सत्येंद्र पीएस
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महाराष्ट्र पुलिस ने कई राज्यों में वामपंथी कार्यकर्ताओं के घरों में मंगलवार 28 अगस्त 2018 को छापा मारा और हैदराबाद में तेलुगु कवि वरवर राव, मुंबई में कार्यकर्ता वेरनन गोन्जाल्विस और अरुण फरेरा, फरीदाबाद में ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज और दिल्ली में सिविल लिबर्टीज के कार्यकर्ता गौतम नवलखा के आवासों में तकरीबन एक ही समय पर तलाशी ली गई। तलाशी के बाद राव, भारद्वाज, फरेरा, गोन्जाल्विस और नवलखा को आईपीसी की धारा 153 (ए) के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। यह धारा धर्म, नस्ल, जन्म स्थान, आवास, भाषा के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच वैमनस्य को बढ़ावा देने और सौहार्द बनाए रखने के में बाधा डालने वाली गतिविधियों से संबद्ध है। जिन अन्य लोगों के आवास में छापे मारे गए, उनमें सुसान अब्राहम, क्रांति टेकुला और गोवा में आनंद तेलतुंबड़े शामिल हैं। राव की दो बेटियों और एक पत्रकार सहित अन्य के आवासों में पुलिस टीम ने तलाशी ली। झारखंड में आदिवासी नेता फादर स्तान स्टेन स्वामी के परिसरों में भी तलाशी ली गई।
जिन लोगोंं को गिरफ्तार किया गया है, वे मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। इनमें से ज्यादातर लोग आदिवासियों, दलितों, अल्पसंख्यकों के बीच काम करते हैं। गिरफ्तार किए गए लोग गांवों, जंगलों में रहने वाले उन लोगों के उत्पीडऩ के खिलाफ सरकार से लड़ते हैं, जो अपनी लड़ाई लडऩे में सक्षम नहीं हैं। सरकार कुछेक दर्जन लोगों के ऊपर हमले बोलकर लाखों लोगों को दबा देना चाहती है, जो सामान्य जिंदगी जीने की जद्दोजहद कर रहे हैं।
यह सही है कि एक सामान्य या कथित रूप से पावरफुल अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्ग का व्यक्ति गिरफ्तार होता है तो रात को अदालतें नहीं खुलतीं। गिरफ्तार किए गए लोगों का अंतरराष्ट्रीय औरा है। इन लोगों को मौजूदा भाजपा सरकार ही नहीं गिरफ्तार कर रही है, इसके पहले कांग्रेस के शासनकाल में पीयूसीएल के पदाधिकारियों को गिरफ्तार किया गया और उन्हें जेल में डाला गया।
इन लोगों की गिरफ्तारी पर न्यायालय रात में खुल जाते हैं। न्यायालय रात में खुलें, शायद यह सरकार और न्यायालय भी दिखाना चाहते हैं। उस अंतरराष्ट्रीय जगत को दिखाना चाहते हैं कि हमारे यहां अदालतें हैं और लोगोंं की रक्षा के लिए रात को भी अदालतें खुलती हैं। न्याय होता है। भूख, बेकारी, बीमारी से बिलबिलाते भारत को विकसित या विकास की ओर अग्रसर दिखाने में लगी सरकार अपने मुंह पर यह कालिख लगने नहीं देना चाहती कि आम जन की आवाज उठाने वाले मार दिए जाते हैं। यह न्यायालय इसलिए खुल जाते हैं कि जिन लोगों पर छापे मारे गए हैं, वे हाई प्रोफाइल हैं। किसी ने किताब लिखकर, किसी ने प्रतिष्ठित संस्थानों में छात्र जीवन में टॉप करके, किसी ने अपनी पारिवारिक शैक्षणिक पृष्ठभूमि के कारण दुनिया में नाम कमाया है। सरकार चाहती है कि यह जिन लोगों को समर्थन कर रहे हैं, वे डर जाए। साथ ही यह भी चाहती है कि अंतरराष्ट्रीय जगत में सरकार की मुंह पर कालिख न लगे। इसलिए अदालतें रात में भी खुल जाती हैं। इसके पहले कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी सरकार ने विनायक सेन, साईंबाबा सहित कई सामाजिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कराया है। उस समय भी अदालतें खुली हैं।
ऐसा नहीं है कि पीयूसीएल के सभी पदाधिकारियों के लिए अदालतें रात में खुलती हैं। तमाम कार्यकर्ताओं को तो उनके कार्यक्षेत्र में निपटा दिया जाता है और कोई पूछता भी नहीं है।
इसके पहले 2010 में सीमा आजाद और विश्वविजय की गिरफ्तारी को याद कर लें। सीमा जबरन जमीन अधिग्रहण के खिलाफ, गैरकानूनी खुदाई और मायावती के गंगा एक्सप्रेसवे जैसी योजनाओं के खिलाफ अपनी मैगजिन में मुहिम चला रही थीं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़े लिखे युवा देश बदलने निकले थे कि वे बदलाव कर पाएंगे। आम लोगोंं की जिंदगी में कुछ राहत आ सकेगी। उस समय उत्तर प्रदेश में मायावती के नेतृत्व में बसपा सरकार थी। केंद्र में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार थी। पुलिस ने दोनों को माओवादी बताया और पकड़ लिया। एक सामान्य परिवार के लोगों को गिरफ्तार कर लिए जाने पर मुकदमा लडऩा भी दूभर हो जाता है। गिरफ्तारी के बाद इनके ऊपर राजद्रोह का मुकदमा चला। स्थानीय अदालत ने इन्हें उम्रकैद की सजा सुना दी। लंबे समय तक जेल में रहे। उनके ऊपर भारी मात्रा में नक्सली साहित्य रखने का आरोप लगाया गया। पुलिस की नजर में नक्सली साहित्य सामान्यतया माओ की लिखी कविताएं, मार्क्स, लेनिन की किताबें आदि होता है। अगर लाल कवर वाली कोई किताब हो, उसे भी नक्सली साहित्य माना जाता है। पुलिस ने दोनों पर भारत सरकार से युद्ध छेडऩे का इल्जाम लगाया था। पुलिस का कहना है कि दोनों मिलकर केंद्र तख्तापलट कर माओवादी सरकार बनाना चाहते हैं। इसलिए दोनों देशद्रोही हैं। सीमा आजाद के वकील रवि किरण के मुताबिक पुलिस की दलील थी कि जो झोले के अंदर से साहित्य मिला उसे पढऩे से पता चलता है कि ये लोग आतंकवादी है, गैरकानूनी गतिविधियों में लिप्त हैं, आतंकवादी हैं और देशद्रोही हैं।
2010 में ही हेम पांडेय को पुलिस ने मार दिया था। 32 साल की उम्र थी हेम पांडे की। आंध्र प्रदेश पुलिस ने दो जुलाई 2010 को भाकपा (माओवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य आजाद के साथ मुठभेड़ में उसे मार दिया था। आरोप लगा कि आजाद और हेम को नागपुर से उठाकर करीब 300 किलोमीटर दूर आदिलाबाद में मारा गया। हेम वामपंथी पत्रकार था और ऑपरेशन ग्रीन हंट पर स्टोरी करने के इरादे से दंतेवाड़ा जा रहा था। शांत व्यक्तित्व वाला हेम उत्तराखंड के जन आंदोलनों में लगातार सक्रिय रहा। कुमाऊं विश्वविद्यालय के पिथौरागढ़ कॉलेज में उसने दो बार छात्र संघ का चुनाव भी लड़ा। अर्थशास्त्र में एमए करने के बाद उसने अल्मोड़ा कैंपस में पीएचडी शुरू की। वो अपनी जीवन साथी बबिता के साथ स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में लिखता रहा। बाद में दिल्ली आकर भी उसने अखबारों और पत्रिकाओं के लिए लिखना जारी रखा। वह ऐसे विषयों पर लिख रहा था, जिन पर सामान्यतया नहीं लिखा जाता। उसके लेखन में आम आदमी की भूख थी, अपनी जमीन से बेदखल किए जा रहे लोगों का संघर्ष था।
स्वाभाविक है कि अदालतें सबके लिए नहीं खुलीं। तमाम लोग मार दिए गए। उस दौर में भी कुछ लोगों के लिए अदालतें खुली थीं और इस बार भी खुली हैं।
यह लोग सामान्यतया शासन सत्ता को असहज करने वाले लोग हैं। इस दौर में सरकार का मीडिया घरानों पर दबाव है। हर तरह से अभिव्यक्ति को कुचला जा रहा है। सबसे खतरनाक स्थिति यह है कि अगर कोई व्यक्ति सरकार से असहमत है तो उसके लिए खतरा पैदा हो गया है। जो व्यक्ति जितना ही जमीनी है, उसके लिए जीना उतना ही दुश्वार है। सरकार ने अपने समर्थन में जॉम्बी (यंत्रवत लोग) खड़े किए हैं, जो सड़क पर न्याय करने के लिए बैठे हैं। सड़क पर न्याय करने वाले गुंडों, कानून तोडऩे वालों को सरकार का समर्थन है। सरकार के मंत्री ऐसे असमाजिक और कानून तोडऩे वाले लोगों को सम्मानित कर रही है। इतना ही नहीं, अगर किसी महिला का पति मौजूदा सत्ता का समर्थक हो गया है तो उसकी पत्नी का जीना हराम हो गया है। बीवी दूध, सब्जी के पैसे मांगती है, काम धाम छोड़कर सरकार समर्थन में लीन पति कहता है कि राष्ट्र का विकास हो रहा है, तुझे सब्जी दूध सूझ रहा है? अगर किसी का रिश्तेदार सरकार की भक्ति में लीन है तो वह सरकार का विरोध करने वाले अपने रिश्तेदारों को आजिज किए हुए है। कोई बेरोजगार युवा है तो मौजूदा सरकार का विरोध करने वाले लोगों, अपने परिजनों तक को यह कहते हुए गाली दे रहा है कि राष्ट्र का विकास हो रहा है, 1000 साल के बाद पहली बार विकास हो रहा है, 2022 तक नौकरी मिल जाएगी।
उन लोगों के लिए खतरा ज्यादा है, जो गांव गिरांव और जमीन से जुड़े हैं। कवि एवं कहानीकार उदय प्रकाश का उदाहरण लें। जब उन्होंने कन्नड़ लेखक एमएम कलबुर्गी की हत्या से आहत होने के बाद साहित्य अकादमी सम्मान लौटाने का फैसला किया तो उसका तीखा विरोध हुआ। सोशल मीडिया में उनका लिखना मुहाल हो गया। व्यक्तिगत रूप से उन्हें सोशल मीडिया पर गालियां पड़ीं। उसके बाद जब तमाम लोगों ने सम्मान लौटाने शुरू किए तो उदय प्रकाश को पुरस्कार वापसी गैंग का सरगना घोषित कर दिया गया। अनूपपुर स्थित उनके पैतृक गांव में उन्हें इस आधार पर निशाना बनाया गया। यह इस हद तक किया गया कि न सिर्फ उदय प्रकाश, बल्कि उनका पूरा परिवार खौफ के साये में आ जाएं।
यही हाल जाने माने पत्रकार दिलीप मंडल का रहा है। सोशल मीडिया पर अगर वह मनुवाद के खिलाफ मुखर होते हैं तो उन्हें तरह तरह की गालियां दी जाती हैं। धमकियां आती हैं। मार देने की बात कही जाती है। उनके परिवार, उनकी कथित जाति को खोजकर उन्हें गालियां दी जाती हैं। यह डर इस तरह पैदा किया जाता है कि मंडल किसी तरह से लिखना बंद कर दें।
दिलीप मंडल और उदय प्रकाश जैसे लोग न सिर्फ ब्राह्मणवादियों के निशाने पर हैं, बल्कि अपनी पैतृक जाति से भी कट चुके हैं। उन्हें न तो जातीय समर्थन मिलता है न समाज के पावरफुल लोगों का। सरकार द्वारा समाज में छोड़े गए जॉम्बी उनके जीवन के लिए कभी भी खतरा बन सकते हैं। इसे हम स्वामी अग्निवेश के उदाहरण से समझ सकते हैं। सड़क पर खून पीने के लिए दौड़ रहे जॉम्बी किसी को, कहीं भी पीट सकते हैं। जरा सा भी चर्चित हो चुके व्यक्ति को यह डर सताना स्वाभाविक है। अब इसमें उन लोगों को थोड़ा सुरक्षित माना जा सकता है, जो सोसाइटी में रहते हैं। निजी कार में चलते हैं। क्योंकि सड़क पर घूम रहे जॉम्बियों की पहुंच से वे थोड़ा सा दूर हो जाते हैं।
कोरेगांव-भीमा, दलित इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। वहां करीब 200 साल पहले एक बड़ी लड़ाई हुई थी, जिसमें पेशवा शासकों को एक जनवरी 1818 को ब्रिटिश सेना ने हराया था। अंग्रेजों की सेना में काफी संख्या में दलित सैनिक भी शामिल थे। इस लड़ाई की वर्षगांठ मनाने के लिए हर साल पुणे में हजारों की संख्या में दलित समुदाय के लोग एकत्र होते हैं और कोरेगांव भीमा से एक युद्ध स्मारक तक मार्च करते हैं। पुलिस के मुताबिक इस लड़ाई की 200 वीं वर्षगांठ मनाए जाने से एक दिन पहले 31 दिसंबर को एल्गार परिषद कार्यक्रम में दिए गए भाषण से हिंसा भड़क गई। पेशवा समर्थकों और दलितों में संघर्ष हुआ। तमाम लोग घायल हुए। आगजनी हुई। गिरफ्तारियां हुईं। लेकिन दंगा भड़काने के मुख्य आरोपी संभाजी भिड़े को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपना गुरु मानते हैं। उनके ऊपर उंगली तक नहीं उठाई गई।
झारखंड, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश के तमाम इलाके ऐसे हैं जहां सरकार लोगों से जमीन छीन रही है। गैर कानूनी तरीके से लोगों को हटाया जा रहा है। मौजूदा सरकार के कार्यकाल में सीधे सीधे संविधान पर हमला हो रहा है। सरकार संविधान को ही खारिज कर रही है। सरकार के समर्थक लोग, अपर कास्ट हिंदू राष्ट्र का सपना देखने वाले संविधान की प्रतियां जला रहे हैं। वंचित तबकों को मिल रही थोड़ी बहुत सुविधाओं का खुलेआम विरोध कर रहे हैं। वंचित तबकों को न्याय से भी वंचित करने की कवायद की जा रही है। ऐसे में जो भी थोड़े बहुत नामी और ताकतवर लोग सरकार के लिए असहज स्थिति पैदा कर रहे हैं और वंचितों का समर्थन कर रहे हैं, उनके ऊपर छापेमारी कर, उनकी गिरफ्तारियां कर वंचितों को और दबाया जा रहा है। अपने हक की आवाज उठाने वालों को संदेश दिया जा रहा है कि आप जिसे ताकतवर समझते हैं, सरकार की नजर में उनकी कोई औकात नहीं है।
देश की 80 प्रतिशत आबादी रोजी रोजगार और अच्छे जीवन के लिए संघर्ष कर रही है। पूंजीवादी सरकार कुछ साहूकारों के खजाने भरने की कवायद में है। सरकारी अस्पताल, स्कूल, विश्वविद्यालय को खत्म किया जा रहा है। सरकारी रोजगार खत्म किया जा रहा है। बहुत कम वेतन पर काम करने के लिए वंचितों को मजबूर किया जा रहा है। ऐसे में जो लोग सरकार की इन नीतियों के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं, सरकार उन पर हमले बोल रही है। हम उन गिरफ्तार 5 लोगों का किसी तरह मदद करने की स्थिति में नहीं हैं। हम अपनी ही मदद नहीं कर सकते तो उनकी क्या करेंगे? लेकिन हमें उन लोगों के साथ खड़े रहने, उन लोगों के प्रति अच्छी भावना रखने की जरूरत है, जिससे भविष्य में भी हमारी दुर्गति के खिलाफ आवाज उठाने वाले कुछ लोग मिल सकें। पुलिस ने जिन लोगों को गिरफ्तार किया है, जिनके लिए रात में शीर्ष अदालतें खुल रही हैं, वे सामान्य रूप से रोजी रोटी के लिए काम कर आलीशान जीवन जी सकते थे। लेकिन उन्होंने सरकार को असहज करने वाले सवाल हमारे हक में उठाए हैं। हमें उन लोगों के साथ खड़े रहना चाहिए, क्योंकि वे हमारे हक के लिए लड़ रहे हैं।
सत्येंद्र पीएस वरिष्ठ पत्रकार हैं।