इतिहासकार रोमिला थापर ने ‘भारत का इतिहास’ में लिखा था कि भारत कई शताब्दियों में एक साथ जीता है। संदर्भ बिल्कुल अलग है लेकिन भारतीय मीडिया घरानों के क्रिया-कलापों को देखें तो आप पाएंगे कि वहां बैठा हर महत्वपूर्ण शख्स या तो घनघोर जातिवादी है या फिर जाति से जुड़े प्रश्न को जानबूझ कर इस रूप में नजरअंदाज करता है जिससे कि उस सच्चाई से दो-चार न होना पड़े। इस मामले में वे ‘प्रगतिशील व जाति-पाति न मानने वाले संपादक’ ‘पंडित’ जवाहरलाल नेहरू की तरह जाति के सवाल से रूबरू ही नहीं होना चाहते और अपनी ‘शुचिता’ बनाए रखते हैं।
पिछले हफ्ते भर से बरेली के विधायक की बेटी साक्षी मिश्रा और उसके पति अजितेश कुमार की कहानी हर अखबारों और चैनलों में ‘धूम धड़ाके’ से चलाई जा रही है। शुरूआती घंटों के बाद ज्यों ही पता चला कि अजितेश दलित है, उत्तर भारतीय मीडिया की पूरी सहानुभूति साक्षी मिश्रा के लिए हो गई और पूरा मीडिया अजितेश को आवारा, नालायक, अय्याश, चरित्रहीन आदि अलंकरणों से विभूषित करते हुए उस ‘उपर्युक्त सभी अवगुणों से लैस’ साबित कर दिया।
आखिर ऐसा क्यों होता है कि ज्यों ही मामला दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, पिछड़ा और कई बार महिलाओं का होता है तो पूरा का पूरा मीडिया उस व्यक्ति या समुदाय का चरित्र हनन करने निकल पड़ता है?
जिन तीस से अधिक मीडिया संस्थानों का अध्ययन हमने किया था उनमें बीबीसी हिन्दी भी शामिल था। बीबीसी हिन्दी सेवा की स्थापना 1940 में हुई थी, लेकिन अस्सी साल के इतिहास में एक भी गैर-सवर्ण संपादक यहां नहीं हुआ है। संपादक होने की बात तो छोड़िए, जब वहां पिछड़े, दलित और आदिवासी समाज से लोग रखे ही नहीं जाते हैं तो संपादक बनने की बात सोचना भी सरासर बेईमानी है।
अगर दूसरी भाषाओं में दलित, आदिवासी व पिछड़े हैं तो क्या कारण है कि हिन्दी में 80 फीसदी से भी अधिक होने के बावजूद उस समुदाय से लोग नहीं आ पाते हैं? आखिर इसके लिए कौन जिम्मेदार है? संपादक या फिर मैनेजमेंट? और बीबीसी जैसे मामले में मैनेजमेंट को पूरी तरह दोषी नहीं माना जा सकता है। आखिर दूसरी भाषाओं में गोरे और काले के बीच उस तरह का भेदभाव क्यों नहीं है जिस रूप में हिन्दी में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है?
बीबीसी की विश्व स्तर पर जितनी भी विश्वसनीयता हो, भारत में आज भी अगर उसे याद किया जाता है तो सिर्फ इसलिए क्योंकि उसने इंदिरा गांधी की हत्या की कहानी सबसे पहले बताई थी। लेकिन उसके पहले और उसके बाद बीबीसी के किसी भी पत्रकार को आज तक पत्रकारिता के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए कोई भी पुरस्कार नहीं मिला है।
हां, वहां काम करने वाले पत्रकारों को मोटी पगार जरूर मिलती है और सामाजिक सुरक्षा भी कहीं और के मुकाबले बेहतर है (और यह दोनों किसी भी लिहाज से गलत नहीं है, लेकिन वहां काम करने वाले संपादक दलित-बहुजनों को बीबीसी में रोजगार नहीं देते हैं और गलती से कोई आ भी जाए तो उसे किसी न किसी बहाने बाहर का रास्ता दिखला दिया जाता है)। हाल में एक दलित महिला पत्रकार को रखे और फिर निकाले जाने से शुरू हुआ यह विमर्श इसका ज्वलंत उदाहरण है।
बीबीसी जैसा संस्थान जातिगत दुराग्रह से कितना ग्रस्त है, इसका प्रमाण यह है कि वहां लगभग दो साल पहले एक दलित लड़की मीना कोतवाल को मल्टीमीडिया जर्नलिस्ट के रूप में नियुक्त किया गया। पिछले हफ्ते उसे नोटिस थमा दिया गया कि वह इस पद के योग्य नहीं है! शायद बीबीसी के इतिहास में वह पहली दलित पत्रकार रही होगी। मोटे तौर पर यही स्थिति वहां पिछड़ों और आदिवासियों को नियुक्त किए जाने को लेकर भी है।
सवाल यह है कि जो पत्रकार दो साल से एक संस्थान में काम कर रहा है उसे दो साल बाद कह दिया जाए कि वह अयोग्य है, तो इस अयोग्यता का असल दोषी कौन हुआ? वह नया कर्मचारी या फिर संस्थान और उसके पुराने कर्मी, जो उसे दो साल में भी ‘योग्यता’ के वांछित स्तर तक मिलकर नहीं ला सके? इतना तो तय है कि मीना कोतवाल का चयन ‘योग्यता’ की न्यूनतम अहर्ताएं पूरा करने के बाद ही किया गया होगा (अगर ऐसी कोई अहर्ता होती हो तो), फिर क्या पूरे न्यूजरूम की सामूहिक जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि वह अपने नए साथी का पोषण-प्रशिक्षण कर के एक लेवेल प्लेइंग फील्ड बनावे? जाहिर है ऐसा नहीं किया गया। मीना कोतवाल को अलग-थलग छोड़ दिया गया और अंत में नोटिस थमा दिया गया। क्यों न हम इस नोटिस को बीबीसी और उसमें काम कर रहे पत्रकारों के सवर्ण गिरोह की अयोग्यता का सबूत मानें?
अल्पसंख्यक, खासकर मुसलमानों का मामला बीबीसी में थोड़ा भिन्न या कह लीजिए सकारात्मक है। इसका कारण शायद यह है कि ब्रिटिश फॉरमेट होने के कारण यह परम्परा उसी समय से बनी है जिसमें मुसलमानों को सवर्ण हिन्दुओं के बराबर तरजीह दी जाती रही है। अन्यथा सवर्ण व ब्राह्मणवादी मानसिकता वाले संपादक तो मुसलमानों को भी बहुत पहले बाहर का रास्ता दिखा चुके होते! इसके बावजूद इन मुसलमानों में भी जातियों की पड़ताल करें तो बीबीसी या अन्य मीडिया संस्थानों में अशराफ़ मुसलमान ही आपको दिखाई देंगे। पसमांदा मुसलमानों को तो पूरे मीडिया में कहीं जगह ही नहीं है। इसका मतलब कि मीडिया में जातिगत भेदभाव का पैटर्न हिंदू हो चाहे मुसलमान, दोनों धर्मों के लिए बराबर है।
ऐसा नहीं है कि हमारे देश के किसी भी मीडिया संस्थान का हाल बेहतर है लेकिन बीबीसी हिन्दी ऐसा संस्थान है जहां प्रतिभा दरअसल जाति को देखकर ही आंकी जाती है। मेरे जानकार एक पत्रकार हैं जिन्होंने वहां दो बार नौकरी के लिए आवेदन किया लेकिन एक बार भी उन्हें उस योग्य नहीं समझा गया कि कम से कम लिखित परीक्षा के लिए ही बुला लिया जाए। इसका कारण यकीनी तौर पर यह था कि उसका सरनेम बहुत ही ‘वाहियात ढंग से’ पिछड़ी जाति का होने का बोध करवाता था, जबकि उस पत्रकार को उत्कृष्ट पत्रकारिता के लिए दो बार रामनाथ गोयनका पुरस्कार मिल चुका है।
इसी तरह खुद अपने तीन आवेदनों को शामिल करते हुए ऐसे मामले जोड़ने पर मेरी जानकारी में कम से कम पांच पत्रकारों को लिखित परीक्षा तक के लिए नहीं बुलाया गया। अपन अलावा जिन चार अन्य की बात मैं कर रहा हूं, उन्हें हिन्दी आती है, अंग्रेजी आती है, पत्रकारिता का ठीकठाक ज्ञान है, लेकिन सबसे दुखद यह है कि उनके मां-बाप के नाम में उनकी जाति का जिक्र है जो पिछड़ी या दलित जाति से आते हैं (इसकी प्रमाणिकता की जांच पुराने रिकार्ड को देखकर भी बीबीसी कर सकता है क्योंकि ज्यादातर फॉर्म ऑनलाइन भरे गए थे और उन्हें परीक्षा के लिए नहीं बुलाया गया, लेकिन सवर्ण उपनाम वालों को आज भी नियुक्त किया जाता है, उन्हें काम पर रखा जाता है और सबसे बड़ी बात, ‘अयोग्य’ कह कर कभी निकाला नहीं जाता)।
कोलंबिया जर्नलिज्म रिव्यू में 5 नवम्बर 2018 को गैब्रिएल अराना ने ‘डिकेड ऑफ फेल्योर’ नाम से एक लंबा लेख लिखा है। लेख में गैब्रिएल अराना का कहना है कि 1979 में अमेरिकन सोसाइटी ऑफ न्यूज एडिटर्स ने वचन लिया था कि वर्ष 2000 तक अमेरिका में नस्लीय व अल्पसंख्यकों की जनसंख्या के हिसाब से न्यूज रूम और मैनेजमेंट में भी उस समुदाय का प्रतिनिधित्व बराबर होगा। अमेरिका में उस समुदाय के 40 फीसदी लोग हैं। लेकिन इतने वर्षों बाद भी न्यूज रूम में मात्र 17 और मैनेजमेंट में 13 फीसदी लोग ही उस समुदाय से आ पाए हैं। द न्यूयार्क टाइम्स और वाल स्ट्रीट जर्नल में 81 फीसदी गोरे हैं जबकि वाशिंगटन पोस्ट उससे बेहतर है जहां 70 फीसदी गोरे हैं। गैब्रिएल के अनुसार, लॉस एजेंल्स में अल्पसंख्यकों की 72 फीसदी आबादी है जबकि लॉस एजेंल्स टाइम्स में 68 फीसदी गोरे काम करते हैं।
अब अमेरिका के आंकड़ों के अनुसार भारत में लोग इस बात के लिए अपने को सही साबित कर सकते हैं कि जब अमेरिका में भी वैसा नहीं हो पा रहा है जैसा कि वायदा किया गया था तो अपने भारत में ऐसा नहीं हुआ, इस पर इतनी हाय तौबा क्यों मचाई जा रही है? वे अपने को सही साबित करने के लिए वहां तक जा सकते हैं कि जब अमेरिका के बड़े-बड़े संपादकों ने अपने किए वायदे को पूरा नहीं किया फिर हमने तो वैसा कोई वायदा ही नहीं किया था!
अमेरिका के मिशिगन शहर में हुए भयावह दंगों की जांच-पड़ताल के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति एलबी जॉनसन ने केर्नर कमीशन गठित किया था। राष्ट्रपति जॉनशन ने केर्नर कमीशन को तीन बातों की पड़ताल करने को कहा था। आखिर दंगे क्यों हुए थे, दंगों में क्या हुआ था और भविष्य में उसकी पुनरावृत्ति न हो इसके लिए क्या किया जाना चाहिए?
ग्यारह सदस्यीय कैर्नर कमीशन ने 426 पेज की अपनी रिपोर्ट में लिखा, “ हमारा देश दो समानान्तर समाजों की तरफ बढ़ता जा रहा है- एक गोरा समाज और दूसरा काला समाज- दोनों एक दूसरे से जुदा हैं और पूरी तरह गैरबराबरी पर आधारित हैं। अमेरिकी गोरे इस गैरबराबरी को समझना नहीं चाहते हैं और नीग्रो के लिए यह भुला पाना असंभव सा है। गोरा समाज ने इस घेटो का रूप दे दिया है। गोरों ने इसे बनाया है, गोरे इसे चलाते हैं और गोरे ही छोड़ देते हैं।”
यह समस्या सिर्फ बीबीसी की नहीं है। इस समस्या में हिन्दी पत्रकारिता आकंठ डूबी हुई है। हिन्दी के जितने भी संपादक हैं, कमोबेश सवर्ण हैं। अखबारों के ब्यूरो में काम करने वाले लगभग सारे के सारे पत्रकार सवर्ण हैं, संपादकीय पेज के संपादक सवर्ण हैं और न्यूज का चयन करनेवाला न्यूज एडिटर सवर्ण हैं। उन सबके हित एक हैं। यही हाल टेलीविजन चैनलों का हैः एंकर सवर्ण हैं, रिपोर्टर सवर्ण हैं, डेस्क इंचार्ज सवर्ण हैं और गलती से कोई दूसरा है तो वह अपनी नौकरी बचाने के चक्कर में सवर्णों से अधिक सवर्ण बन जाता है।
इसलिए देश में अगर पत्रकारिता को बचाना है तो न्यूज रूम में विविधता लानी होगी अन्यथा हर इंस्टीट्यूशन की तरह वह भी ध्वस्त हो जाएगा- क्षरण तो कब का शुरू हो चुका है। आज की तारीख में सारे के सारे पत्रकार (महिलाएं भी) चोटीधारी, पोंगापंथी, खूंखार व घनघोर सवर्ण जातिवादी दिख रहे हैं। पत्रकारिता ऐसे तो बिल्कुल नहीं बचेगी। बस जाति बचेगी।