मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री और वयोवृद्ध राजनेता डॉ. महातिर मोहम्मद का मत है कि “विगत के नरसंहारों के बदले में मुसलमानों को गुस्सा करने और लाखों फ्रांसीसियों को मारने का हक़ है।” फ़्रांस में हुए आतंकी हमलों में फ्रांसीसियों की मौत के बाद डॉ. महातिर की प्रतिक्रिया से विश्व के प्रमुख नेता हैरान हैं। इससे नया विवाद पैदा हो गया है और आतंकवाद व इस्लामी कट्टरवाद को शह मिलेगी। इस्लामी स्टेट के चरम पंथियों के हौसले बुलंद होंगे। डॉ. महातिर को संजीदा नेता माना जाता है। दो दशकों से अधिक समय तक प्रधानमंत्री रह चुके हैं। इसलिए आक्रोश व आश्चर्य के साथ फ़्रांस के राष्ट्रपति मेक्रों ने भी कह डाला कि डॉ. महातिर के शब्दों से “नहीं लगता है कि वे सभ्य हैं …. बहुत आदिम लगते हैं।”
मलेशिया के इस राज नेता से इस पत्रकार की मुलाक़ात बहामा द्वीप में हुई थी। अवसर था राष्ट्रकुल देशों के सम्मलेन का। तब ये नए नए प्रधानमंत्री बने थे और इनके जोशीले व प्रगतिशील भाषण से सदस्य राष्ट्रों के नेता प्रभावित हुए थे। उस सम्मलेन में दो देशों के प्रधानमंत्री स्टार बन कर उभरे थे : राजीव गाँधी और डॉ. महातिर। लेकिन इनकी ताज़ा आक्रामक प्रतिक्रिया ने उन्हें एक ही झटके में वर्तमान से मध्ययुग में धकेल दिया है और उनकी राजनीतिक बुद्धिमता पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।
बेतुकी दलील को पल भर के लिए मान भी लिया जाय तो क्या इससे इतिहास में हुए संगीन अपराधों और नस्ली कत्लेआमों को दुरुस्त किया जा सकता है ? इतिहास में दूर तक क्यों जायें , बीती सदी के तीसरे -चौथे दशकों पर ही नज़र डालें ; क्या जर्मनी में हिटलर ने 60 लाख से अधिक यहूदियों का नरसहांर नहीं किया था ? क्या अब इजराइल के यहूदियों को श्वेत जर्मनों का वध करना चाहिए ? क्या पैगम्बर मोहम्मद के बाद इस्लामी आक्रमणकारियों ने गैर इस्लामी देशों में तबाही नहीं मचाई थी ? क्या शुरू से ही ईरान, अफगानिस्तान मुस्लिम देश थे ? भारत को ही लें। सहस्त्राब्दी के आरम्भ में मुस्लिम आक्रमणकारियों के हमलों में हज़ारों लोग मरे।इसी तरह अहमदशाह अब्दाली और नादिरशाह के हमलों में भी बड़े पैमाने पर लोग मरे ही। इसी तरह ओटोमन साम्राज्य अभियान में कम कत्लेआम नहीं हुआ था ? मध्य युग में श्वेत ईसाई देशों का साम्राज्यवादी अभियान भी अहिंसक कहां रहा ? क्या हम ‘जलियांवाला कत्लेआम’ भूल सकते हैं ? क्या 1857 के मुक्ति संग्राम की कुर्बानियों को भुलाया जा सकता है ? क्या भारत में अंग्रेजी शासकों ने कम हत्याएं की हैं ?
उत्तरी व दक्षिण अमेरिका को ले लें। श्वेत देशों की सेनाओं और व्यापारियों ने वहां के लाखों मूलनिवासियों यानि ‘ नेटिव्स’ का नरसहांर करके के वहां की अकूत प्राकृतिक सम्पदा पर कब्ज़ा किया था। ऑस्ट्रलिया और न्यूज़ीलैंड में भी इसी इतिहास को दोहराया गया था। अफ्रीका महाद्वीप में भी यही दौर चला। क्यों हम वियतनाम के ‘माई लाई हत्याकांड ‘ को भूल जाते हैं ? अमेरिका ने हो ची मिन्ह के देश वियतनाम में हत्याओं का तांडव किया था। इसी क्रम में अमेरिका द्वारा 1945 में जापान के दो शहरों – नागासाकी और हीरोशिमा में किये गए परमाणु बम के विस्फोट की महात्रासदी से विश्व की मानवता अभी तक त्रस्त है। क्या वह किसी नरसंहार से कम थी ?
वास्तव में ईसाईयत और मुस्लिम जगत के बीच पिछले 11 -12 सौ सालों से एक छद्म नस्ली -मज़हबी जंग ज़ारी है। इसका इतिहास बहुत पुराना है ; क्रूसेड और जेहाद के नए नए चेहरे सामने आते रहे हैं। अमेरिकी राजनीतिक रणनीतिकार सेमुएल पी. हंटिंगटन ने अपनी विवादास्पद चर्चित पुस्तक ‘सभ्यताओं का टकराव’ में इस अवधारणा को सामने रखा था कि भविष्य में धर्म-मज़हब और संस्कृति को लेकर टकराव बढ़ेंगे , जंग होगी। यह अवधारणा 1990 के आस-पास आई थी। कुछ साल बाद इस विषय उनकी एक पूर्ण पुस्तक ( सभ्यताओं का टकराव ) भी आई। इसे त्रासद संयोग कहें या सुनियोजित रणनीति कि इस अवधारणा के बाद दो -दो खाड़ी युद्ध ( 1991 व 2003 ) हुए , न्यू यॉर्क के दो टॉवरों ( 2001 ) पर मुस्लिम कट्टर पंथियों ने हमला किया , अफगानिस्तान पर अमेरिकी आक्रमण शुरू हुए (2003 ), पश्चिमी इस्लामी देशों में अशांति फैली , पहले अलक़ायदा, फिर तालिबान और इस्लामी स्टेट की शक्ल में इस्लामी कट्टरवाद का विस्फोट हुआ। यह सिलसिला आज भी जारी है। कब, कहां और कैसे रुकेगा , सब अज्ञात है।
लेकिन असल सवाल यह है कि क्या नए ज़ख्मों से मानवता के सीने पर बने असंख्य ज़ख्मों को मिटाया जा सकता है ? क्या महातिर मोहम्मद के रास्ते से इतिहास की कोख में दफ़्न बेशुमार अपराधों , त्रासदियों को जवाब दिया जाना चाहिए ? क्या इस रास्ते से मानव सभ्यता का बर्बर युग में लौटना नहीं होगा ? क्या आँख के बदले आँख , सर के बदले सर लेने से इस सदी की मानव सभ्यता चाँद और मंगल पर अपना डेरा बसाना चाहती है ? क्या इससे अराजकता पैदा नहीं होगी ? क्या फासीवाद- नाज़ीवाद की वापसी नहीं होगी ? क्या कट्टर हिन्दुतत्वपंथियों में आक्रामक प्रतिक्रिया नई होगी ? नफरत की सियासत की नई लहर उमड़ेगी।
जब आज पूरा विश्व कोविड -19 की महामारी की गिरफ्त में है तब क्या मानवता को ‘प्रतिशोध की महामारी’ में धकेला जाना चाहिए ? इस तरह की मानसिकता का व्यापक स्तर पर प्रतिवाद किया जाना चाहिए।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।