यहां से देखो : जातिवाद से कराहता भारतीय मीडिया

आज से लगभग 22 साल पहले, 1997 में प्रसिद्ध अकादमिक रॉबिन जेफ्री ने प्रतिष्ठित पत्रिका इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली (ईपीडब्लू) में भारत के समाचारपत्रों पर 11 खंड में ‘इंडियन लैंग्वेजेज़ न्यूज़पेपर्स’ नाम से लेख लिखा था। उन लेखों में मलयालम, हिन्दी, बांग्ला, तेलुगु, तमिल, गुजराती, मराठी, पंजाबी, उड़िया, कन्नड़ और उर्दू के अखबारों का जिक्र किया गया था। हिन्दी अखबारों पर उनके लिखे लेख का शीर्षक था- ‘हिन्दी न्यूज़पेपर्स: टेकिंग पंजाब केसरी लाइन’। इन लेखों को जेफ्री ने बाद में किताब का रूप दिया और किताब का नाम रखा- इंडियाज़ न्यूजपेपर रिवॉल्यूशन!

किताब में विस्तार से बताया गया है कि किस तरह भारत में प्रिंट मीडिया का फैलाव हुआ है। दुर्भाग्य से उस किताब में जेफ्री न्यूज़रूम में जाति या जातिगत भेदभाव की बात नहीं करते, लेकिन बहुत बाद में उन्होंने द हिन्दू में मिसिंग फ्रॉम द इंडियन न्यूज़रूम शीर्षक से एक लेख लिखा जिसमें दलितों और आदिवासियों की न्यूज़रूम में अनुपस्थिति के बारे में बात की।

अब ऑक्सफैम इंडिया ने न्यूज़लॉंन्‍ड्री के साथ मिलकर एक रिपोर्ट तैयार की है जिसका शीर्षक है- ”हू टेल्स आवर स्टोरी मैटर्स” यानी कहानी कौन कह रहा है यह मायने रखता है! पूरी रिपोर्ट नीचे संलग्‍न है।

Oxfam NL Report_full report

इस रिपोर्ट में अंग्रेजी-हिन्दी के लगभग सभी बड़े न्‍यूज़ प्लेटफॉर्म का अध्ययन करके बताया गया है कि न्यूज़रूम में किस जाति के लोग हैं जो अंतिम निर्णय लेते हैं। निर्णय लेने का मतलब सिर्फ यह है कि वे तय करते हैं कि खबरों में क्या चलेगा, किस लेखक का लेख छपेगा और टेलीविज़न स्टूडियो में प्राइम टाइम में किस विषय पर बहस होगी और कौन वक्‍ता आएगा!

अंग्रेजी-हिन्दी के अखबारों, न्यूज़ चैनलों और डिजिटल मंचों की बात करें तो पता चलता है कि अंग्रेजी टीवी चैनलों में इंडिया टुडे, एनडीटीवी, सीएनएन न्यूज़ 18, राज्यसभा टीवी, मिरर नाओ, टाइम्स नाओ और रिपब्लिक टीवी के 89 फीसदी महत्वपूर्ण पदों पर सवर्ण बैठे हैं और अनुसूचित जाति, जनजाति व पिछड़ी जाति का एक भी नुमाइंदा वहां निर्णायक भूमिका में नहीं है।

इसी तरह हिन्दी टीवी चैनलों में आजतक, न्यूज़ 18 इंडिया, इंडिया टीवी, एनडीटीवी इंडिया, राज्यसभा टीवी, रिपब्लिक भारत और ज़ी न्यूज़ 100 फीसदी सवर्णों के लिए ‘आरक्षित’ हैं। मतलब यह कि यही लोग यह तय करेंगे कि किसकी खबर चलेगी, किसे नायक बनाया जाएगा और किसे खलनायक बनाया जाएगा! इसी तरह सात चैनलों के 10 में से आठ महत्वपूर्ण टीवी शो के एंकर सवर्ण हैं जबकि एससी, एसटी और ओबीसी एक भी नहीं है।

कमोबेश यही हाल अंग्रेज़ी अखबारों का है। ऑक्सफैम ने अपने अध्ययन में द हिन्दू, हिन्दुस्तान टाइम्स, टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, इकनॉमिक टाइम्स और टेलीग्राफ को शामिल किया है। उन अखबारों के खबरों के निर्धारण करने वालों (लीडरशिप पोजि़शन) में 92 फीसदी लोग सवर्ण हैं जबकि वहां भी अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ा वर्ग या अल्पसंख्यक समुदाय से कोई व्यक्ति नहीं है।

हिन्दी अखबारों में दैनिक भास्कर, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, राजस्थान पत्रिका, प्रभात खबर, पंजाब केसरी और हिन्दुस्तान को शामिल किया है। वहां के हालात भी उतने ही बदतर हैं। हिन्दी अखबारों में भी दलित, आदिवासी या पिछड़े समुदाय का एक भी व्यक्ति निर्णायक स्थिति में नहीं है।

पूरी रिपोर्ट को गंभीरतापूर्वक देखिए और पढि़ए। अगर आप भारत की सामाजिक विविधता में विश्वास रखते हैं तो आपकी आंखें फटी की फटी रह जाएंगी। अखबारों में लिखे लेखों में पचास फीसदी से अधिक लेखों के लेखक सवर्ण होते हैं जो हर विषय पर अपनी प्रतिभा का बराबर मुज़ाहिरा करते हैं। वे दलित राजनीति पर भी लिखते हैं, आदिवासी के विकास और विनाश पर लिखते हैं, जनेऊ पहनने की महत्ता बताते हैं, वैष्णो देवी का गुणगान करते हैं और मंदिर जाने का लाभ बताते हैं। वे यह भी बताते हैं कि कैसे शिक्षा और स्वास्थ्य का निजीकरण कर दिया जाना चाहिए। कई बार तो वे ‘विशेषज्ञ’ सभी चीजों का निजीकरण करने का तर्क देते हैं और बताते हैं कि सरकार का काम सिर्फ टैक्स वसूलना होना चाहिए!

रिपोर्ट में बताया गया है कि अंग्रेजी अखबारों में पांच फीसदी लेखक दलित समुदाय से आते हैं जबकि हिन्दी अखबारों का हाल थोड़ा ‘बेहतर’ है क्योंकि वहां लिखने वालों में 10 फीसदी लोग दलित-आदिवासी समुदाय से आते हैं! ऑक्सफैम के मुताबिक जिन 12 पत्रिकाओं का अध्ययन किया गया उनमें कवरपेज पर छपी 972 स्टोरी में सिर्फ 10 लेख जाति से जुड़े विषय पर थे यानी केवल एक फीसदी लेख जाति से जुड़े थे। न्यूज पोर्टलों में कुल 11 का अध्‍ययन किया गया जहां पाया गया कि 72 फीसदी ‘ज्ञानी’ सवर्ण हैं जो हर विषय पर अपनी प्रतिभा बिखेरते हैं।

इसी तरह अध्ययन में शामिल कुल 121 न्यूजरूमों के लीडरान की बात करें- जिनमें प्रधान संपादक, मैनेजिंग एडिटर, कार्यकारी संपादक, ब्यूरो प्रमुख, इनपुट/आउटपुट एडिटर, जैसे पद शामिल हैं- तो 106 न्‍यूज़रूमों में लोग सवर्ण पदाधिकारी हैं। एक भी अनुसूचित जाति या जनजाति का नहीं है।

इतना ही नहीं, टीवी चैनलों पर जो गेस्ट (एक्सपर्ट) बुलाए जाते हैं उनमें अधिकांश सवर्ण होते हैं। हिन्दी न्यूज चैनलों में राज्यसभा टीवी में सबसे अधिक (89 फीसदी) सवर्ण विशेषज्ञ होते हैं, तो इंडिया टीवी पर 76 फीसदी, रिपब्लिक भारत पर 74 फीसदी, आजतक पर 73 फीसदी, ज़ी न्यूज़ पर 70 फीसदी, एनडीटीवी इंडिया पर 66 फीसदी सवर्ण होते हैं। कमोबेश यही हाल हर चैनल का है।

डिजिटिल पत्रकार रंगनाथ सिंह की बातों को थोड़ा संशोधित कर के अगर रखें तो कहा जा सकता है कि आज के दिन हिन्दी समाज के पब्लिक इंटलेक्चुअल या तो टीवी के ऐंकर हैं या फिर टीवी बहसों में शामिल होने वाले वक्‍ता हैं। यही लोग हमारे समाज में बहस का रूप तय करते हैं, दिशा तय करते हैं, माहौल बनाते हैं। जब न्यूज़रूम में कोई दलित नहीं है, आदिवासी नहीं है, पिछड़ा वर्ग नहीं है, टीवी बहस में भी वही स्थिति है, तो कौन सा विषय देश की दिशा को तय करेगा? वही विषय, जो 15 फीसदी आबादी और लोगों के दिल के करीब हैं, जो न्यूज़रूम से लेकर टीवी बहस तक, नौकरशाही से लेकर ओपिनियन पीस लिखने वाले समुदाय से आते हैं! तब बहस भी उन्हीं विषयों पर होगी कि हिन्दू राष्ट्रवाद क्या है।

वे यह भी लिख सकते हैं या टीवी स्टूडियो में बहस करवा सकते हैं कि मुसलमान कितने गंदे होते हैं, गरीबों को बार-बार अवसर मिलता है लेकिन वे इतने नालायक हैं कि उसका लाभ नहीं उठा पाते हैं। वे तो यहां तक लिख दे सकते हैं कि सारे फसाद की जड़ में गरीबी नहीं बल्कि गरीब लोग ही हैं! या फिर यह कि वे गरीब इसलिए हैं क्योंकि वे गरीब ही रहना चाहते हैं! वे अशिक्षित भी जान-बूझ कर हैं क्योंकि उन्हें सरकार के कल्‍याणकारी कार्यक्रमों का लाभ लेना होता है!

हम इस बात को न भूलें कि यह परिवर्तन एक झटके में हुआ है। ‘आत्मा के परिवर्तन’ का एक मात्र कारण मंडल कमीशन का लागू होना रहा है। यही एक मात्र वजह है कि अपवादों को छोड़कर पूरा का पूरा सवर्ण समाज एक झटके में बीजेपी का समर्थक हो गया है। वे चाहे या न चाहे, मानें या न मानें, वही बात बोलता, लिखता और करता है जो बीजेपी चाहती है, भले ही वे उससे सहमत न हों!

जो लोग यह कुतर्क कर रहे हैं कि एक मीडिया समूह में जातिवाद के खिलाफ़ चलाया जा रहा अभियान षडयंत्र का हिस्सा है, वे खुद जातिवाद से ग्रस्त हैं क्योंकि यहां तो किसी का नाम एक संदर्भ में आया है, लेकिन वहां तो सड़ांध बहुत पहले से थी। ऐसा भी नहीं है कि सड़ांध सिर्फ वहां है, भारत के सभी मीडिया समूहों का कमोबेश यही हाल है।

वहां बैठे नीति-निर्धारकों- चाहे वे संपादक हों या फिर एचआर प्रमुख- को यह सोचना चाहिए कि समाज का मात्र 15 फीसदी हिस्सा कैसे 85 फीसदी की आवाज बनकर हमें धोखा दे रहा है। आखिर क्यों नहीं उस समाज के लोगों को खुद अपने बारे में बात करने की इजाजत दी जानी चाहिए!


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