीट कवर करने वालों को बताया जाना जरूरी है कि चाहे जो भी सबूत हो, उसके खिलाफ कुछ न दिखाए। पैनल में बुलाए गए व्यक्ति अगर कश्मीर में या पूर्वोत्तर के राज्यों में सेना की बुराई कर दें तो उसे दूसरी बार किसी भी परिस्थिति में नहीं बुलाना है।
* स्टार एंकर को अनिवार्यतः उदारीकरण और उद्योग जगत का समर्थक होना जरूरी है।
* स्टार एंकर या पत्रकार की हमेशा सेलिब्रिटीज़ के साथ नजदीकी या हो सके तो निजी रिश्ता हो।
ऊपर की बातों पर गौर करें तो हम पाते हैं कि आज के दिन जितने भी ‘बड़े’ टेलीविज़न पत्रकार हैं, उनमें रवीश कुमार को छोड़कर हर स्टार एंकर ऊपर लिखी बातों का अक्षरशः पालन करता है। क्या आपने कभी देखा या सुना है कि जितने भी प्राइम टाइम एंकर हैं, उन्होंने कभी सरकार को उसके दायित्व की याद दिलायी है? ऐसा भी नहीं है कि अपने समय के सभी स्टार एंकरों ने वही किया जो सरकार को सुहाता था। कम से कम दो बड़े स्टार एंकरों की कहानी सबके सामने है- पुण्य प्रसून वाजपेयी और अभिसार शर्मा। ये दोनों यदा-कदा सत्ता पक्ष को चुनौती देते थे, दोनों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया, उस चैनल के द्वारा जिसे हम लिबरल कहते हैं- एबीपी न्यूज़।
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