खालिस्तान आंदोलन के लिये भिंडरावाले का समर्थन किया जाना पार्टी विशेष के राजनीतिक स्वार्थ साधने का तरीका था, लेकिन उसके कारण हुई हिंसा ने यह साबित किया कि साम्प्रदायिक उन्माद एक ऐसे जिन्न की तरह है जिसे चिराग से बाहर काबू नहीं किया जा सकता। फिर भी तृष्णा में लिप्त नेता इसका निरंकुश होकर इस्तेमाल करते रहे हैं। इसी का परिणाम है हमारा खंडित समाज जो जाति-धर्म का भेद होने और अब तो केवल विचारों की भिन्नता होने पर किसी की भी हत्या करने पर आमादा है।
हमें यह भी सोचना चाहिए कि क्या हम-आप जैसे शिक्षित लोग हिंसक भीड़ का हिस्सा नहीं हो सकते? बेशक हो सकते हैं, पर हैं नहीं क्योंकि आप वर्ग-चेतन हैं! अगर अवाम की सोच के केन्द्र में केवल एक साधारण बात हो कि उनको किस बात से लाभ है और किस से नहीं, तो राजनेताओं की हज़ार कोशिशों से भी दंगे नहीं भडकेंगे। यही कारण है कि नेता आपको अपने आर्थिक वर्ग के आधार पर पहचान नहीं बनाने देते। धर्म-जाति के आधार पर बंटी अवाम को बरगलाना कहीं आसान है।
हमारे युवा ऐसी कोई संस्था भी नहीं बना पाए हैं जो उनको एकीकृत करने का काम करें या कम से कम उनके मुद्दों को ही उठाए। ज़्यादातर युवाओं के संगठन पारंपरिक पार्टियों के अंग-उपांग हैं जो उन्हीं के उद्देश्य साधने में लगी हैं। बेरोज़गार युवा उनका पहला निशाना होते हैं। रोज़ नौ से पांच काम में लगे हुए इंसान के पास वर्ग-चेतना होती है। वे अपने और समाज के विकास में ही समय लगाते हैं न कि उन्माद से प्रेरित विषयों पर। हम नुक्कड या चाय की दुकानों पर कर्मचारियों को आर्थिक विषयों पर बात करते सुन सकते हैं। उनमें अपने वर्ग की चेतना साफ देखी जा सकती है। ऐसा हर बजट के बाद दिखता है जब लोग अपने टैक्स स्लैब में हुए बदलावों पर चर्चा करते हैं। अगर इतिहास में झांका जाए तो यह बात भी सामने आ जाती है कि धार्मिक उन्माद के दौर के साथ ही गहन आर्थिक संकट भी आता है। ऐसा इसलिए कि एक उग्र हिंसक अवाम सरकार से सही सवाल नहीं पूछती जिससे सरकार मनमौजी हो कर कार्य करती है।
अस्सी के दशक के अंत में देश पर भारी आर्थिक संकट आ गिरा। उस दौर में सरकार कई बार बदली पर किसी के पास इस समस्या का समाधान नहीं था। इस संकट के लक्षण राजीव गांधी की सरकार के अंतिम दिनों में उभर आए थे जब फिस्कल डेफिसिट (वित्तीय घाटा) काफी बढ़ गया था। आर्थिक सुधारों के पहले के निर्णायक दिनों की यह खबर बहुत प्रचलित है कि देश के विदेशी मुद्रा का भंडार केवल 1.1 अरब डालर रह गया था। यह सिर्फ सात दिनों के तेल आयात में खतम हो जाता। यह विकट स्थिति थी क्योंकि भारत तेल के लिए पूरी तरह से आयात पर ही निर्भर था जिसके बंद होने से परिवहन से लेकर घरों में सिलिंडर पहुंचना बंद हो जाता।
राजीव गांधी की असामयिक मृत्यु के बाद बनी वी.पी. सिंह की सरकार ने भी इस पर कोई ठोस कदम नहीं उठाए। इस स्थिति में आने के लिये वर्षों का भ्रष्ट कोटा-परमिट राज ज़िम्मेदार था। राजीव गांधी सरकार पर लगातार भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे थे। उस दौर में घडियों से लेकर टीवी तक पीएसयू ही बनाती थीं, प्राइवेट कंपनियों की संख्या बहुत कम थी और रेगुलेशन बहुत ज़्यादा। भारत सरकार उनके उत्पादन की प्रक्रिया से ले कर मूल्य निर्धारण पर भी नज़र रखती थी और किसी भी औद्योगिक कार्य के लिए सरकार से परमिट लेना अनिवार्य था। यह नेहरू के दौर वाला समाजवादी मॉडल आज़ाद भारत के शुरुआती दिनों में काफी सफल रहा पर साल दर साल इस पर भ्रष्टाचार की परतें जमती रहीं और अंततः यह सुधार करने योग्य भी नहीं रहा।
नवम्बर 1990 में एस. चन्द्रशेखर सरकार के समय संकट और गहराया। इराक ने कुवैत पर कब्ज़ा कर लिया जिसकी वजह से अमरीका और इराक में युद्ध छिड़ गया। तेल के दाम आसमान छूने लगे। जहां सामान्य स्थिति में भारत सरकार आयात पर 500 करोड़ प्रतिमाह खर्चती थी वह बढ़ कर 1200 करोड़ प्रतिमाह हो गया। उस समय त्वरित समाधान के लिये रिजर्व बैंक के गोल्ड रिजर्व में से 20000 किलो सोना स्विट्जरलैंड के यूबीएस और 47000 किलो जापान के बीओजे में गिरवी भी रखा गया, जिससे कुल 11000 करोड़ रुपये मिले। गौरतलब हो कि यह फैसला कैबिनेट मंज़ूरी के बगैर लिया गया था। उस वक्त आरबीआइ के गवर्नर एस. वेंकटरमण थे, वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा थे और मुख्य आर्थिक सलाहकार डॉ. मनमोहन सिंह थे।
खोजी पत्रकार शंकर अय्यर ने इस खबर को तस्वीरों के साथ इंडियन एक्स्प्रेस में छापा था जिससे देश में तहलका मच गया था। लेकिन देश को सोना गिरवी रखने से भी कोई खास लाभ नहीं मिला। तब आइएमएफ और वर्ल्ड बैंक से लोन लेने के लिये प्रस्ताव भेजा गया। पर इसमें भी कम पेंच नहीं थे। गल्फ वार के दौरान अमरीका ईरान पर हवाई हमले करना चाहता था जिसके लिए उसके जहाज़ों को कज़ाकिस्तान में रिफुएलिंग करने जाना पडता। इससे रास्ता काफी लम्बा हो जाता। लोन देने के लिये अमरीका ने भारत के हवाई अड्डों को उसके जहाज़ों में रिफुएलिंग के लिए इस्तेमाल करने की मांग रखी। लोन के लिए अमेरिका की मंज़ूरी आवश्यक थी क्योंकि उसके पास आइएमएफ और वर्ल्ड बैंक के वोट का 60 फीसद हिस्सा था। भारत के पास कोई चारा न होने के कारण अमरीका को रिफुएलिंग की अनुमति दे दी गई। 17 जनवरी 1991 को अमरीका ने ईराक पर हवाई हमला किया और अगले ही दिन भारत का लोन पारित हो गया। इसके कुछ दिनों बाद से ही चंद्रशेखर की सरकार भी गिर गई। यह लोन भी इकॉनमी में कोई सुधार करने में नाकाम रहा।
1991 में आई पीवी नरसिंह राव सरकार के पास इस संकट के समाधान ढूंढने के अलावा कोई चारा न था। देश सभी उपलब्ध स्रोतों से पैसे की उगाही कर चुका था। शपथग्रहण से पहले पीसी अलेक्ज़ेंडर ने पूर्व आरबीआइ गवर्नर आइजी पटेल को वित्त मंत्री बनाने का सुझाव दिया पर आइजी पटेल नहीं माने जिसके बाद डॉ. मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाने का निर्णय लिया गया। मनमोहन सिंह उस वक्त यूजीसी के चेयरमैन थे। मनमोहन सिंह ने अपने पहले बजट में ही साहस दिखाते हुए भारत की इकॉनमी को दुनिया के लिये खोलने की पेशकश की। डॉ. साहब मंजे हुए इकानमिस्ट होने के साथ-साथ कांग्रेस सरकार के विश्वासी भी थे। सर्वसम्मति से यह निर्णय लिया गया कि भारत की इकॉनमी विदेशी निवेश के लिए खोली जाए। ग्लोबलाइज़ेशन के दौर में यह बेहद ज़रूरी हो गया था। इसके बाद जो हुआ उससे सभी वाकिफ है।
उदारीकरण होने से देश में निजी विदेशी पूंजी आने लगी। कंपनियां पूंजी के साथ उत्पाद और रोज़गार की लहर ले कर आईं और देश की आर्थिक स्थिति सामान्य होने लगी। इस पूरी प्रक्रिया में कांग्रेस ने विपक्ष को भी साथ रखा। आर्थिक सुधारों के लिए बने गैट आयोग में विपक्ष की ओर से डॉ. सुब्रमण्यन स्वामी शामिल किए गये और उन्हें कैबिनेट सदस्य का ओहदा भी मिला।
आर्थिक सुधारों के परिणामों पर राजनीतिक मुद्दों की तरह अलग-अलग मत हो सकते हैं लेकिन समाज के लगभग हर वर्ग को यह मोटे तौर पर फायदेमंद ही लगा। पर क्या यह वास्तव में फायदेमंद था? ग्लोबलाइज़ेशन के जो विषम परिणाम अन्य देशों में दिख रहे हैं उनसे भारत भी अछूता नहीं है। आर्थिक असमानता, महंगाई, बेरोज़गारी और औद्योगिक मंदी के रूप में यहां उसका असर और गहरा हीं दिखता है। पूंजी लगातार चंद हाथों में सिमट रही है। मौजूदा सरकार में कॉरपोरेट का प्रभाव पहले की किसी भी सरकार की तुलना में ज़्यादा है। सरकार और कॉरपोरेट की मिलीभगत से देश का पैसा लगातार पूंजीपतियों के हाथ सौंपा जा रहा है। इस तरह आर्थिक सुधार जो एक वक्त रक्षक बन कर आए थे अब भक्षक बन चुके हैं।
क्या कोई व्यवस्था अपने आप में ही बुराई के गुण समेटे हो सकती है? बेशक हो सकती है अगर उस व्यवस्था का केंद्रीय विचार मुनाफाखोरी हो! इसकी चर्चा अगले अध्याय में।