पहला पन्ना: पुलिसिया राज की स्थापना के संकेत, सरकार सोशल मीडिया से परेशान!

आज अन्य खबरों की चर्चा से पहले नीरव मोदी की खबर। क्यों? इस खबर की चर्चा के बाद बताउंगा। इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर लीड के साथ, टॉप बॉक्स के नीचे दो कॉलम में तीन लाइन के शीर्षक से लगी है। शीर्षक कहता है, गिरफ्तारी के दो साल बाद ब्रिटिश अदालत ने नीरव मोदी के प्रत्यर्पण का मार्ग प्रशस्त किया। आधे कॉलम की फोटो के साथ खबर वाले फौन्ट साइज में पर बोल्ड अक्षरों में प्रमुखता से बताया गया है, हाई कोर्ट में अपील कर सकते हैं। अब आप करते रहिए इंतजार। खुश हो लीजिए। हिन्दुस्तान टाइम्स में यह खबर पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर तीन कॉलम में है। दो लाइन का शीर्षक है, “नीरव को भारत भेजा जा सकता है : जज”। बीच के कॉलम में फोटो के साथ प्रमुखता से बताया गया है, मामला ब्रिटिश होम सेक्रेट्री प्रीति पटेल के पास भेजा जाएगा जो अंतिम निर्णय लेंगी। यह भी कि मोदी (नीरव) ब्रिटिश हाईकोर्ट जा सकते हैं पर प्रत्यर्पण के खिलाफ अपील तब तक नहीं सुनी जाएगी जब तक होम सेक्रेट्री का फैसला नहीं आ जाए। इसीलिए, अखबार ने मुख्य खबर से अलग, इन सूचनाओं का शीर्षक लगाया है, “लंबा रास्ता तय किया जाना है”।

मुझे लगता है कि मामला यही है और यह खबर पहले पन्ने की हो भी तो इतनी प्रमुखता किसलिए? नीरव मोदी ने कौन सा तीर मार लिया कि फोटो के साथ खबर छप रही है? इस लिहाज से द टेलीग्राफ, टाइम्स ऑफ इंडिया द हिन्दू ठीक हैं। फोटो लगाकर जगह खराब नहीं की गई है। यह दिलचस्प है कि टाइम्स ऑफ इंडिया और द टेलीग्राफ को छोड़कर बाकी के तीन अखबारों ने इस खबर को नई दिल्ली डेटलाइन से बाईलाइन के साथ छापा है। यानी यह सूत्रों की प्लांट की हुई खबर है। द टेलीग्राफ ने लंदन डेटलाइन से और टाइम्स ऑफ इंडिया ने बिना डेटलाइन के पहले पन्ने पर सबसे छोटी खबर छापी है। नीरव मोदी की खबर आती है तो मुझे विजय माल्या भी याद आ जाते हैं। विजय मल्या के बारे में भारतीय अखबारों में दो साल पहले छप चुका है, “ब्रिटिश सरकार ने विजय माल्या के भारत प्रत्यर्पण का रास्ता साफ किया”। कहने की जरूरत नहीं है कि विजय माल्या अभी भारत नहीं पहुंचा है। नीरव मोदी की खबर का आप क्या करेंगे, आप जानिए।

आज दो ऐसी खबरों की चर्चा करूंगा जो पहले पन्ने लायक होने के बावजूद बाकी अखबारों में पहले पन्ने पर नहीं है। हिन्दुस्तान टाइम्स ने अधपन्ने के बाद के पहले पन्ने पर एक खबर छापी है, “सिर्फ पुरुष और महिला शादी कर सकते हैं : केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट में”। अखबार ने शीर्षक में सुप्रीम कोर्ट लिखा है लेकिन मामला हाईकोर्ट का है। यही खबर द हिन्दू में है और शीर्षक से बताया गया है, “समान लिंग वालों के विवाह से विनाश हो जाएगा या तबाही मच जाएगी : सरकार ने हाईकोर्ट में कहा”। मुझे याद नहीं है कि अखबारों में ऐसी कितनी खबरें पढ़ चुका हूं लेकिन किसी तबाही या विनाश की कोई खबर पढ़ी हो यह मुझे याद नहीं है। सरकार के पास समय है, संसाधन है, लोग हैं, विचार हैं – वह अदालत में रख रही है। लेकिन अखबारों की (अदालतों की भी) चिन्ता होनी चाहिए कि जो कानून पहले से हैं उन्हें लागू कराना संभव नहीं हुआ है तो ऐसे कानूनों का क्या मतलब? कोई शादी किए बगैर साथ रहे तो? अदालतों में जो मामले लंबित हैं उनपर जल्दी फैसला हो इसकी बजाय नए-नए कानून बनाने से पुलिसिया राज स्थापित होने के अलावा कुछ नहीं होना है।

सरकार सोशल मीडिया पर नियंत्रण की कोशिश में लगी हुई है। इससे क्या होगा समझना मुश्किल नहीं है। अभी ही हालात पुलिसिया राज जैसे हैं और यह टूल किट मामले में दिशा रवि के जमानत आदेश से साफ है। पुलिसिया मनमानी से संबंधित एक और गंभीर खबर कल सोशल मीडिया पर होने के बावजूद आज अखबारों में पहले पन्ने पर नहीं है। पहले तो नहीं ही छपी। जो हालात हैं उसमें सर्वोच्च प्राथमिकता जनहित के ऐसे तात्कालिक मामलों को मिलनी चाहिए। उदाहरण के लिए मैं द टेलीग्राफ के पहले पन्ने की खबर की चर्चा करूंगा जो मेरे पांच अखबारों में किसी और के पहले पन्ने पर नहीं है। सोशल मीडिया पर कल यह सूचना थी और किसी भी पत्रकार के लिए यह ‘खबर’ होनी ही चाहिए। सूचना मिलने के बाद इसे आज के सभी अखबारों में होना चाहिए। चूंकि मैं पहले पन्ने की ही चर्चा करता हूं इसलिए मानकर चल रहा हूं कि बाकी अखबारों में यह खबर जरूर होगी। देखिए, आपके अखबार में है?

द टेलीग्राफ में अक्सर ऐसी खबर होती है। आज की खबर का शीर्षक है, “गिरफ्तार ऐक्टिविस्ट को यातना जैसे जख्म”। अखबार ने बताया है कि मजदूर अधिकार संगठन के प्रेसिडेंट, 24 साल के शिव कुमार की मेडिकल रिपोर्ट उनके डरावने विवरण से मेल खाती है। उनके हाथ और पैर में दो जगह फ्रैक्चर है और अंगूठे में चोट के निशान है। अखबार ने लिखा है कि शिव कुमार का संगठन किसान आंदोलन के साथ है। वे 2 फरवरी से जेल में हैं और मेडिकल रिपोर्ट के अनुसार ये जख्म 6 फरवरी से पहले के हैं। उन्हें दिल्ली सीमा पर सिंघु से 16 जनवरी को गिरफ्तार किया गया था। हरियाणा पुलिस का दावा कुछ और है। अखबार ने लिखा है कि इसी मामले में एक और ट्रेड यूनियनिस्ट नोदीप कौर को गिरफ्तार किया गया था। उसने भी यातना देने के आरोप लगाए हैं।

यह चिन्ताजनक है कि पुलिस यातना के इस मामले में अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई। सोशल मीडिया पर आने के बावजूद खबर नहीं बनी और सरकार सोशल मीडिया को नियंत्रित करने में लगी हुई है। और आज के अखबारों ने सरकारी आदेश क्या है इसे बताने में ज्यादा जगह खराब की है और यह नहीं बताया है कि सरकार ये अधिकार क्यों चाहती है। अखबार यह बताते हैं कि पुलिस को पूरी आजादी है और वह किसी दबाव में काम नहीं कर रही है। अगर ऐसा है और पुलिस बगैर किसी दबाव के लोगों को गिरफ्तार कर यातना दे रही है तो मामला ज्यादा खराब है और सरकार को खुद पहल करनी चाहिए। पर सरकार तो छोड़िए मीडिया के पास भी समय नहीं है।

पुनश्च: नोदीप को आज जमानत मिल गई और अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने कहा है कि अब यह महत्वपूर्ण है कि उसकी पिटाई करने वाले पुलिस अधिकारियों को गंभीर सजा दी जाए। क्या ऐसा होगा? और अखबार वाले यह खबर देंगे। पुलिस अफसरों और गृहमंत्री से पूछ सकेंगे?


लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

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