सीपी कमेंट्री: वंशबाग़ में शरद का फूल!

शरद यादव ने नीतीश कुमार के महागठबंधन को छोड़ फिर भाजपा से हाथ मिलाकर अपनी  सरकार बनाने का विरोध किया था। बाद में उन्होंने  खुद की पार्टी , लोकतांत्रिक जनता दल का गठन कर लिया जिसकी कोई ख़ास पहचान नहीं बनी है। ग़ौरतलब है कि डॉक्टर राममनोहर लोहिया के गैर- कांग्रेसवाद के सिद्धांत की डगर पर सियासत करते रहे  शरद यादव ने खुद पूर्व में कांग्रेस के परिजनवाद पर तीखे हमले किये हैं. पर अब शरद यादव की बेटी सुभाषिनी के मधेपुरा जिला की बिहारीगंज सीट से बतौर कांग्रेस प्रत्याशी चुनाव लड़ने की पूरी संभावना है। उन्होंने कांग्रेस ज्वाइन कर लिया है।

बिहार के कई बार मुख्यमंत्री रहे लालू प्रसाद यादव पहले या फिर आख़िरी राजनेता नहीं हैं जिन्होंने सियासत में परिजनवाद‘ को प्रश्रय दिया. लगभग सभी राजनेता और उनकी पार्टियाँ परिजनवादी राजनीति के हम्माम में नंगे साबित हो चुके हैं. कुछ लोगो को कुछ राजनेता इस मामले में अपवाद लगते दिख सकते है. लेकिन उन गिने-चुने राजनेताओं की भी उत्तरोत्तर बढती आयु में परिजनवाद के लोभ और लाभ से बचे रह जाने की कोई पक्की गारंटी नहीं दी जा सकती है.

परिजनवाद ‘हिंदुस्तानी छाप सियासत‘ का भारत की आज़ादी के पहले से विद्यमान प्रवृत्ति रही है. इसका अब अपने आप में विचारधारा-सी बन जाने का गंभीर खतरा उत्पन्न हो चुका है. परिजनवाद, अगर सामान्य समय में सुषुप्त अवस्था मे लगे और चुनावों के वक्त ही ज्यादा ही खुल कर दिखे तो ये एक तरह से स्वाभाविकभी है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में पूंजीवाद से लेकर साम्यवाद तक के किसी भी तरह के वाद को चुनाव की कसौटी पर खरा-खोटा उतरने की अंतर्निहित बाध्यता है. परिजनवाद को भी चुनाव के जरिये ही बढाया या फिर ‘बिठा‘ दिया जाता रहा है.

लालू जी को एक श्रेय जरूर है. उन्होने परिजनवाद को सियासत की कभी  तेज कभी धीमी आँच पर पकाने का ऐसा उत्तर-आधुनिक नुस्खा तैयार किया जिसकी दुनिया भर में शायद और कोई मिसाल नहीं है. लालू जी के राजनीतिक विरोधियों ही नहीं कट्टर समर्थकों तक को इस नुस्खा की भनक उसके सामने आने से पहले नहीं लगी. लालू जी को मुख्यमंत्री के रूप में भ्रष्टाचार के चारा घोटाला में लिप्तता के आरोप के कारण यह पद छोड़ना पड़ा. सभी ने सोचा लालू की जगह राजद का कोई और नेता नया मुख्यमंत्री बन जाएगा। पर लालू को और कोई मंज़ूर नहीं था. उन्होंने लगभग अशिक्षित अपनी पत्नी राबड़ी देवी को ही नया मुख्यमंत्री बना दिया। इससे उनके पास न सिर्फ पटना में मुख्यमंत्री की राजकीय कोठी  बनी रही. बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से राजपाट भी बना रहा. उन्होने परिजनवाद का लोकताँत्रिक चुनाव की पुष्टि से ऐसा मॉडल बना लिया जो सहज, सरल लगने लगा.

ये मॉडल विपरीत परिस्थियो का सामना कर ध्वस्त होने के बजाय और सुदृढ़ ही होता चला गया. 2015 के पिछले चुनाव में लालू जी के राष्ट्रीय जनता दलकांग्रेस और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड के महागठबंधन से भारतीय जनता पार्टी के परास्त होने के बाद नई सरकार बनी. नई सरकार में मुख्यमंत्री तो नीतीश कुमार ही बने. लेकिन लालू जी के दोनों पुत्र तेज प्रताप यादव और तेजस्वी यादव कैबिनेट मंत्री बने। तेजस्वी को उप मुख्यमंत्री का दर्जा भी मिल गया। फिर कुछ माह बाद नीतीश कुमार जी की सियासी पलटी मार भाजपा से हाथ मिलाने के बाद बनाई नई सरकार में लालू जी के पुत्रों को मंत्री पद से हाथ धोना पड़ गया। लेकिन विधान सभा में विपक्ष का नेता होने की हैसियत से तेजस्वी को कैबिनेट मंत्री का दर्जा बरकरार रहा।  इस बार के चुनाव में तेजस्वी महागठबंधन की तरफ से मुख्यमंत्री पद के घोषित दावेदार हैं.

लव सिन्हा

गुज़रे जमाने के फिल्म अभिनेता एवं पूर्व संसद शत्रुघ्न सिन्हा के पुत्र लव सिन्हा पटना की बांकीपुर सीट से बतौर कांग्रेस प्रत्याशी चुनाव लड़ेंगे. वह बीते जमाने की ही फिल्म अभिनेत्री पूनम सिन्हा (जोधा अकबर में अकबर की मां) के पुत्र और नये जमाने की फिल्म अभिनेत्री सोनाक्षी सिन्हा के भाई हैं. लव सिन्हा इस सीट पर बीते 15 बरस से कबिज भाजपा नेता नवीन किशोर सिन्हा के पुत्र नितिन नवीन से टक्कर लेंगे। बांकीपुर सीट से ही नई बनी प्लूरल्स पार्टी की अध्यक्ष पुष्पम प्रिया चौधरी भी चुनाव लड़ रही हैं। पुष्पम दरभंगा की रहनेवाली हैं और जेडीयू के पूर्व विधान पार्षद विनोद चौधरी की बेटी हैं। विनोद चौधरी, नीतिश कुमार के करीबी माने जाते हैं.

मिथिलेश चौधरी

गुज़रे ज़माने के क्रिकेटर और पूर्व सांसद कीर्ति झा आजाद के साले मिथिलेश चौधरी दरभंगा जिला के बेनीपुर से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ेंगे। वह पिछले लोकसभा चुनाव के समय से ही सियासत में हैं. कीर्ति आजाद खुद बिहार के दिवंगत पूर्व मुख्यमंत्री भागवत झा आज़ाद के पुत्र और पूर्व सांसद हैं. कांग्रेस ने उन्हे इस बार के चुनाव में अपने 30 स्टार प्रचारकों की  सूची में शामिल किया है.

निशा सिंह

भाजपा ने कटिहार जिला की प्राणपुर सीट से निशा सिंह को अपना प्रत्याशी बनाया है. उनके पति विनोद सिंह , बिहार के पिछड़ा कल्याण मंत्री थे।  उनका निधन पिछले सप्ताह ही हुआ है. जाहिर है भाजपा भी परिजनवाद से अछूती नहीं है. यह भी संकेत मिलते हैं कि इस सीट पर भाजपा ने परिजनवाद का सहारा सहानुभूति वोट पाने के लिए किया है. 

बिहार के इस बार के चुनाव में अन्य दलों के साथ ही भाजपा के  परिजनवाद की साफ झलक कई अन्य सीटों पर भी नज़र आ रही हैं।  उन सबका उल्लेख एक आलेख में संभव नहीं हैं. लेकिन हम परिजनवाद की शरण में जाने के नवीनतम मामले में शामिल राजनेता शरद यादव का  विशेष उल्लेख जरूर करेंगे जो खुद को समाजवादी मानते रहे हैं. 

सुभाषिनी राज राव

पूर्व केंद्रीय मंत्री और लोकतांत्रिक जनता दल के अध्यक्ष शरद यादव की बेटी सुभाषिनी राज राव बुधवार को दिल्ली में कांग्रेस मुख्यालय जाकर पार्टी में शामिल हो गईं. इस मौके पर कांग्रेस के बिहार अध्यक्ष मदन मोहन झा उपस्थित थे। सुभाषिनी के मधेपुरा जिला की बिहारीगंज सीट से बतौर कांग्रेस  प्रत्याशी चुनाव लड़ने की पूरी संभावना है. वह हरियाणा के एक सियासी परिवार की बहू भी हैं। उन्होने 2019 के लोकसभा चुनाव में मधेपुरा सीट पर अपने पिता शरद यादव का चुनाव  प्रचार किया था. शरद यादव पिछली बार इस सीट पर महागठबंधन में शामिल राजद के प्रत्याशी के रूप में हार गए थे। तब से वह सियासत की परिधि पर रहे हैं. सुभाषिनी राव ने कहा कि उनके पिता बीमारी के कारण बिहार में चुनाव प्रचार के लिये नहीं जा सके हैं।

शरद यादव ने नीतीश कुमार के महागठबंधन को छोड़ फिर भाजपा से हाथ मिलाकर अपनी  सरकार बनाने का विरोध किया था। बाद में उन्होंने  खुद की पार्टी , लोकतांत्रिक जनता दल का गठन कर लिया जिसकी कोई ख़ास पहचान नहीं बनी है। ग़ौरतलब है कि डॉक्टर राममनोहर लोहिया के गैर- कांग्रेसवाद के सिद्धांत की डगर पर सियासत करते रहे  शरद यादव ने खुद पूर्व में कांग्रेस के परिजनवाद पर तीखे हमले किये हैं.  

शरद यादव , मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के जनता दल यूनाइटेड  के अध्यक्ष होने की हैसियत से भाजपा के नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस ( एनडीए) के संयोजक भी रहे थे। नीतिश कुमार ने उन्हें अगस्त 2017 में पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल होने के आरोप में राज्यसभा में पार्टी नेता पद से हटा कर जेडीयू से भी निकाल दिया था। इसी के बाद उन्होंने लोकतांत्रिक जनता दल (एलजेडी) का गठन किया था. इसी बरस अगस्त में शरद यादव के जेडीयू में लौट आने की अटकल पर जेडीयू प्रवक्ता राजीव रंजन ने कहा था  कि अगर वह पार्टी में शामिल होते हैं तो यह निश्चित रूप से एक अच्छा कदम होगा। भाजपा सांसद रामकृपाल यादव ने भी कहा था  कि शरद यादव के आने से एनडीए और मजबूत होगा।

बहरहाल ,  शरद यादव जैसे राजनेता का भी परिजनवाद को अंगीकार करना इसकी पुष्टि ही करता है कि दक्षिणपंथी और मध्यमार्गी राजनीतिक पार्टियों में परिजनवाद का कोई विरोध नहीं रह गया है।

 

 



सीपी नाम से चर्चित लेखक  चंद्रप्रकाश  झा, युनाइटेड न्यूज औफ इंडिया के मुम्बई ब्यूरो के विशेष संवाददाता पद से रिटायर होने के बाद तीन बरस से बिहार स्थित अपने गांव में खेती-बाड़ी करने और स्कूल चलाने के साथ ही स्वतंत्र पत्रकारिता और लेखन भी कर रहे हैं. उन्होने भारत की आज़ादी, चुनाव,  अर्थनीति, यूएनआई का इतिहास आदि विषय पर कई किताबे लिखी हैं. वह मीडिया विजिल के अलहदा ‘चुनाव चर्चा’ के स्तम्भकार हैं. वह क्रांतिकारी कामरेड शिव वर्मा मीडिया पुरस्कार की संस्थापक कम्पनी पीपुल्स मिशन के अवैतनिक प्रबंध निदेशक भी हैं, जिसकी कोरोना- कोविड 19 पर अंग्रेजी–हिंदी में पांच किताबो का सेट शीघ्र प्रकाश्य है.



 

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