पहला पन्ना: बासी ‘मन की बात’ पहले पन्ने पर क्यों है?

आज के अखबारों में पहले पन्ने पर दो बासी या फालतू कीखबरेंहैं। पहली खबर है, मेहुल चोकसी को वापस लाने के लिए जेट भेजा गया और दूसरी खबर ‘मन की बात‘ है पहले मेहुल चोकसी की खबर। दुनिया जानती है कि बैंक के करोड़ों रुपए लेकर भागा मेहुल चोकसी प्रधानमंत्री का करीबी है और इस देश में प्रधानमंत्री के करीबियों को क्या और कैसी सुविधाएं उपलब्ध हैं। इसके विस्तार में गए बगैर यह समझना मुश्किल नहीं है कि एक भगोड़े को एंटीगुआ की नागरिकता कैसे मिली होगी और देश में उसका क्या कुछ बचा रह गया होगा और उसे यहां लाकर अब क्या मिलना है। खबरों और आरोपों की बात करूं तो चोकसी वहां भी राजनीति कर रहे थे और वहां के प्रधानमंत्री ने आरोप लगाया है कि पैसों के लिए विपक्ष उनका साथ दे रहा है। इसलिए प्रत्यर्पण हो जाए तो उसकी बदकिस्मती होगी, भारत सरकार के योगदान का आप समझिए। वैसे, चोकसी के वकील ने कहा है कि वह भारतीय नागरिक नहीं है इसलिए उसे वापस भेजा नहीं जा सकता है। वैसे भी यह नीरव मोदी या भाजपा के पूर्व नेता विजय माल्या के मामलों से अलग नहीं होगा। ऐसे में जेट भेजना या वापस लाने की कोशिश औपचारिक कार्रवाइयां कम दिखावा ज्यादा हैं और खबर प्रमुखता से छापने का मकसद प्रचार के अलावा कुछ नहीं है। ताकि लोग यह समझें कि सरकार कुछ कर नहीं रही है। असल में सरकार कुछ कर नहीं सकती है और अगर कुछ कर सकती है तो वह कर नहीं रही है फिर भी यह सब प्रचार है। इसीलिए मैंने कहा कि फालतू खबर है। 

‘मन की बात’ रेडियो का प्रोग्राम है और इतवार को दिन में रेडियो पर लोगों ने सुन लिया। अब अखबारों में इस बासी खबर का क्या मतलब? मेरा मानना है कि जिसेमन की बात’ सुननी होगी वह सुन चुका होगा और अखबार में छपने का इंतजार शायद ही कोई करता हो। पहले पन्ने पर छपने से भले कुछ लोग पढ़ लें पर वह खबर नहीं है। हिन्दी अखबारों के लिए तो और भी नहीं, अंग्रेजी में अनुवाद छपता है इसलिए आप मान सकते हैं कि जो हिन्दी सुनकर नहीं समझ सकता है वह अंग्रेजी में पढ़कर समझ लेता होगा। और कुछ लोग इंतजार भी करते होंगे। पर वह पहले पन्ने की खबर नहीं होगी। इसके बावजूद यह बीमारी हिन्दी में ज्यादा, अंग्रेजी में कम थी। आज शायद पहली बार अंग्रेजी के मेरे चार अखबारों में पहले पन्ने पर है। हिन्दू अपवाद है। इसलिए इसकी चर्चा छोड़ नहीं सकता। इन दिनों मैं हिन्दी अखबार पढ़ नहीं रहा इसलिए उनका हाल मालूम नहीं है। 

‘मन की बात’ आज टेलीग्राफ में भी प्रमुखता से है। शुरुआत टेलीग्राफ से ही करता हूं। इससे आपको अनुमान लगेगा कि आजमन की बात’ अंग्रेजी अखबारों में भी पहले पन्ने पर क्यों है। वैसे राहुल गांधी ने कहा है किकोरोना से लड़ने के लिए नेक इरादा, नीति और दृढ़ निश्चय चाहिए कि महीने में एक बार बेबात की बात।” बेशक, यह रेडियो टीवी का मासिक कार्यक्रम हो सकता है पर कोरोना से लड़ने की रणनीति का भाग नहीं हो सकता है। पर सरकार ऐसी ही कोशिश कर रही लगती है। आज टेलीग्राफ की पहली खबर है, “ इररेसिसटेबल” (यानी जिसे रोका नहीं जा सके) इसके नीचे लिखा है, 30 मई 2021 के मन की बात से। इसके साथ ऑक्सीजन के दो बड़े वाले सिलेंडर से अंग्रेजी कावी’ बनाया गया है। इसके साथ दो लोगों की बातचीत का उद्धरण है। पहला दिनेश उपाध्याय का है जो ऑक्सीजन टैंकर चलाते हैं। यह बातचीत हिन्दी में हुई होगी और फिर मैं अंग्रेजी से हिन्दी कर रहा हूं इसलिए थोड़ा अलग हो सकता है। मेरा मकसद बातचीत की रिपोर्ट करना नहीं है। अखबार में जो खबर छपी है उसकी चर्चा कर रहा हूं। इसके अनुसार उसने कहा, जब हम टैंकर लेकर अस्पताल पहुंचते हैं और देखते हैं कि वहां खड़े लोग जो अस्पताल में एडमिट हैं, उनके परिवार के लोग वी बनाकर हमारा स्वागत करते हैं …. इसके बाद बताया गया है कि प्रधानमंत्री मोदी ने उससे कहा, अच्छा, वे वी फॉर विक्ट्री का संकेत देते हैं। 

आप इसका जो मतलब निकालिए, अखबार ने आज मन की बात को लीड बनाया है और जो लिखा है उसका शीर्षक है, “आरोप से कैसे बचें : सामूहिक जीत के निर्णय पर फोकस कीजिए।खबर की शुरुआत अंग्रेजी के जिस मुहावरे से होती है उसके लिए हिन्दी में मुहावरा है, दूध का जला छांछ भी फूंकफूंक कर पीता है। तकरीबन पूरी तरह नहीं। इसका बाद अखबार में जेपी यादव ने लिखा है, “रविवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अंग्रेजी के वी अक्षर से शुरू होने वाले शब्द पर अपनी खुशी छिपा नहीं पाए। पर इस बार सिर्फ अपने ऊपर बल्कि सामूहिक तौर पर इसपर फोकस करन के निर्णय किया।” अखबार ने लिखा है, “चार महीने पहले मोदी ने वर्ल्ड इकनोमिक फोरम में कहा था, कोरोना को प्रभावी ढंग से नियंत्रित करके देश ने मानवता को बड़ी त्रासदी से बचा लिया है। रविवार को रेडियो संबोधन, “मन की बात में मोदी ने रेखांकित किया, भारत के विजय संकल्प, हमारी सामूहिक शक्ति और सेवा की हमारी भावना ने हमेशा देश को हरेक तूफान से निकाला है।” (हम लाए हैं तूफान से किस्ती निकाल के इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल केवाले अंदाज में) पर उन्होंने स्थिति से ठीक से निपटने में अपनी सरकार की नाकामी पर कुछ नहीं कहा। इस लंबी खबर में मन की बात के बदले रंग का अच्छा विश्लेषण है। आप इससे सहमत भले हों पर खास बातों को कायदे से रेखांकित किया गया है।   

रंग बदलने का असर भी हुआ है। अब आप दूसरे अखबारों के शीर्षक देखिए। सरकार के सात साल में हम सही रास्ते पर हैं। इंडियन एक्सप्रेस ने लिखा है, “सात साल के कार्यकाल को याद करते हुए प्रधानमंत्री ने कोविड संघर्ष को रेखांकित किया : ऑक्सीजन स्टॉक में 10 गुना वृद्धि, टेस्टिंग बढ़ी।” मैं नहीं जानता इस वृद्धि का मरने वालों को कोई लाभ मिलेगा कि नहीं या जो मर गए उनके परिवार वाले इसका क्या लाभ उठा पाएंगे। पर मुझे हमेशा याद आता है कि अमेरिका में जब ट्विन टावर पर हमला हुआ था तो मेरे मित्र ने वहां से जो खबर भेजी थी उसका शीर्षक मैंने ही लगाया था, “लोग डरे हुए हैं कि बच्चे डर जाएं।पर हमारे यहां बच्चों के डरने की परवाह ही नहीं है। डर हुए बच्चे सवाल नहीं पूछते हैं, अधिकार नहीं मांगते हैं। इसलिए अच्छे होते हैं। कुछ लोग ऐसे ही बच्चों को प्यारा कहते हैं। मांबाप के संरक्षण में शैतानी करने वाले बच्चे किसे पसंद आते हैं? पर वही तन कर खड़े हो सकते हैंयह अलग मुद्दा है। टाइम्स ऑफ इंडिया में यह शीर्षक है, “भारत ने पहली लहर का मुकाबला हिम्मत से किया, अब फिर जीतेगा : मोदी।” अब आप समझ सकते हैं कि एक तरफा मन की बात से कई मकसद पूरे होते हैं। खास कर तब जब प्रेस कांफ्रेंस नहीं करनी हो या उसे ही इंटरव्यू देना हो जो पूछे कि आप बटुआ रखते हैं कि नहीं या आम चूसकर खाते हैं या काटकर। पता नहीं किन बुद्धिमानों ने ये स्क्रिप्ट लिखी थी।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

 

     

 

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