सपा-बसपा के पास ‘किसान प्रकोष्ठ’ तक नहीं, पूरे यूपी में किसान आंदोलन चले भी तो कैसे?

अवध में 1920-21 में बाबा रामचंद्र और मदारी पासी के नेतृत्व में बड़ा किसान आंदोलन हुआ। वास्तव में अवध का किसान आंदोलन गांधी और पटेल के नेतृत्व में हुए किसान आंदोलनों से अधिक व्यवस्थित और संगठित थे। अवध के किसान आंदोलन के साथ कांग्रेस के कुछ मतभेद भी सामने आए थे। अब सवाल यह है कि इस इतिहास के बावजूद आज के आंदोलन में किसान शामिल क्यों नहीं है।

स्वतंत्र भारत का सबसे बड़ा किसान आंदोलन दिल्ली की सरहदों पर जारी है। पिछले पचपन दिनों में पाँच दर्जन से ज्यादा किसान शहीद हो चुके हैं। कड़ाके की ठंड में लाखों किसान बूढ़े-बुजुर्ग, बच्चों और औरतों समेत डटे हुए हैं। सरकार के साथ दस दौर की वार्ता हो चुकी है। दसवें दौर की वार्ता में सरकार डेढ़ साल तक कानूनों को स्थगित करने की बात कहकर आंदोलन खत्म करवाने की कोशिश कर रही है। लेकिन अभी भी सरकार किसानों की मुख्य मांग मानने के लिए तैयार नहीं है। किसान भी तीनों काले कानून रद्द कराए बगैर पीछे हटने के लिए कतई राजी नहीं है। सरकार और भाजपा के तमाम राजनीतिक-सांस्कृतिक संगठनों द्वारा किसानों को लांछित करने का सिलसिला जारी है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों और आंदोलन के प्रति अभी तक कोई सदाशयता नहीं दिखाई है। एक क्रिकेटर की उंगली चोटिल होने पर ट्वीट करने वाले प्रधानमंत्री साठ किसानों की मौत के बाद भी खामोश हैं। अभी तक उन्होंने किसानों से कोई बात नहीं की है। सर्वविदित है कि नरेंद्र मोदी के अलावा कोई और व्यक्ति किसानों की मांग पर निर्णय लेने की स्थिति में नहीं है। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी की खामोशी और संवेदनहीनता पर बहुत सवाल खड़े होते हैं। क्या कारपोरेट घरानों को फायदा पहुंचाने के लिए मोदी देश के करोड़ों किसानों की बलि चढ़ाने के लिए तैयार हैं? क्या मोदी लाखों किसानों की मौजूदगी को किसानों की समग्र आवाज नहीं मानते? तब क्या पूरे भारत के किसानों को दिल्ली आना पड़ेगा? क्या मोदी बिल के समर्थन में भाजपा की रैलियों से किसानों को समझाने में कामयाब होंगे? क्या यह केवल पंजाब और हरियाणा के किसानों का आंदोलन है? एक सवाल यह भी है कि देश के सबसे बड़े सूबे यूपी के सभी हिस्सों से किसान आंदोलन में क्यों शामिल नहीं हैं?

पश्चिमी यूपी के किसान बड़ी तादात राकेश टिकैत के नेतृत्व में पंजाब और हरियाणा के किसानों के साथ पहले दिन से ही सिंघु और गाजीपुर बार्डर पर जमा हैं। लेकिन यूपी के दूसरे क्षेत्रों के किसानों की हिस्सेदारी आंदोलन में नहीं है। आंदोलन के किसान नेताओं ने अवध, पूर्वांचल और बुंदेलखंड के किसानों से आंदोलन में शामिल होने की अपील की है। ऐसे में सवाल उठता है कि अवध, पूर्वांचल और बुंदेलखंड के किसानों की आंदोलन में अनुपस्थिति के क्या कारण हैं? क्या इन क्षेत्रों के किसानों का आंदोलन से कोई सरोकार नहीं है? इन काले कानूनों का क्या इन किसानों पर कोई असर नहीं होगा? अथवा इसके कारण कुछ और हैं।

यूपी के तमाम हिस्सों के किसानों के आंदोलन का एक समृद्ध इतिहास रहा है। अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ पहला आंदोलन केवल सामंतों और राजाओं का विद्रोह नहीं था। अट्ठारह सौ सत्तावन का आंदोलन बुनियादी तौर पर किसानों का आंदोलन था। हिंदी आलोचक और वामपंथी विचारक रामविलास शर्मा मानते हैं कि सैनिकों के भेष में किसान ही थे जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की थी। इस आंदोलन का केंद्र आज की हिंदी पट्टी या काऊ बेल्ट ही थी। गैर- हिंदी भाषी क्षेत्रों के राजाओं और सैनिकों ने अंग्रेजों के साथ दिया था। इस कारण अट्ठारह सौ सत्तावन का आंदोलन असफल हुआ और ब्रिटिश साम्राज्य मजबूत हुआ। इसके बाद बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में गाँधी के आह्वान पर किसान, मजदूर दलित, स्त्रियां, अल्पसंख्यक और नौजवान कांग्रेस के आंदोलन में शामिल हुए। अंग्रेजी पढ़े-लिखे आभिजात्य समुदाय की कांग्रेस का स्वाधीनता आंदोलन अब जन आंदोलन में तब्दील हो गया। गांधी ने जनता के सरोकारों के साथ कांग्रेस को जोड़ा। उन्होंने अपना पहला सत्याग्रह चंपारन, बिहार (1917) में किया। अंग्रेजी हुकूमत द्वारा नील की खेती के लिए किसानों को तिनकठिया व्यवस्था अपनाने के लिए मजबूर किया गया था। गाँधी के सत्याग्रह से चंपारन के किसानों की जीत हुई। इसके बाद बारदोली, गुजरात (1928) में सरदार पटेल के नेतृत्व में बड़ा किसान आंदोलन हुआ। इसी तरह से अवध में 1920-21 में बाबा रामचंद्र और मदारी पासी के नेतृत्व में बड़ा किसान आंदोलन हुआ। वास्तव में अवध का किसान आंदोलन गांधी और पटेल के नेतृत्व में हुए किसान आंदोलनों से अधिक व्यवस्थित और संगठित थे। अवध के किसान आंदोलन के साथ कांग्रेस के कुछ मतभेद भी सामने आए थे। अब सवाल यह है कि इस इतिहास के बावजूद आज के आंदोलन में किसान शामिल क्यों नहीं है।

अवध, बुंदेलखंड और पूर्वांचल के किसानों की भागीदारी आंदोलन में क्यों नहीं है? दरअसल, इसके कई कारण हैं। पहला कारण भौगोलिक है। पश्चिमी यूपी के बरक्स पूर्वांचल, बुंदेलखंड और अवध में बड़ी जोत वाले किसानों की संख्या बेहद कम है। बुंदेलखंड की जमीन दूसरे क्षेत्रों की अपेक्षा कम उपजाऊ है। यहाँ पीली मिट्टी की अधिकता है और जमीन भी पथरीली है। इसलिए किसानों की माली हालत बहुत मजबूत नहीं है। खेती उनके लिए घाटे का सौदा है। पूर्वांचल और अवध के अधिकांश किसानों के भी यही हालात हैं। पंजाब और हरियाणा की तरह यहाँ ना सरकारी मंडियाँ हैं और ना एमएसपी पर किसानों की फसल की खरीद होती है। बिचौलिए और स्थानीय व्यापारी औने-पौने दाम पर किसानों की फसल खरीदते हैं। इसलिए भी खेती से विशेष जुड़ाव किसान महसूस नहीं करते। खेती उनके लिए कई बार घाटे का सौदा साबित होती है। दूसरा कारण सामाजिक है। अवध, पूर्वांचल और बुंदेलखंड के बड़े किसान अगड़ी जातियों के हैं। ये जातियाँ भाजपा और मोदी समर्थक हैं। लेकिन सबसे बड़ा कारण राजनीतिक है। 1989 के बाद यूपी में क्रमशः भाजपा, बसपा और सपा का शासन रहा। 2017 में भाजपा के पूर्ण बहुमत प्राप्त करने से पहले यूपी की सत्ता सपा और बसपा के इर्द-गिर्द घूमती रही है। सपा को मूलतः यादवों की पार्टी माना जाता है। भाजपा की बढ़ती सांप्रदायिक राजनीति और कांग्रेस के कमजोर होने के कारण मुसलमान भी मुलायम सिंह यादव के साथ जुड़ गए। इसी तरह से बसपा का मूल जनाधार दलित जातियाँ हैं। कांशीराम के बहुजन आंदोलन के कारण पिछड़े और मुसलमान भी बसपा से जुड़ गए। इसलिए बसपा और सपा को क्रमशः इन समुदायों का भी समर्थन मिलता रहा है। दरअसल, 1990 के बाद यूपी की राजनीति सांप्रदायिकता और सामाजिक न्याय के मुद्दों पर केंद्रित रही है। यही कारण है कि यूपी की राजनीति में किसानों का मुद्दा मुखर नहीं हुआ।

चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने वाले मुलायम सिंह की शुरूआती राजनीति में जरूर किसानों का मुद्दा रहा है। दरअसल, चरण सिंह मूलतः किसानों के नेता थे। स्वाधीनता आंदोलन में गाँधी और नेहरू के नक्शे-कदम पर चलने वाले चरण सिंह आजादी के बाद यूपी में कांग्रेस मंत्रिमंडल में शामिल हुए। गौरतलब है कि 1959 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में सहकारी खेती को लागू करने का प्रस्ताव रखा। चरण सिंह ने मुखर होकर सहकारी खेती के प्रस्ताव का विरोध किया। विरोध स्वरूप उन्होंने राजस्व और परिवहन मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। नतीजा यह हुआ कि भारत सरकार ने सहकारी खेती का प्रस्ताव त्याग दिया। आगे चलकर चरण सिंह ने कांग्रेस से बगावत करके भारतीय लोकदल नाम से अपनी पार्टी बनाई। चरण सिंह का जनाधार ‘अजगर’ समीकरण था। अहीर, जाट, गूजर और राजपूत जातियों के एका का मूल कारण इनका किसान होना था। मुलायम सिंह ने भी इसी समीकरण को आगे करके राजनीति शुरू की। लेकिन अखिलेश यादव की सपा में किसानों के लिए कोई जगह नहीं है। दरअसल, अखिलेश यादव की राजनीति के सिपहसालार फार्चूनर प्रबंधक हैं। इनका गाँव और किसान से कोई सरोकार नहीं है। यही कारण है कि सपा में किसानों का कोई प्रकोष्ठ नहीं है। इसी तरह से बसपा का भी कोई किसान प्रकोष्ठ नहीं है। दरअसल, मायावती का मुख्य जनाधार दलित जातियां हैं। अधिकांश दलित भूमिहीन और खेतिहर मजदूर हैं। इसलिए उनके लिए शिक्षा,आरक्षण और आत्म सम्मान प्रमुख मुद्दे रहे हैं। सपा और बसपा ; दो बड़े विपक्षी राजनीतिक दलों के किसानों के मुद्दे पर गंभीर नहीं होने के कारण आंदोलन में अवध, पूर्वांचल और बुंदेलखंड की भागीदारी कमजोर है।

आंदोलन में शेष यूपी के किसानों के नहीं पहुँचने का एक तात्कालिक कारण भी है। आंदोलन की मजबूती और समर्थन को देखकर योगी सरकार बहुत चौकन्नी हो गई। योगी सरकार ने समूचे यूपी में किसान संगठनों और उनके आंदोलन पर पुलिसिया पहरा बिठा दिया। अवध, पूर्वांचल और बुंदेलखंड के किसान नेताओं को नोटिस दिए जाने लगे। किसी भी तरह की सभा और गोष्ठियों पर पाबंदी लगा दी गई। आंदोलनरत किसानों पर गुंडा एक्ट जैसी धाराएं लगा दी गईं। यही कारण है कि कुछ स्वतंत्र और छोटे-मोटे वामपंथी किसान संगठनों के आंदोलन में जाने की कोशिश को पुलिसिया दमन से रोका जा रहा है। इस वजह से यूपी के किसान फिलहाल आंदोलन में शामिल नहीं हो पा रहे हैं। लेकिन समूचे प्रांत के मध्यवर्ग, बुद्धिजीवी और किसान-मजदूर सभी तबके दिल्ली की सरहदों पर चल रहे आंदोलन का प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से समर्थन कर रहे हैं। इसलिए यह कहना बेमानी है कि समूचे यूपी के किसानों का आंदोलन से कोई सरोकार नहीं है। आंदोलन के साथ उनकी प्रतिबद्धता सौ टका है।

 

लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय में शिक्षक हैं।

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