हमारे साथ जो हुआ वो तो हमें पहले से पता था, हमारी दुआ है कि आपके साथ ऐसा कुछ न हो…!

हमारी तरह आप मन ही मन न गिडगिडाएँ कि अगर मारना ही है तो एक बार में मार देना, आसिफ़ा की तरफ तकलीफें दे के न मारना, पत्थरों पर पटक-पटक के ना मारना, सब्ज़ी की तरह बेजान जिस्म का ‘एक बार और बलात्कार न करना, खालिद की तरह चाकू से गोद गोद के, मज़ाक़ उड़ा के, फुटबाल की तरह खेल के, ना मारना… मारना ही है तो एक बार में मार देना. ज़रा कम तकलीफ़ दे के मारना. उसके जिस्म के कपड़े बने रहने देना, मरते हुए को बेइज़्ज़त कर के न मारना, और अगर हो सके तो एक बार मां को उसकी आवाज़ सुना देना…!

 

शीबा असलम फ़हमी

हमें तो पता था कि भारत में मुसलमानों का क्या हाल होने वाला है, जब हज़ारों की भीड़ में, माननीय योगी जी ने घूम-घूम कर बताया था कि एक के बदले 100 मुसलमान महिलाएं उठायी जाएंगी. उनकी रैली में ऐलान हुआ तो था कि क़ब्र से निकाल कर मुसलमान महिलाओं का बलात्कार करेंगे. सभी केसरियाधारी साधु, साध्वी, बाबा, संत खुल कर बताते तो हैं कि “कैसे इस्लाम के मानने वालों को जीने का हक़ नहीं, क्योंकि मुसलमान भारत की नहीं बल्कि सारी दुनिया की समस्या है”. वे हिन्दू पौरुष को जगाते रहते हैं मुसलमानों की हत्या के लिए. इसके अलावा अब देश भर में हिंदू भीड़ का मनोरंजन है मुसलमानो को तड़पा-तड़पा के मारना, बेइज़्ज़त कर के, दाढ़ी नोच के, कपड़े फाड़ के, यातनाएं दे के और हाथ जुड़वा के मारना। मुसलमानों के लहूलुहान जिस्मों पर तरस खाना अब इतना दक़ियानूसी हो गया है कि न तो पुलिस बोलती है, न मूकदर्शक। खुद मुसलमान भी नहीं बोलता है कि ‘ये देखा नहीं जा रहा’. ट्विटर या फेसबुक पर अगर कोई हिंदू भाई हमदर्दी दिखा भी दे तो उसके बाप-दादा, मां-बहन, और मर्दानगी तक पर कीचड़ उछाला जाता है. इसलिए हमें पता तो था कि हमारे साथ क्या होने वाला है.

लेकिन हम खुद को कैसे बचाएं? क्या करें? अगर अरब खाड़ी के देशों में बसे हिन्दुओं की तरह हमारा भी कोई भारत जैसा ‘घर’ होता तो लौट जाते. बस यही दुआ है कि किसी भी बहाने से कोई इंसान वो न झेले जो जिससे हम गुज़र रहे हैं भारत में, क्योंकि मारने वाला हिंदू, मुसलमान हो सकता है लेकिन मरने वाला सिर्फ इंसान होता है. आसिफ़ा सिर्फ मासूम बच्ची थी. मंदिर-मस्जिद का फ़र्क़, अल्लाह-भगवान का फ़र्क़ वो जानती भी तो उसके किस काम का? उसको तो बस एक ही चीज़ की ज़रूरत थी- रहम, जो इंसान में होता है.

हम अगर शिक्षित अमीर होते तो अमरीका कनाडा चले जाते. लेकिन हम तो बंजारे, गड़रिये, पशुपालक, बिरयानी का ठेला लगाने वाले, मज़दूरी करने वाले, सेवा करने वाले हैं. इसी देश की मिट्टी में पैदा हुई खर-पतवार हैं, हमारा आपके सिवा कौन है? हम कहाँ चले जाएँ? इसलिए सिर्फ आपकी तरफ देख सकते हैं कि ऐसे न देखो हमारी तरफ़। अपना होना हमने नहीं चुना, अपना मज़हब हमने नहीं चुना, अपनी ग़रीबी हमने नहीं चुनी, सदियों के रेले में बह के यहाँ कैसे पहुंचे हैं हमें भी नहीं पता। इन सवालों के जवाब आप हमारे मौलानाओं से पूछ लीजिये जो आज भी प्रधानमंत्री के साथ, गृहमंत्री के साथ और टीवी चैनल पर हमारे नुमाइंदे बन के इज़्ज़त पाते हैं. वे आज भी 10 -12 लाख लोगों की रैली अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए कर लेते हैं लेकिन हमारे लिए कभी दस-बारह भी नहीं खड़े होते.  उनसे पूछिए कि हमारा उनका कोई रिश्ता है क्या?

जिन हिंदू मांओं की गोद भरने वाली है, जो हिंदू पिता बनने वाले हैं, अभी जिनके घर-आँगन में नौनिहालों की किलकारियां गूँज रही हैं, उनके लिए हमारी दुआ है कि आपके कलेजे के टुकड़े के साथ कभी वो न हो जो आपने हमारे बच्चे के साथ किया। आपके साथ कठुआ जैसी घटना न हो, खालिद की तरह कभी आपका बच्चा भरी ट्रेन में चाकुओं से न गोदा जाए, कभी आपके किशोर बच्चों की लाशें पेड़ पर लटकी न मिलें। आसिफ़ा के बलात्कारी पुजारी सांजीराम के बेटे के साथ कोई वैसा न करे जैसा उसने आसिफ़ा के साथ किया और अपने बेटे से करवाया. कांस्टेबल दीपक खजूरिया की बच्ची के साथ कोई वैसा न करे जैसा उसने लगभग मर चुकी आसिफ़ा के साथ किया।

आप के दुःस्वप्न ऐसे भयानक न हों कि आप हमारी तरह चीख़ के, घबरा के बिस्तर पर उठ बैठें। आप हमारी तरह बैठे-बैठे अचानक अपने बच्चे को गले लगा के प्यार न करने लगें कि जैसे वो आख़री बार सही सलामत मिला हो आपको. रोज़-रोज़ आप अपनी औलाद के लिए फिक्रमंद न हों कि जब तक है तब तक इसके होने हो खूब महसूस कर लो. अख़लाक़ की माँ की तरह आप अपने ही घर के अंदर डरे न बैठे रहें किसी अनजान भीड़ से जो आपकी गोद से खींच ले जाएगी आपके अपने को, हमारी तरह आप मन ही मन न गिडगिडाएँ कि अगर मारना ही है तो एक बार में मार देना, आसिफ़ा की तरफ तकलीफें दे के न मारना, पत्थरों पर पटक-पटक के ना मारना, सब्ज़ी की तरह बेजान जिस्म का ‘एक बार और बलात्कार न करना, खालिद की तरह चाकू से गोद गोद के, मज़ाक़ उड़ा के, फुटबाल की तरह खेल के, ना मारना।

मारना ही है तो एक बार में मार देना. ज़रा कम तकलीफ़ दे के मारना. उसके जिस्म के कपड़े बने रहने देना, मरते हुए को बेइज़्ज़त कर के न मारना, और अगर हो सके तो एक बार मां को उसकी आवाज़ सुना देना, हो सके तो हिन्दू की जगह इंसान बन के, एक बार आप खुद उसकी गुहार सुन लेना। दिल की गहराइयों से हमारी दुआ है कि आपकी इस दरियादिली के बदले में आप सब सलामत रहें, आपकी इस एकनेकी के बदले में आप के घर आँगन खुशियों से सजे रहें, आपकी पीढ़ियां आबाद रहें. आपके ह्रदय सम्राटों का इक़बाल बुलंद रहे.


शीबा असलम फ़हमी नारीवादी लेखिका हैं और मीडियाविजिल के सलाहकार मंडल की सम्मानित व सक्रिय सदस्य हैं

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