प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कल देश के 10 राज्यों के 54 डीएम के साथ बैठक की। इससे पहले 18 मई को नौ राज्यों के 46 जिलों के जिलाधिकारियों के साथ बैठक हुई थी। प्रधानमंत्री के साथ बैठक निश्चित रूप से बड़ी खबर होती है और मकसद चाहे प्रचार हो, अखबार वाले पूरी उदारता बरतते हैं। लेकिन आज मामला पहले की तरह नहीं है। आप जानते हैं कि मुख्यमंत्रियों की बैठक में दिल्ली के मुख्यमंत्री ने अपना भाषण लाइव कर दिया था। नतीजा यह हुआ कि अरविन्द केजरीवाल की ऑक्सीजन की मांग और फिर उसपर प्रधानमंत्री का ‘प्रोटोकोल होता है‘ वाला जवाब गंभीर हो गया और देश भर में ऑक्सीजन की कमी से होने वाली मौतों के कारण सरकार की किरकिरी होती रही। भाजपा ने अपने तरीके से मुकाबले की कोशिश की पर जो नुकसान होना था वह हुआ ही। दूसरी बैठक को झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने ‘मन की बात‘ कहकर तंज कसा था। तब भी सरकार की किरकिरी हुई थी।
दैनिक जागरण के एक शीर्षक के अनुसार, “ममता बनर्जी ने पीएम मोदी की बैठक को राजनीतिक अखाड़ा बनाया, 24 परगना के डीएम को बोलने से रोका।” ममता बनर्जी ने सही किया या गलत वह अलग मुद्दा है पर मुख्य बात यह है कि कल ऐसा तीसरी बार हुआ और अब तक जो हुआ उसमें सबसे ज्यादा या सख्त है। मेरे ख्याल से यही खबर है। पर ऐसी खबर सिर्फ़ टेलीग्राफ में है। ममता बनर्जी के कड़े एतराज से इस या ऐसे बैठक की पोल भले खुल गई। खबर वैसे नहीं छपी है। न ही सोनिया गांधी के पत्र को पहले पन्ने पर जगह दी गई है। इसी तरह, 100 से ज्यादा रिटायर नौकरशाहों की चिट्ठी को भी आज अखबारों ने महत्व नहीं दिया है। बहुत कम समय में लगातार तीसरी बार होने से विरोधियों की बातों में दम लग रहा है और अखबारों में पीएम मोदी के कारण खबर को जो प्रमुखता मिलती थी या मीटिंग का जो प्रचार होता था वह नहीं हुआ है। पर ऐसा नहीं है कि स्थिति पूरी तरह बदल गई है। मैंने पहले बताया है कि अखबारों में आरोप नहीं छपते थे, जवाब ज्यादा प्रमुखता से छपे हैं। हर संकट में सामने कर दिए जाने वाले रविशंकर प्रसाद अपने तर्कों और जवाब के साथ जितनी प्रमुखता से नजर आते थे अब नहीं आते हैं। यही नहीं, जो अखबार मन की बात को पहले पन्ने पर छाप देते थे वो मुख्यमंत्रियों और डीएम के साथ बैठक की खबर पहले पन्ने पर न छापें यह गौरतलब है।
आज इंडियन एक्सप्रेस ने कथित मीटिंग की खबर को लीड बनाया है, हिन्दुस्तान टाइम्स में यह पीएम की फोटो के बिना तीन कॉलम में है और शीर्षक भी ऐसा नहीं है कि बैठक का पता चले। शीर्षक है, “वायरस का स्वरूप बदलता रहता है : प्रधानमंत्री ने जोर देकर कहा सतर्कता कम न हो।” टाइम्स ऑफ इंडिया में यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है। उल्टे सिंगल कॉलम की खबर से बताया गया है कि प्रधानमंत्री की बैठक के बाद ममता-भाजपा भिड़े। यहीं बताया गया है कि मुख्य खबर अंदर किस पन्ने पर है। द हिन्दू में इस खबर का शीर्षक है, “मोदी की बैठक में मुख्यमंत्रियों को अपमानित किया गया : ममता” उपशीर्षक है, “किसी को बोलने नहीं दिया गया।” इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर चार कॉलम की लीड है। मुख्य खबर दो कॉलम में दूसरे शीर्षक के साथ है दो कॉलम में ममता बनर्जी की फोटो है। इसके नीचे शीर्षक है, “प्रधानमंत्री असुरक्षित क्यों हैं, मुख्यमंत्रियों को बोलने नहीं दिया, हम कठपुतली नहीं हैं : ममता।” बेशक यहां ममता बनर्जी को समान महत्व मिला है और तस्वीर तो प्रधानमंत्री की सिंगल कॉलम में है ममता बनर्जी की दो कॉलम में है। मुझे लगता है, लगातार गड़बड़ होने का असर हुआ है और भले ही प्रचारक काम पर लगे हैं और मामला कुछ दिन में संभल जाएगा लेकिन इस खबर से पता चला कि प्रधानमंत्री अब वह सब कह-कर रहे हैं जो उन्हें पिछले साल लॉक डाउन के दौरान करना चाहिए था। द टेलीग्राफ ने बैठक की खबर की बजाय बैठक के बाद जो कुछ हुआ और ममता बनर्जी ने जो कहा उसे प्रमुखता से छापा है।
यही नहीं, प्रधानमंत्री ने युवाओं और बच्चों के लिए भी चिन्ता जताई। यही बात दिल्ली के मुख्यमंत्री ने सिंगापुर से बीमारी आने के रूप में कही थी। अब प्रधानमंत्री वही बात कर रहे हैं भले सिंगापुर का नाम नहीं लिया। साफ है कि केजरीवाल ने कुछ गलत नहीं बोला है पर सरकार और मीडिया की राजनीति उन्हें खलनायक बनाए रहती है। अरविन्द केजरीवाल के सतर्क करने पर या वैसी ही किसी और की सूचना पर ही प्रधानमंत्री ने जिलाधिकारियों से कहा होगा, “सबसे पहला काम आप कर सकते हैं कि अपने जिले में युवाओं बच्चों में संक्रमण और उसकी गंभीरता के आंकड़े व्यवस्थित करें। अलग से उसपर रेगुलर आप एनालिसिस कीजिए।” अपनी सूचना से प्रधानमंत्री को सतर्क करने का अरविन्द केजरीवाल का मकसद इससे अलग क्या हो सकता है? मैंने कल लिखा ही था कि सरकार या प्रधानमंत्री को सतर्क करने का कोई दूसरा तरीका होता तब कहा जा सकता था कि केजरीवाल ने सार्वजनिक रूप से क्यों कहा? इस खबर से स्पष्ट है कि जयशंकर की डिप्लोमैसी की खबर अरविन्द केजरीवाल से राजनीतिक निपटारे के लिए ज्यादा थी।
आप जानते हैं कि कोरोना के कारण देश भर में जिस पैमाने पर लोगों की मौत हुई है उसमें कई बच्चे अनाथ हो गए हैं। कांग्रेस नेता सोनिया गांधी ने इस संबंध में प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर यह सुनिश्चित करने के लिए कहा है कि अनाथ हो चुके बच्चों की स्कूली शिक्षा निशुल्क सुनिश्चित की जाए। यह बहुत ही जायज और जरूरी मांग है। अव्वल तो सरकार को यह सब खुद सोचना चाहिए और अभी तक ऐसी घोषणा कर देनी चाहिए थी। खास कर तब जब देश भर में हजारों एनजीओ बंद करवा दिए गए हैं और सीआरएस का पैसा पीएम केयर्स में ले लिया गया है। पर सरकार की ओर से ऐसी किसी योजना की घोषणा नहीं है और सोनिया गांधी ने मांग की तो खबर पहले पन्ने पर जगह नहीं बना पाई। द टेलीग्राफ ने इस खबर को पहले पन्ने पर छापा है। बात सिर्फ खबर छापने और सुविधाएं देने की नहीं है, अखबारों का काम है समस्याएं बताना, उनका हल सुझाना पर अखबार सरकारी प्रचार के अलावा अमूमन कुछ नहीं कर रहे हैं। कुछेक अपवाद हैं।
द टेलीग्राफ के पहले पन्ने पर दूसरी खबर टीकों की कमी से संबंधित है। आप जानते हैं कि कई देश जब अपनी आबादी के बड़े हिस्से का टीकाकरण कर चुके हैं तब हमारे यहां टीकों की कमी चल रही है और इतनी बड़ी आबादी के लिए टीका लगाने वालों के साथ जगह की कमी हो सकती थी पर टीके की ही कमी हो गई है। इस मामले में सरकार पर आरोप और उसका बचाव दोनों है पर इस कमी से निपटने के लिए केंद्र सरकार की ओर से कुछ ठोस किया जा रहा है उसके संकेत नहीं हैं। उल्टे सरकार समर्थक ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे इतने बड़े देश में समय तो लगेगा ही, जल्दी क्या है वाला अंदाज है। आज एक पत्रकार मित्र का वीडियो आया है जिसमें बताया गया है कि टीकों का निर्यात क्यों किया गया और कमी क्यों है। जो टीकों के बिना मर गए उन्हें कैसे बताएंगे कि उनका मरना जायज है? पर प्रचारक बता रहे हैं। आपके पास यही आजादी है कि आप न सुनें। यही प्रचारक कल केजरीवाल को प्रचार का भूखा बता रहे थे। टेलीग्राफ की खबर के अनुसार टीकों का उत्पादन सरकार की भविष्यवाणी के मुकाबले 27 प्रतिशत कम होगा। इसका कारण चाहे जितना वाजिब हो पर इस कमी से जो मौतें होंगी या तकलीफ होगी क्या वह सामान्य है?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।