प्रपंचतंत्रः छवियों का खेला!

अनिल यादव


राहुल गांधी के व्यक्तित्व में एक गंभीर चूक है. एक असंगति, एक ऐसा अधूरापन जिसने उन्हें अब तक विश्वसनीय और भरपूर राजनेता नहीं होने दिया. यह चूक उनके दैनिक जीवन में बहुत अवसरों पर दिखती होगी लेकिन हम नहीं देख सकते. जनता नेताओं की जिंदगी उतनी ही देख पाती है जितनी और जिस तरह वे दिखाना चाहते हैं. एक कायदे के राजनीतिक चिंतक मिलान कुंदेरा ने इस चलन को ‘इमेजोलॉजी’ कहा है. किस अवसर पर नेता की कौन सी छवि, जनता में किन तरीकों से भेजी में जाएगी यह करोड़ों की फीस लेने वाली एजेंसियों में बैठे छवि-प्रबंधक तय करते हैं. वे जानते हैं कि छवियां आंखों के रास्ते में दिमाग में जाने के बाद कैसे भावनाओं से नत्थी होती हैं और क्या गुल खिलाती हैं.

भाषण ही ऐसा अवसर है जब राहुल गांधी को देखा जा सकता है. वह जो बोलते हैं, उसका सारतत्व उनकी आवाज में ध्वनित नहीं होता. उनकी आवाज, मैसेज के कन्टेन्ट से पिछड़ कर अलग-थलग जा पड़ती है. तब गुस्सा, गुस्से का अभिनय करने की दयनीय कोशिश लगने लगता है. बांहें चढ़ाने की, कागज फाड़ने की, भैया कहने की टाइमिंग गलत होती है. आंखें सपोर्ट नहीं करती, छूंछी तत्परता बचती है जो सबसे पहले संदेह और चिढ़ पैदा करती है. सभी प्रतिक्रियाओं को एक शब्द ‘पप्पू’ में लपेट कर हंस लिया जाता है. यह हमारी संस्कृति है, हम हर किस्म की अक्षमता का उपहास करते हैं और हर तरह की अच्छी-बुरी शक्ति का नमन.

विज्ञापन की दुनिया में ये छवि प्रबंधक काफी तोप चीज समझे जाते हैं क्योंकि वे किसी प्रोडक्ट को लोगों के दिल या कूड़ेदान में पहुंचाने की सलाहियत रखते हैं लेकिन वे मनुष्य का फूलप्रूफ प्रबंधन नहीं कर सकते, खासतौर से उस जिए गए जीवन का जो आपके बोलने, चलने, देखने आपके हर व्यवहार से झांकता रहता है. उसकी अभिव्यक्ति इतनी सतत और स्वतःस्फूर्त होती है कि छवि प्रबंधन के कारीगरों को जिंदगी एडिट करने और मनचाहा रूप देने का मौका नहीं मिल पाता वरना वे यह भी कर दिखाते. दुनिया में गिनती के चंद अमीरों में शुमार, मुकेश अंबानी ने कुछ दिन पहले अपने दो बेटों और एक बेटी को कारोबार में लांच करने के समय बेहतरीन छवि प्रबंधकों और व्यक्तित्वों (अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान) को किराए पर लगाया था लेकिन छिपाए नहीं छिपा कि दुनिया में उपलब्ध सर्वोत्तम की मानसिक खुराक पर पले ये बच्चे औसत से कमतर हैं.

व्यक्तित्व की इस तरह की चूक के कारणों में सबसे प्रमुख है ट्रॉमा या सदमा जो मन को इस तरह क्षतिग्रस्त कर देता है कि अभिव्यक्ति का संतुलन बिगड़ जाता है. राहुल गांधी ने दादी और पिता की हत्या के रूप में दो ऐसे सदमें झेले हैं. वे चाहते तो सदमे के कुप्रभावों के आगे समर्पण करते हुए, बड़े घर के बेटों की तरह पिछली यूपीए सरकार में मनमोहन सिंह को हटने को कहकर, कुछ दिन का प्रधानमंत्री बनने का शौक पूरा कर सकते थे. हमारे लोकतंत्र में यह बिल्कुल संभव है लेकिन यह ऐसा ही होता जैसे बच्चे खड़ी कार के स्टीयरिंग को इधर उधर घुमा कर ड्राइविंग का रोमांच जी लेते हैं लेकिन उन्होंने अपनी कमियों से लड़ने का फैसला किया और उसका असर सालों बाद अब दिखाई दे रहा है.

राहुल गांधी ने अविश्वास प्रस्ताव के दौरान संसद में प्रधानमंत्री मोदी को जो गले लगाया उसका हासिल यह रहा कि करोड़ो खर्च कर छवि-प्रबंधकों से बनवाई गई छप्पन इंच के सीने वाले, परमशक्तिशाली प्रशासक और स्टेटसमैन की छवि एक पल में ध्वस्त हो गई. अंधे भी जान गए कि मोदी एक भयभीत मनुष्य हैं जिनका  किसी पर विश्वास नहीं है. इसके पहले भी एक मौके पर यह दिखा था, त्रिपुरा की सरकार शपथ ले रही थी तब एक कार्यकर्ता ने मोदी को गले लगा लिया था, उनकी आंखे हैरानी और भय से बाहर लटक आई थीं. आज की सत्ताधारी भाजपा के पास मोदी की छवि के अलावा और कुछ नहीं है, सभासद का चुनाव भी मोदी की फोटो के बिना नहीं लड़ा जाता, इसलिए कहा जाना चाहिए कि राहुल ने सही समय पर सही अदा से खेला है. ध्यान दिया जाना चाहिए कि इस काम में आवाज का इस्तेमाल नहीं हुआ. सिर्फ बाहों और आंखों से काम लिया गया.

इसका मतलब यह न निकाला जाए कि राहुल गांधी ने भारत के उद्धार की क्षमता हासिल कर ली है, बस उन्होंने अपने व्यक्तित्व की कमियों पर विजय पाई है जिससे उनकी निजी जिंदगी बेहतर होगी. आंख मारना उस आत्मविश्वास का प्रतीक है जो उनमें पहले नहीं था. गले लगाने पर पिनपिनाने वालों को जानना चाहिए कि यह राजनीति के अखाड़े का आदिकालीन दांव है. याद कीजिए सम्राट धृतराष्ट्र ने महाभारत में सब कुछ गंवाने के बाद भीम को गले लगाना चाहा था जिसे नेता प्रतिपक्ष कृष्ण ने विफल कर दिया था.

 



 

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