दलित राजनीति का उद्भव, विकास और पतन-2

 

स्वातंत्रोत्तर दलित राजनीति

 

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद दलित राजनीति में कोई क्रान्तिकारी विकास नहीं हुआ। स्वतन्त्र भारत में काँग्रेस सत्तारूढ़ हुई और उसी ने दलितों का नेतृत्व किया। दलितों के लिये सुरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में दलित उम्मीदवारों की विजय गैर-दलित मतों पर निर्भर करती थी, जिसमें मुसलमान भी शामिल थे। यह वोट काँग्रेस-समर्थक ज्यादा था। इसलिये सुनिश्चित जीत के लिये दलितों का काँग्रेस से जुड़ना जरूरी हो गया। काँग्रेस ने इसका लाभ उठाया और उसने उन दलितों को अपना प्रत्याशी बनाया, जो आंबेडकर-विरोधी और गाँधी-समर्थक होते थे। यही काँग्रेस में दलितों के शामिल होने की योग्यता थी, जिसमें उनका शिक्षित होना अनिवार्य नहीं था। काँग्रेस ने जगजीवन राम को डा. आंबेडकर के समानान्तर राजनीति में उतारा था। वे आंबेडकर-विरोधी भी थे और गाँधी-समर्थक भी। वे काँग्रेस में दलित राजनीति मामलों के प्रभारी माने जाते थे। जगजीवन राम ने कई अवसरों पर डा. आंबेडकर की मुखर आलोचना ही नहीं की, वरन् दलितों में उनके प्रभामंडल को समाप्त करने की कोशिशों में भी वे आगे रहते थे। लेकिन सत्तर के दशक में जगजीवन राम के विचारों में परिवर्तन आया। उन्होंने डा. आंबेडकर की प्रासंगिकता को दलित राजनीति में अनुभव किया। गाँधी के प्रति भी उनका दृष्टिकोण बदला, जो उनकी 1981 में प्रकाशित पुस्तक ‘भारत में जातिवाद और हरिजन समस्या’ में उनके इस कथन में दिखाई देता है- ‘‘महात्मा गाँधी ने अपने जीवन की बाजी लगाकर भी हिन्दू समाज के विघटन को रोकने की चेष्टा की। उन्होंने सवर्ण हिन्दुओं की अंतरात्मा को जगाना चाहा, जिससे वे यह महसूस कर सकें कि उन्हीं के धर्म को मानने वाले असंख्य व्यक्ति किस प्रकार पशुओं जैसा जीवन व्यतीत कर रहे हैं। हिन्दू समाज तो बच गया, परन्तु अछूतों का कुछ न बना। आज भी वे लोग दासों जैसी स्थितियों में हैं और उनकी मुक्ति की कोई आशा दिखाई नहीं देती।’’ यह गाँधी और काँग्रेस की दलित सन्दर्भ में एक सूक्ष्म आलोचना थी। पर जगजीवन राम दलित राजनीति को कोई क्रान्तिकारी दिशा नहीं दे सके। वे अंत तक यथास्थिति की ही राजनीति करते रहे। उनके साथ यह विरोधाभास था कि वे स्वयं को हरिजन या दलित नेता कहलाना पसंद नहीं करते थे, पर चुनावों के समय वे दलितों की जातीय भावनाओं को भुनाने का काम करते थे।

1950 में ‘बाम्बे क्रानिकल’ ने लिखा था कि डा. आंबेडकर अपने संघर्ष में विफल हो गये थे। एक राजनेता के रूप में उनकी विफलता को कुछ अन्य विद्वानों ने भी, जिनमें डी. आर. नागराज भी एक हैं, रेखांकित किया है। मैं इस मत से सहमत नहीं हो पा रहा हूँ, क्योंकि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि डा. आंबेडकर दलित राजनीति के जनक हैं। वे इतिहास के एक पात्र ही नहीं हैं, बल्कि स्वयं इतिहास का निर्माण कर रहे थे। उन्होंने जो राजनैतिक संघर्ष किया, वह दलित उभार का एक जबरदस्त सैलाब था, जिसमें काँग्रेस और हिन्दूधर्म को नष्ट हो जाना था। इसलिये काँग्रेस और हिन्दू समाज ने उस संघर्ष को विफल करने में अपनी सारी शक्ति लगा दी थी। किन्तु महत्वपूर्ण यह नहीं है कि डा. आंबेडकर विफल हुए, महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने दलित राजनीति को परिवर्तनकारी बनाया। उनके नेतृत्व में दलित राजनीति का ‘रेडिकल’ स्वरूप हमेशा बना रहा।

पूना-पैक्ट के बाद ही राजनैतिक परिस्थितियाँ दलित राजनीति के अनुकूल नहीं रह गई थीं, इसे डा. आंबेडकर जानते थे। ये परिस्थितियाँ आजादी के बाद भी न सिर्फ यथावत् बनी रहीं, बल्कि वे और भी ज्यादा प्रतिकूल हो गई थीं। लेकिन डा. आंबेडकर ने दलित राजनीति को जो दर्शन दिया, उसके साथ उन्होंने कोई समझौता नहीं किया। 1950 में उन्होंने दलित वर्गों को संकीर्ण और संकुचित दृष्टिकोण को त्यागने को कहा और इस बात पर जोर दिया कि वे हर तरह से देश की स्वतन्त्रता की रक्षा करें। उन्होंने अलगाव का विरोध् किया तथा समान विचारधारा वाले दूसरे दलों से मिलकर संघर्ष करने की सलाह दी थी। 1951 में उन्होंने बम्बई असेंबली के चुनावों में सोशलिस्ट पार्टी से शेडयूल्ड कास्ट फेडरेशन का गठबंधन किया। उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के साथ भी बातचीत की थी, पर वहाँ उनकी बात नहीं बनीं। उन्होंने स्वतन्त्रता तथा समता के लिये जनतांत्रिक समाजवाद की आवश्यकता हेतु इन चुनावों में सोशलिस्टों के साथ मिलकर लड़ाई लड़ी थी। 1950 में वे फेडरेशन का सोशलिस्ट पार्टी में विलय करने के लिये भी तैयार हो गये थे, पर कुछ सैद्धांतिक कारणों से, जिसमें गाँधीवाद के प्रति आग्रह-दुराग्रह भी एक कारण था, यह विलय नहीं हो सका था। चुनावों में गठबन्धन विजयी नहीं हो सका और डा. आंबेडकर तथा अशोक मेहता भी पराजित हो गये थे। 1953 में फेडरेशन ने हैदराबाद में दलितों को जमीन दिलाने के लिये बहुत बड़ी लड़ाई लड़ी, जिसमें उन्हें सफलता मिली। लेकिन चुनावों में फेडरेशन को सफलता नहीं मिल सकी। इसका कारण हिन्दू दृष्टिकोण यह बताता है कि डा. आंबेडकर के चुनावी भाषण हिन्दुओं के प्रति विद्वेषपूर्ण तथा अशिष्टतापूर्ण होते थे, पर दलित दृष्टिकोण इस आरोप को अस्वीकार करता है। उसके मतानुसार, मुख्य कारण सुरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों का चक्रव्यूह था, जिसे सिर्फ दलित वोटों से नहीं तोड़ा जा सकता था। कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों का जनाधार भी आमतौर से हिन्दुओं में ही था और व्यावहारिक सच्चाई यह है कि उनकी कथनी और करनी में अन्तर होता था।

डा. आंबेडकर ने स्वयं इस चक्रव्यूह को समझ लिया था, इसलिये उन्होंने 1955 में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के नेताओं से कहा था कि अब समय आ गया है कि वे दलितों के लिये सुरक्षित सीटों को समाप्त करने की माँग करें। वे चुनावों में अपने अनुभवों से इस नतीजे पर पहुँचे थे कि दलितों के लिये सुरक्षित सीटों का उद्देश्य निरर्थक हो गया है। इसी समय उन्होंने एक नई राजनीतिक पार्टी की जरूरत महसूस की थी, जो कुछ समय बाद उन्होंने ‘रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया’ नाम से गठित की।

शेडयूल्ड कास्ट फेडरेशन केवल दलितों के लिये दलितों की पार्टी थी। रिपब्लिकन पार्टी के गठन के बाद फेडरेशन को सिर्फ सामाजिक संघर्ष के लिये सीमित कर दिया गया था। रिपब्लिकन पार्टी का क्षेत्र व्यापक था। इससे दलित राजनीति का विकास समता और स्वतन्त्रता के उद्देश्यों को पाने के लिये दलितों के अतिरिक्त अन्य वर्गों और समुदायों तक भी करना था। पार्टी के द्वारा व्यापक उद्देश्यों के लिये दलित राजनीति में नये आयाम जुड़ने थे। सम्भवतः इसी समय समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया और डा. आंबेडकर के बीच महत्वपूर्ण पत्राचार 1956 के अंतिम महीनों में हुआ था। डा. लोहिया के दो सहयोगी विमल मेहरोत्रा और धर्मवीर गोस्वामी भी डा. आंबेडकर से मिले थे। वे चाहते थे कि दलित फेडरेशन का विलय सोशलिस्ट पार्टी में हो जाये और डा. आंबेडकर समस्त भारत को अपना नेतृत्व दें। लेकिन यह सपना पूरा नहीं हो सका, क्योंकि लोहिया गांधीवाद छोडना नहीं चाहते थे. कुछ ही दिन बाद दिसम्बर में ही डा. आंबेडकर का भी छह तारीख को निधन हो गया।

यदि डा. आंबेडकर जीवित रहते तो क्या दलित राजनीति का सोशलिस्ट पार्टी में विलय हो सकता था? यह एक विचार है और इसकी कल्पना इसलिये जरूरी हो जाती है कि लोहिया-समर्थक कुछ समाजवादी विचारक इस घटना को एक विडम्बना के रूप में या उस ‘विचार’ के रूप में देखते हैं, जो पैदा होने से पहले ही मर गया था। मुझे ऐसे लगता है कि सोशलिस्ट पार्टी में दलित फेडरेशन का विलय होना सिर्फ एक विचार था, जो शायद ही मूर्त होता। कारण बहुत स्पष्ट है, जो लोग डा. लोहिया और डा. आंबेडकर की राजनैतिक विचारधरा से थोड़ा-बहुत भी परिचित हैं, उन्हें मालूम होगा कि डा. आंबेडकर ने दलित राजनीति की बुनियाद गाँधीवाद के विरोध् पर रखी थी। लेकिन लोहिया काफी हद तक गाँधीवादी थे। विचारधारा का यह टकराव इस विलय में जरूर बाधक बनता। दूसरा कारण यह था कि वर्णव्यवस्था और जाति-प्रथा के जितने कटु और मुखर आलोचक डा. आंबेडकर थे, उतने डा. लोहिया नहीं थे। जाति-प्रथा के संदर्भ में समाजवादियों की जो आलोचना डा. आंबेडकर ने 1936 में की थी, उसका आधार समाजवादियों में 1956 में भी मौजूद था। ऐसी स्थिति में दलित राजनीति का समाजवाद में विलय दलित वर्ग के लिये आत्मघाती ही होता।

 

साठ के दशक की दलित राजनीति

दलित राजनीति के लिये 1960 का दशक अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस दशक में तीन क्रान्तिकारी घटनाएँ हुईं। पहली, भारतीय रिपब्लिकन पार्टी ने महाराष्ट्र, दिल्ली और उत्तर भारत में दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यक समुदायों में अपना क्रान्तिकारी जनाधर बनाया, और एक वैकल्पिक दलित राजनीति का उदय हुआ। 1960 में ही इसने महाराष्ट्र में एक विशाल भूमि सत्याग्रह किया, जिसके कारण महाराष्ट्र सरकार को कई लाख एकड़ भूमि देने का निर्णय लेना पड़ा। महाराष्ट्र में सफलता के बाद 1964 में पूरे देश में और खासतौर से उत्तरप्रदेश में रिपब्लिकन पार्टी ने भूमि सत्याग्रह किया, जो दो महीने तक चला। केन्द्र सरकार ने सभी राज्य सरकारों को यह आदेश दिया कि वे राज्य की बेकार पड़ी भूमि भूमिहीन किसानों को दें। रिपब्लिकन पार्टी ने ही अपने आन्दोलनों में भूमि के राष्ट्रीयकरण की माँग उठाई थी। 1962 के आम चुनावों में उत्तरप्रदेश से विधानसभा में ग्यारह तथा लोकसभा में चार रिपब्लिकन पार्टी के सदस्य चुने गये थे।

रिपब्लिकन पार्टी ने दलित वर्गों की आर्थिक समस्याओं को उठाकर दलित राजनीति को नई दिशा दी थी। दुर्भाग्य से यहाँ पर वामपंथी दलों ने इस आन्दोलन को अपना समर्थन नहीं दिया, जबकि उसकी जरूरत थी। इसका परिणाम यह हुआ कि सामन्ती ताकतों वाली काँग्रेस रिपब्लिकन पार्टी की राजनीति को कमजोर करने में सक्रिय हो गई। पार्टी के बड़े दलित नेता काँग्रेस के सत्ता-लोभ के जाल में फंस गये और फिर धीरे-धीरे उसके कई टुकड़े हो गये; अन्ततः वह काँग्रेस के लिये काम करने वाली एक पार्टी बनकर निष्प्राण हो गई। आज उसका एक गुट भारतीय जनता पार्टी के लिए काम कर रहा है.

इस दशक की दूसरी क्रान्तिकारी घटना यह है कि नक्सलवाद के रूप में रेडिकल वामपंथ का उदय हुआ, जिसने सामन्तों और भूस्वामियों की नींद हराम कर दी। यह आन्दोलन सीधे-सीधे तो दलितों से नहीं जुड़ा था, पर भूमिहीन दलितों के संघर्ष को इसने नई ताकत दी। इस आन्दोलन ने धीरे-धीरे बंगाल से बिहार और दूसरे राज्यों में भी अपना व्यापक प्रसार किया। उच्च जातीय हिंदू और व्यवस्थावादी विचारकों ने इस आन्दोलन को आतंकवाद का नाम दिया, जबकि वास्तव में इसका उदय सामन्ती आतंकवाद के प्रतिरोध में हुआ था। अतः सामन्ती सत्ताओं ने इस आन्दोलन को हर सम्भव तरीके से कुचला, पुलिस बल से भी और निजी सेनाओं के द्वारा भी। दरअसल भारत में नक्सलवाद को ठीक से समझने की कोशिश नहीं की गई और जनता के बीच इसकी गलत छवि बना दी गई।

तीसरी क्रान्तिकारी घटना 1969 में यह हुई कि काँग्रेस में इंदिरा गाँधी के खिलाफ जबरदस्त बगावत हुई। वह इंडिकेट और सिंडिकेट में विभाजित हो गई। मध्यवर्गीय और सामन्ती विचार वाले काँग्रेसियों ने अपनी अलग काँग्रेस बना ली और इंदिरा गाँधी ने दलित नेता जगजीवन राम को अध्यक्ष बनाकर असली काँग्रेस का गठन किया। दलित राजनीति के लिये यह घटना महत्वपूर्ण थी। दलितों पर इस घटना का बहुत प्रभाव पड़ा। यही वह समय था, जब दलित काँग्रेस से जुड़े। जगजीवन राम की वजह से दलितों ने काँग्रेस को अपनी पार्टी की तरह महत्व दिया और जगजीवन राम ने दलितों को काँग्रेस का वोट बैंक बनाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई। निष्कर्ष यह कि साठ के दशक में दलित राजनीति ने जहाँ रिपब्लिकन पार्टी के नेतृत्व में अपना पृथक और क्रान्तिकारी अस्तित्व बनाया, वहीं वह काँग्रेस की पिछलग्गू भी बनी और उसका पतन भी हुआ।

 

*कँवल भारती हमारे युग के एक विशिष्ट चिंतक हैं। सामाजिक परिवर्तन के विचार से गहराई से जुड़े कँवल जी का लेखन अपनी विश्लेषण शैली और वस्तुपरकता के कारण अलग से पहचाना जाता है। यह इस महत्वपूर्ण लेख की दूसरी कड़ी  है। कल तीसरी कड़ी में चर्चा करेंगे सत्तर के दशक में दलित आंदोलन में आये बदलावों की।

पहल कड़ी-  दलित राजनीति का उद्भव, विकास और पतन-1

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