अख़बारनामा: अमर उजाला अटकलों की सौगात तो 84 का काँटा लाया नभाटा

अमित शाह का एक मामले में बरी होना संदेह से परे नहीं है लेकिन उसपर नेता बयान नहीं देता तो वह खबर नहीं बनती है

संजय कुमार सिंह

आज के अखबारों ने पहले पेज की पहली खबर यानी लीड को लेकर खूब प्रयोग किए हैं। इनमें दो खबरें दिलचस्प और चर्चा करने लायक हैं। नवभारत टाइम्स की लीड है, “शीला के ताज में ’84 का कांटा”। वैसे तो यह खबर दूसरे अखबारों में भी प्रमुखता से है पर नवभारत टाइम्स का शीर्षक खास है। उपशीर्षक है, “टाइटलर को पहली कतार में बिठाने पर पार्टियों ने घेरा”। और इसके साथ प्रमुखता से जगदीश टाइटलर का भी पक्ष है – “जब कोर्ट ने फैसला सुना दिया तो कोई क्या कह सकता है। मेरे खिलाफ कोई केस या एफआईआर नहीं है तो फिर आरोप क्यों।” इसके साथ कांग्रेस की नवनियुक्त प्रदेश अध्यक्ष शीला दीक्षित का बयान भी है। उन्होंने कहा है, “टाइटलर कांग्रेसी हैं, उन्हें न्योता दिया गया था …. उनके आने से हमें दिक्कत नहीं है”। अगर आप दिल्ली में कांग्रेस की राजनीति को समझते हैं तो मानेंगे कि टाइटलर को प्रदेश अध्यक्ष नहीं बनाना कांग्रेस का पश्चाताप ही है।

अखबार ने इसके साथ अंदर, “टाइटलर पर आरोपों की स्थिति” खबर होने की सूचना भी दी है। अंदर की खबर का शीर्षक है, “सीबीआई ने तीन बार टाइटलर पर दाखिल की क्लोजर रिपोर्ट”। खबर के मुताबिक निचली अदालत ने अभी तक क्लोजर रिपोर्ट स्वीकार नहीं की है और 31 जनवरी तक स्टेटस रिपोर्ट दाखिल करने के लिए कहा है। बताने की जरूरत नहीं है कि कई राजनीतिकों के खिलाफ मामलों की अपील नहीं होती, जांच नहीं होती और तो और सीबीआई के जज की मौत के संदिग्ध मामले में तमाम शंकाओं तथा परिस्थितजन्य साक्ष्य होने के बावजूद मामले की जांच नहीं हो रही है। उसपर मीडिया खुद तो खबरें नहीं ही करता है जो करता है उसकी खबर छापने से भी परहेज करता है। यही नहीं, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का एक मामले में बरी होना संदेह से परे नहीं है लेकिन उसपर नेता बयान नहीं देता तो वह खबर नहीं बनती है। क्योंकि इससे वोट बैंक बनाए और बिगाड़े नहीं जा सकते हैं।

मौका शीला दीक्षित के प्रदेश अध्यक्ष पद संभालने का था और अखबार ने लिखा है कि शीला दीक्षित के कार्यक्रम में टाइटलर की मौजूदगी की खबर जैसे ही वायरल हुई, आम आदमी पार्टी, अकाली और बीजेपी ने हमले शुरू कर दिए। बाकी विपक्षी नेताओं ने जो कुछ कहा वह इस आयोजन का हिस्सा नहीं था और कुछ नया भी नहीं था। 1984 से चला आ रहा है। और अखबारों ने तब इस मामले में इतनी गंभीरता दिखाई होती और जगदीश टाइटलर वाकई दोषी होते तो उन्हें सजा हुई होती या मामला खत्म हो गया होता। पर अब इतने समय बाद किसी भी मौके पर इस मामले को उठा देना अखबार में जगह भरने के अलावा कुछ नहीं है। खास कर जिसने बुलाया और जो आया उसका स्पष्टीकरण दोनों है तो। मैं नहीं कहता यह खबर नहीं है पर इसमें लीड बनाने जैसी कौन सी बात है? इसके अलावा कि 84 का मामला अभी तक जिन्दा है। और इसे मीडिया ने ही जिन्दा रखा है।

दूसरी अजीबोगरीब खबर अमर उजाला की है। अमर उजाला की आज की लीड खबर का शीर्षक है, “अंतरिम बजट में हर वर्ग को मिलेगी सौगात”। यह शीर्षक तब है जब वित्त मंत्री बीमार हैं। इलाज के लिए विदेश गए हुए हैं और पिछले पांच साल में लंबे समय तक बीमार और छुट्टी पर रहे हैं। कानून के अच्छे जानकार हैं पर अर्थशास्त्री नहीं हैं और अर्थव्यवस्था के लिए अपने कार्यकाल में जो किया है उसके अनुकूल परिणाम तो नहीं ही आए हैं। नोटबंदी और जीएसटी को जिस ढंग से लागू किया गया, नियम इतनी बार बदले गए, इतने सुधार और संशोधन हुए फिर भी मंत्री की सक्षमता पर उंगली नहीं उठाना तो समझ में आता है। लेकिन ऐसी हालत में बजट को लेकर अटकल का क्या मतलब है?

अखबार ने लिखा है, “लोकसभा चुनाव से ठीक पहले पेश होने जा रहे अंतरिम बजट में केंद्र सरकार सभी वर्गों को साधने के लिए सौगात दे सकती है। सरकार चाहती है कि चुनावी बजट में रोजगार, किसान, विदेश नीति, निवेश और व्यापार के मोर्चे पर सकारात्मक संदेश दिया जाए। इसके लिए किसानों के खाते में सीधे राशि ट्रांसफर, आयकर छूट का दायरा बढ़ाना, मकान खरीदने में जीएसटी में छूट और छोटे व्यापारियों को सस्ते कर्ज जैसे कदम उठाए जा सकते हैं। इसके लिए सरकार और संगठन के स्तर पर लगातार मंथन हो रहा है।” कहने की जरूरत नहीं है कि इसमें मंथन हो रहा है – यही खबर है। किन विषयों पर मंथन हो रहा है उससे आम पाठक को क्या मतलब और गंभीर पाठक को क्या बताना।

आगे खबर है, “सरकार का एक वर्ग चाहता है कि राजकोषीय घाटा जीडीपी का 3.3 फीसदी रखने के लिए आर्थिक अनुशासन जरूरी है। दूसरी ओर संगठन और सरकार का दूसरा वर्ग जनता को सीधे राहत देने के पक्ष में है। हालिया विधानसभा चुनाव के नीतजों ने भाजपा रणनीतिकारों के माथे पर बल ला दिया है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सत्ता जाने का बड़ा कारण कांग्रेस द्वारा की गई किसानों की कर्ज माफी की घोषणा को माना जा रहा है। ऐसे में केंद्र सरकार का फोकस उन करोड़ों किसानों पर है जो फसलों की कम कीमत मिलने से नाराज हैं।” मुझे नहीं लगता इसमें कुछ नया है या ऐसा जो आप पहले से नहीं जानते हैं।

कौन सी सरकार नहीं चाहेगी कि जाने से पहले कुछ लॉली पॉप बांट दिए जाए जिससे वोट मिले। खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कर्ज माफी को लॉली पॉप कह चुके हैं और अखबार बता रहा है कि सरकार भी अब वही करने जा रही है पर ऐसे जैसे बहुत गंभीर जासूसी के बाद खबर मिली हो। अखबार यह नहीं बता रहा है कि इसके लिए सरकार के पास पैसे नहीं हैं या जुगाड़ हो गए हैं या सिर्फ घोषणा ही करके अगली सरकार के लिए बोझ छोड़ देने का इरादा है। अटकलों के सहारे पन्ना भर दिया गया है बस। अखबार ने भाजपा के आर्थिक मामलों के प्रवक्ता गोपाल कृष्ण अग्रवाल से जरूर बात की है। वे कहते हैं, हमारे कुछ आर्थिक जानकार राजकोषीय घाटे पर सतर्कता बरतने को कहते हैं। हालांकि इनमें ज्यादातर विदेशी थिंक टैंक हैं। जबकि मेरा (अग्रवाल का) मानना है कि सरकार को विस्तारवादी आर्थिक नीति फायदा पहुंचाएगी। उन्होंने कहा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इससे वाकिफ हैं, हालांकि अभी इस पर अभी अंतिम फैसला नहीं हुआ है। बताइए इससे आपको कोई खबर मिली?


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। जनसत्ता में रहते हुए लंबे समय तक सबकी ख़बर लेते रहे और सबको ख़बर देते रहे। )

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