मॉब लिंचिंग: राज्य की हिंसा के साये में फली-फूली है भीड़ की हिंसा !

विकास नारायण राय

 

राज्य हिंसा से कमाया ग्लैमर इस कदर भी क्षणिक हो सकता है ! गत अप्रैल में, एक कश्मीरी नौजवान को बतौर रणनीति जीप के बोनट पर बाँध कर पत्थरबाजों का सामना करने वाला मेजर गोगोई हिंदुत्व ब्रांड के राष्ट्रवादियों का बड़ा हीरो बन बैठा था। मई में उसे श्रीनगर के एक होटल में स्थानीय लड़की के साथ गेट क्रैश करते हुए पुलिस ने पकड़ा, और फिलहाल सेना की कोर्ट ऑफ इन्क्वायरी ने उसे घातक अनुशासनहीनता का दोषी पाया है।

दरअसल, कश्मीर में ‘पत्थरबाज़ हिंसा’, कहीं भी भीड़ हिंसा, राज्य हिंसा की ही छाया है। राज्य हिंसा पर लगाम लगाने में असफल तंत्र, भीड़ हिंसा से छाया युद्ध ही कर सकता है। भारतीय लोकतंत्र भी यही कर पा रहा है।

एक स्वस्थ रूप से संचालित लोकतान्त्रिक समाज में भीड़ हिंसा मनोविज्ञान के दायरे में अकादमिक विमर्श की विषयवस्तु होती है। उसकी सही जगह अपराध विज्ञान के म्यूजियम में होनी चाहिये, जबकि भारत में संसद से सुप्रीम कोर्ट तक यह मुद्दा ज्वलंत हो रहा है, और लगता है जैसे इसने फ़िलहाल राजनीति के केंद्र में जगह बना ली हो।

उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने राज्य हिंसा को नये आयाम पर पहुंचा दिया है। मुख्यमंत्री योगी ने सत्ता की कमान हाथ में आते ही विरासत में मिले कानून व्यवस्था के असफल शासन तंत्र की भरपाई पुलिस मुठभेड़ के स्टेरॉयड से करने की ठान ली। शुरुआती ग्लैमर उतरने के बाद यह कवायद प्रदेश में भीड़ हिंसा के समानांतर आयाम पैदा करने लगी है।

बिहार में राज्य हिंसा का एक घृणित रूप बाल गृहों के अमानवीय संचालन की मुजफ्फरपुर रिपोर्ट में उजागर हुआ। इसका पूरक, भीड़ हिंसा का रूप, भोजपुर में संदिग्ध स्त्री को निर्वस्त्र बाजार में घुमाने में दिखा। राज्य हिंसा रास्ता दिखाती है और भीड़ हिंसा अनुगमन करती है।

कभी-कभी तो यह समीकरण एकदम प्रतिबिम्ब जैसा हो जाता है। शासक की सवारी के लिए आम आदमी के रास्तों को बेहिसाब रोकने का औपनिवेशिक चलन स्वतंत्र भारत में भी कम नहीं हुआ है। विरोध दर्ज कराने या विशिष्टता जमाने के लिए, भीड़ का क्रमशः ‘रास्ता रोको’ और ‘रास्ता छेंको’ उससे तनिक भी भिन्न नहीं।

निःसंदेह, भारतीय राजनीति के वर्तमान दौर में हिंदुत्व की शक्तियों ने मॉब लिंचिंग का अभूतपूर्व राजनीतिकरण किया है। यहाँ तक कि भीड़ हिंसा, साम्प्रदायिक प्रसंगों और अन्धविश्वास प्रकरणों की परिधि तोड़कर ध्रुवीकरण की सामान्य गलियों में घुसने वाली परिघटना बनती गयी है।

हैम्बर्ग और लन्दन में राहुल गाँधी ने आरएसएस के जीवन दर्शन की सटीक तुलना मुस्लिम ब्रदरहुड से की और भारत में चल रहे मॉब लिंचिंग दौर को काफी हद तक युवाओं में आर्थिक निराशा का परिणाम बताया।  हालाँकि,अंतर्राष्ट्रीय हिंसा के लिए चिह्नित समुदायों की वर्जना को जिम्मेदार ठहराने की उनकी टिप्पणी, भारतीय मॉब लिंचिंग सन्दर्भ में हद से हद एक आंशिक व्याख्या भर ही हो सकती है।

राहुल गाँधी ने इस हालिया विदेशी दौरे में 1984 के सिख संहार के लिए तब की सत्तानशीन कांग्रेस को जिम्मेदार मानने से किनारा किया है। इसी तरह भाजपा भी 2002 के गुजरात दंगे और बाबरी मस्जिद विध्वंस की सीधी जिम्मेदारी नहीं लेती। भारतीय लोकतंत्र की ये तीन सबसे बड़ी त्रासदी बेशक भीड़ हिंसा की ही श्रेणी में आयेंगी; हालाँकि तीनों राज्य हिंसा के साये में संपन्न हुयी थीं।

भाजपा तो खैर राज्य हिंसा की सरपरस्ती के बिना एक राजनीतिक पार्टी के रूप में अपना प्रभाव बरकरार रख ही नहीं सकती। उसके राज में सिटीजन रजिस्टर और गौ रक्षा तक इसके उपकरण बना दिए गये हैं। राहुल गाँधी भी यदि राज्य हिंसा के परिप्रेक्ष्य में बात करते तो उन्हें हाशिमपुरा-मलियाना और भोपाल गैस कांड का जवाब देना चाहिए था। भाजपा और कांग्रेस, दोनों पर समान रूप से आयद है कि वे आदिवासियों, वनवासियों और किसानों की पारिस्थितिकी पर अमानवीय हमलों की अपनी नीतियों का लेखा-जोखा दें|

दरअसल, मॉब लिंचिंग पर विरोधी तेवर रखने वाली भाजपा और कांग्रेस, राज्य हिंसा पर अंततः एक स्वर में मिलेंगी। अक्तूबर 2016 भोपाल जेल से फरार दिखाये आठ सिमी सदस्यों को पुलिस मुठभेड़ में मार गिराने को उस जांच कमीशन ने सही ठहरा दिया जिसकी कार्यवाही पर मृतकों के वकीलों ने लगातार सवाल खड़े किये। बिना उनके सवालों को निपटाए, भाजपा सरकार के कमीशन ने मुठभेड़ में मौतों को अपरिहार्य करार दिया।

अप्रैल 2015 आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले के सेषाचलम जंगल में बीस तमिल लकड़हारों को, जिनके पास सिर्फ लकड़ी काटने के औजार थे, पुलिस ने चन्दन तस्कर बताकर गोलियों से भून दिया। सेषाचलम जंगल में एक लाख करोड़ की चन्दन लकड़ी का अनुमान है और मुठभेड़ के पीछे राजनीतिक संरक्षण प्राप्त चन्दन माफिया का हाथ बताया गया। मामला हैदराबाद हाईकोर्ट में लंबित है|

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार को इसी जुलाई में फर्जी पुलिस मुठभेड़ों की बाढ़ पर सुप्रीम कोर्ट के नोटिस का शायद ही कोई जमीनी असर हुआ हो। यहाँ तक कि फर्जी मुठभेड़ों पर लगातार सवाल उठाने वाले ‘रिहाई मंच’ के एक अग्रणी कार्यकर्ता राजीव यादव को भी पुलिस ने मुठभेड़ की धमकी दे डाली। अब यह मंच पूरे प्रदेश में जन अभियान यात्रा निकालने जा रहा है।

इसकी ठोस वजह है कि भीड़ हिंसा के सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट का दखल भी क्यों बेहद लचर सिद्ध हुआ है। दरअसल, राज्य हिंसा के परिप्रेक्ष्य में,सुप्रीम कोर्ट की चुप्पी निर्णायक सन्देश हो जाती है।

 

(अवकाश प्राप्त आईपीएस विकास नारायण राय, हरियाणा के डीजीपी और नेशनल पुलिस अकादमी, हैदराबाद के निदेशक रह चुके हैं।)

 



 

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