बुद्धिजीवियों ने धर्म पर काफी कुछ लिखा-बोला पर है पर मौजूदा स्थिति में वे आम जन से संवाद स्थापित नहीं कर पा रहे हैं। संवेदनशील मुद्दों पर घर के बाहर “खुले में” बात करने की क्षमता वालों को अब अंगुलियों पर गिना जा सकता हैं। क्या आपको अब भी अपने अधिकारों का हनन होता नहीं दिख रहा? बाहर की हवा अब खुली नहीं है, उसमें अजीब सा भारीपन है जो केवल प्रदूषण से नहीं है। क्या बुद्धिजीवियों का दायित्व किसी बात को कह देने या लिख देने भर से खतम हो जाता है?
धर्म से जुडे “तथ्यहीन” प्रश्नों को गम्भीरता से लिया जाना चाहिये क्योंकि वे आगे चल कर किसी उन्माद को हवा दे सकते हैं। धर्म की समझ कई चीज़ों पर निर्भर करती है, जिसके पीछे आर्थिक-सामाजिक-भौगोलिक-ऐतिहासिक समेत कई अन्य कारक काम करते हैं। आपके लिये कोई सामान्य सी बात, किसी अन्य की पूरी समझ को पलट देने का माद्दा रखती है। यहां पर इतिहास की शिक्षा का ज़िक्र बहुत महत्वपूर्ण है।
भारतीय इतिहासकारों में से ज्यादातर के लिये 1947 के बात जैसे कुछ खास घटित ही नहीं हुआ। कुछ लोगों ने थोड़ा आगे बढ़ कर महात्मा गांधी की हत्या तक का आख्यान लिखा है पर उसके आगे सब नदारद। रामचंद्र गुहा की रचना “इंडिया आफ्टर गांधी” एकमात्र ऐसी पुस्तक है जो आज़ादी के बाद से लेकर अभी तक का विस्तृत खाका पेश करती है। इसके प्राक्कथन में श्री गुहा नें पुस्तक लिखते वक्त हुए अनुभवों के बारे में बताया है। वे लिखते हैं कि कैसे उन्हें हर तथ्य के लिये विस्तृत अध्ययन करना पडा क्योंकि उनसे पहले उक्त विषयों पर कोई काम ही नहीं हुआ था। आधुनिक भारत के संदर्भ में उन्होंने कई बातें रखी हैं जो बेबी-बूमर्ज़ के लिये काफी रोचक हैं पर मिलेनियल्स (जिनका जन्म सन् 2000 के बाद हुआ) के लिये तो यह जैसे एक नई दुनिया की प्रस्तुति है।
ऐसा इसलिये क्योंकि कांग्रेस ब्राह्मण-बहुल पार्टी थी और पार्टी के निर्णय पर ब्राह्मणों का भारी असर दिखता था। आज़ादी के बाद की घटनाओं की जिम्मेदारी किसे लेनी चाहिये इस पर एक मत नहीं है पर उस दौर में हुए नरसंहार से चर्चिल का अनुमान सही ही साबित हुआ। उस दौर मे भी मुद्दा केवल हिंदू-मुस्लिम का नहीं था, बल्कि हिंदू-मुस्लिम-सिख का था। सिखों के लिये अलग राष्ट्र खालिस्तान की मांग उस समय से ही उठ रही थी।
सत्तारूढ़ भाजपा पर उंगली उठाने वाली कांग्रेस ने एक दौर में खुद राजनीतिक फायदे के लिये “धर्मगुरू” को जन्म नहीं दिया था? यहां खालिस्तान के लिये सशस्त्र आंदोलन करने वाले जरनैल सिंह भिंडरांवाले का ज़िक्र है।
पहली बार सिखों के लिये एक अलग सूबे (प्रोविंस) की मांग अकाली दल ने रखी थी। जब राज्य पुनर्गठन आयोग ने अपने सुझाव दिये तो उनमें अकाली दल की एक भी मांग नहीं मानी गई पर 1966 में हुए उग्र विरोध के बाद सरकार पीछे हटी और पंजाब तीन हिस्सों– पंजाब, हरियाणा और चंडीगढ़ में बांट दिया गया। कुछ पहाड़ी इलाके हिमाचल प्रदेश में शामिल कर दिये गए।
यह विभाजन भाषा के आधार पर हुआ न कि धर्म के आधार पर। तब भी संत फतह सिंह ने इंदिरा गांधी का यह कहते हुए समर्थन किया कि अकालियों ने भाषा के आधार पर राज्य की मांग रखी थी न कि धर्म के आधार पर। इसके बावजूद “पंजाबी सूबा आंदोलन” से अकाली दल को काफी जन-समर्थन प्राप्त हुआ। परिणामस्वरूप एक छोटे विघटन के बाद अकाली दल ने 1967 और 1969 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को हराया। 1972 में कांग्रेस एक बार फिर सशक्त होकर उभरी जिसकी वजह से अकाली दल को अपनी रणनीति में बदलाव करने की ज़रूरत महसूस हुई।
खुद को सिखों का एकमात्र प्रतिनिधि जतलाने के लिये शिरोमणि अकाली दल ने “आनंद्पुर साहिब रेजॉल्यूशन” पारित किया। इस प्रस्ताव में सिखों के लिये अलग राज्य गठित करने की मांग की गई थी, साथ ही यह भी कि राज्य का अपना संविधान हो और केंद्र का हस्तक्षेप केवल रक्षा, विदेश नीति समेत चुनिंदा मुद्दों पर रहे। इसी दौर में जरनैल सिंह भिंडरांवाला सिखों को खालसा (ज़्यादा रूढ़िवादी स्वरूप) की और लौटने को कह रहा था। उसके निशाने पर हिंदू थे, साथ ही आधुनिकता की तरफ आकर्षित सिख भी। वे सिखों की हिंदुओं से अलग पहचान स्थापित करने पर कायम थे।
इस बात के कम प्रमाण हैं पर उस दौर पर लिखे साहित्य में कई जगह इस बात के संकेत हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी ने अकालियों की बढ़ती शक्ति से मुकाबला करने के लिये जानबूझ कर भिंडरांवाले को उनके विरुद्ध खड़ा किया। अकाल तख्त के इर्द-गिर्द भिंडरांवाले की किलेबंदी को इसका प्रमाण माना जा सकता है चूंकि सरकार की नज़र में आए बगैर ऐसा कर पाना असम्भव था। भिंडरांवाले के उभार के बाद दंगे भड़के, धार्मिक हत्याएं हुई, देश भर में सिखों के बीच एक असुरक्षा का माहौल बना।
घटनाओं के श्रृंखला में अंतिम कडी थी भिंडरांवाले द्वारा रेलवे ठप कर देश को होने वाली गेहूं की सप्लाई को रोकना। इसके बाद जो कुछ भी हुआ, वह आज़ाद भारत के सबसे दुर्भाग्यपूर्ण अध्यायों में से एक है। सेना ने स्वर्ण मंदिर पर कब्ज़ा कर भिंडरावाले का खात्मा किया। अलग-अलग आख्यानों में 3000 से लेकर 5000 लोगों की हत्या का जि़क्र मिलता है हालांकि सरकारी आंकड़े इससे भिन्न हैं।
खालिस्तान की मांग से लेकर तमाम किस्म के अलगाववादी, राष्ट्रीयतावादी, राज्यवादी, क्षेत्रवादी, जातिवादी और अन्य किस्म के अस्मितावादी उभारों का कुल जमा यह है कि पाश्चात्य राजनीतिक विशेषज्ञों के लिये भारत कौतूहल का एक विषय बना रहा है। लगभग सभी विशेषज्ञ यहां की जनांकिकीय स्थिति और विविधता के चलते भारत को एक राष्ट्र के रूप में नहीं देख पाए। अमूमन सभी विशेषज्ञों की राय में भारत राजनीतिक तौर पर “अप्राकृतिक” करार दिया जा चुका है।
गौर करने लायक बात यह है कि एक्का-दुक्का नेताओं को छोड दें, तो तकरीबन सभी ने हमारी विविधता को एक हथियार के रूप में अपने राजनीतिक हित में इस्तेमाल किया है। यह बात और है कि एक औपचारिक संघीय ढांचे के भीतर हमने लगातार इन कयासों को विफल करार दिया और आगे बढ़ते रहे। इसका इकलौता श्रेय इस देश की जनता को जाता है जिसने आज़ादी के बाद के सात दशक में मोटे तौर पर खुद को कट्टर विचारों से दूर ही रखा है।
आज हमारे देश की 65 फीसद से अधिक आबादी युवा है। ये मेरे जैसे युवा हैं जिन्हें इतिहास के बारे में कोई पुष्ट जानकारी नहीं है। नब्बे के दशक में जन्मे लोग फिर भी कुछ बेहतर स्थिति में हैं पर 2000 के बाद जन्मे “मिलेनियल्स” को भटकी हुई पीढ़ी के रूप में देखा जाता है। गम्भीर बात यह है कि भारत में मिलेनियल्स अब वोटर बन चुके हैं। ऐसे वोटर, जिनके लिए इतिहास सन् 2000 के बाद शुरू होता है। इस पीढ़ी का बचपन 9/11, गोधरा और 26/11 जैसी घटनाओं के साये में बीता है। इस वजह से सूखे, बाढ़, दंगे या ऐसी अन्य कोई खबर जो हृदय पर आघात करने वाली होती है, उन पर कम असर करती है।
युवावस्था आते-आते इस पीढ़ी का साक्षात्कार आज धार्मिक उन्माद और राष्ट्रवाद से कराया जा रहा है। पिछली पीढ़ी के पास इस राष्ट्रवादी उन्माद का कोई जवाब नहीं है, तो वे ज़्यादातर युवाओं को ही बुरा-भला कह कर इसका जिम्मेदार ठहरा दे रहे हैं। उन्हें यह सोचना चाहिये कि समस्या का कारण उनकी पीढ़ी और उनके पहले की वे पीढि़यां हैं जो मिलेनियल्स के लिए एक ऐसे भारत का निर्माण नहीं कर पाईं जो अपने भविष्य को शिक्षा दे सके, विचारों की आज़ादी दे सके। इतिहास के नाम पर पाठ्यक्रम में जो कचरा भरा गया है वह दुर्भाग्यपूर्ण कम, हास्यास्पद ज़्यादा है। हमारी पीढ़ी को विरासत में एक संकटग्रस्त देश मिला है जहां वे कोई ठोस पहचान नहीं रखते।
एकाधिक पहचानों के इस जाल में फंसे कृषकों के वंशज महीनों की मेहनत से उगे अन्न को बिना किसी अफ़सोस के क्षणों में कूडेदान में डाल आते हैं। उनके लिए मरता हुआ किसान कोई मसला नहीं। किसी भी घटना के कारक की पहचान उसके लिये सम्भव नहीं है। इसके लिए हम किसे जिम्मेदार मानें? पहचान का न होना बहुत खतरनाक हो सकता है। बिना पहचान वाले प्राणी को कोई भी आकार दिया जा सकता है। आज भारत में यही हो रहा है।
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