पांच चरण के चुनाव के बाद रुझान और ज़्यादातर विश्लेषण बता रहे हैं कि एनडीए और यूपीए दोनों ही अपनी संख्या के दम पर बहुमत का आंकड़ा पार करने में सफल नहीं होंगे. ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति और लोकसभा के स्पीकर दोनों की ही भूमिका सबसे अहम होगी.
त्रिशंकु लोकसभा में असली किंग मेकर क्षेत्रीय पार्टियां होंगी जो एनडीए और यूपीए के बाहर हैं. इनमें प्रमुख हैं उत्तर प्रदेश का एसपी-बीएसपी गठबंधन, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, चन्द्रबाबू नायडू की तेलुगू देसम, जगन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस, नवीन पटनायक की बीजेडी. ये ब्लॉक इतना बड़ा होगा कि दोनों में से किसी भी गठबंधन की 200 सीटें मिलने पर भी बहुमत का आंकड़ा पार लगा देगा.
पहली संभावना
एनडीए अगर 200 या उससे कुछ ऊपर रहती है और सबसे बड़े चुनाव पूर्व गठबंधन के रूप में उभरती है तब राष्ट्रपति नरेंद्र मोदी को सरकार बनाने और सदन में बहुमत सिद्ध करने का न्योता दे सकते हैं (एनडीए के अंदर मोदी के संसदीय दल का नेता चुने जाने में दिक्कत नहीं आयेगी). हालांकि जिस वक़्त राष्ट्रपति ये फैसला कर रहे होंगे उस वक़्त उनके पास दूसरे विकल्प और क्षेत्रीय पार्टियों के समर्थन पत्र पहुंच चुके होंगे जिसकी संख्या एनडीए से ज्यादा होगी. राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से अपेक्षा है कि वे स्थिर सरकार की अवधारणा, बोम्मई केस की गाइडलाइन और स्वास्थ्य परंपराओं का निर्वाह करेंगे. लेकिन जिस तरह मोदी के शासनकाल में उच्च संवैधानिक संस्थाओं में गिरावट आई है उससे इस आशंका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है कि राष्ट्रपति नियमों और परंपराओं को दरकिनार कर मोदी को सरकार बनाने का न्योता देने की गुंजाइश तलाशेंगे.
दूसरी संभावना
यूपीए यानि कांग्रेस, एनसीपी, आरजेडी और उसके घटक डीएमके, नेशनल कॉफ्रेंस अगर सबसे बड़े चुनाव पूर्व गठबंधन के रूप में उभरते हैं तब राष्ट्रपति इस गठबंधन को सरकार बनाने का न्योता देने के लिए बाध्य होंगे. संख्या अगर इतनी आती है तो यूपीए के बाहर के दल जैसे एसपी-बीएसपी गठबंधन, तृणमूल कांग्रेस, तेलुगू देसम पार्टी जैसे दल जिन्होने मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ा इसी खेमे से जुड़ेंगे और राष्ट्रपति भवन जाने से पहले नेता का भी चुनाव करेंगे. नेता कांग्रेस का होगा या किसी क्षेत्रीय पार्टी से ये कांग्रेस की संख्या पर निर्भर करेगा.
तीसरी संभावना
पहली संभावना के तहत अगर राष्ट्रपति मोदी को सरकार बनाने और बहुमत सिद्ध करने का मौका देते हैं तब दोनों गठबंधन के बाहर के क्षेत्रीय दलों की भूमिका अहम होगी. अमूमन सभी बड़े क्षेत्रीय दल मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे और विश्वास मत में खिलाफ वोट करके सरकार को गिरायेंगे. इसके बाद आगे की कार्यवाही दूसरी संभावना के मुताबिक चलेगी. इसे भी तय माना जाये कि मोदी-शाह पैसे के बल पर इन क्षेत्रीय दलों में तोड़फोड़ की कोशिश करेंगे.
स्पीकर का चुनाव अगली सरकार भी तय करेगा
तीनों ही संभावनाओं में राष्ट्रपति के न्योते के बाद गेंद लोकसभा के पाले में होगी और इसमे सबसे अहम किरदार स्पीकर का होगा. सत्रहवीं लोकसभा बैठने के बाद सबसे पहला काम होगा नए सदस्यों को शपथ और स्पीकर का चुनाव. ये प्रोटेम स्पीकर की देखरेख में होगा है जो सबसे वरिष्ठ लोकसभा सदस्य बनता है.
यहीं पर यूपीए और क्षेत्रीय दलों को होशियारी से काम लेना है. यूपीए की रणनीति होनी चाहिए कि किसी भी सूरत में बीजेपी या एनडीए का स्पीकर न बनने पाये. बेहतर होगा कि कि स्पीकर की पोस्ट कांग्रेस अपने घटक दल या क्षेत्रीय दल को प्रस्तावित कर दे. विपक्ष अगर अपना स्पीकर चुनवाने में कामयाब हो जाता है तो अगली सरकार की बाजी उसके हाथ में होगी.
स्पीकर विपक्ष से आयेगा तो क्षेत्रीय पार्टियों में तोड़फोड़ की संभावना भी कम होगी क्योंकि दल बदल विरोधी कानून के मुताबिक अलग गुट को मान्यता स्पीकर ही देता है.