राजेश कुमार
वित्त मंत्री अरूण जेटली ने 24 अप्रैल को अपने फेसबुक पर यह टिप्पणी की। राज्यसभा अध्यक्ष वेंकैया नायडू 23 अप्रैल को ही ‘पर्याप्त आधारों की कमी’ की बिना पर महाभियोग का नोटिस नामंजूर कर चुके थे। लिहाजा, फेसबुक पोस्ट में केवल ‘मुख्य न्यायाधीश और उच्चतम न्यायपालिका के अन्य जजों को डराने की मंशा’ का उल्लेख ही नयी बात थी। लेकिन किन जजों को? और किसलिये? क्योकि डराना अपने आप में तो कोई साध्य नहीं हो सकता, डराने का मकसद तो कोई काम कराना या कोई काम करने से रोकना ही होना चाहिये। विद्वान वित्त मंत्री ने इन सवालों को अनुत्तरित छोड दिया है।
नोटिस नामंजूर करने के राज्यसभा अध्यक्ष के 10 पेज के विस्तृत आदेश से नये प्रश्न भले पैदा हुये हों, महाभियोग की प्रक्रिया अब थम चुकी है, कम-से-कम तब तक जब तक कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियां इस आदेश को अदालत में चुनौती नहीं देती हैं और वहां इसे खारिज नहीं कर दिया जाता। पर इस आदेश के आर-पार ‘मास्टर आॅफ रोस्टर’ के तौर पर विशेषाधिकार के दुरूपयोग, सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति और न्यायपालिका के दूसरे कामकाज में कार्यपालिका की दखलंदाजी पर आवाजों-अपीलों का सिलसिला बदस्तूर जारी है।
याद कीजिये, काॅलेजियम के चार वरिष्ठ जजों -जस्टिस जे. चेलामेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन लोकुर और जस्टिस जोसफ कुरियन -ने जनवरी 2018 में एक प्रेस कांफ्रेंस कर ‘देश के लिये दूरगामी महत्व के मामले गैर-पारदर्शी तरीके से चुनिंदा बेंचों को सौंपने’ और ‘लोकतंत्र पर खतरे’ तक की शिकायतें की थी। उसके दो-तीन दिन बाद ही कुछ पूर्व जजों ने सी.जे.आई. से ‘मास्टर आॅफ रोस्टर’ होने के अधिकार के दुरूपयोग पर रोक सुनिश्चित करने की अपील की थी। उसी सी.जे.आई. से जो स्वयं ‘मास्टर आॅफ रोस्टर’ हैं और इस अधिकार का कोई दुरूपयोग हो रहा है, तो इसकी सीधी जवाबदेही उन्हीं की है।
अभी पिछले महीने सी.जे.आई. को पत्र लिखकर जस्टिस चेलामेश्वर ने सीधे केन्द्र सरकार की एक शिकायत पर अपने एक अधीनस्थ जज के खिलाफ जांच शुरू कर देने के कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के कदम पर गंभीर एतराज जताया था। इसके बाद शायद इसी महीने के शुरू में जस्टिस कुरियन जोसफ ने उन्हें मशहूर वकील इन्दु मल्होत्रा और उत्तराखंड के मुख्य न्यायाधीष जस्टिस के.एम. जोसफ को सुप्रीम कोर्ट का जज नियुक्त करने की काॅलेजियम की अनुशंसा तीन महीने से ठंढे बस्ते में डाले बैठे रहने के केन्द्र सरकार के रूख पर कोई पहल लेने की अपील करते हुये चिट्ठी लिखी थी। यही नहीं उच्चतम अदालत के भविष्य और सांस्थानिक मुद्दों पर चर्चा के लिये न्यायाधीशों की पूर्ण बैठक बुलाने की अपील जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस मदन लोकुर ने सी.जे.आई. से अभी 22 अप्रैल को की है, 71 सदस्यों के हस्ताक्षर से राज्यसभा में जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग का नोटिस पेश किये जाने के दो दिन बाद। याद यह भी रखना चाहिये कि कांग्रेस की अगुवाई में सात दलों के महाभियोग प्रस्ताव की नोटिस में इन सवालों की गूंजें हैं और जस्टिस दीपक मिश्रा पर पांचवां आरोप तो ‘मनमाफिक फैसले हासिल करने के लिये मास्टर आॅफ रोस्टर के तौर पर अपने अधिकारों का इस्तेमाल कर दूरगामी महत्व के और संवेदनशील मामले कुछ पसंदीदा बेंचों को सौंपने’ के मुतल्लिक ही है।
बहरहाल, स्मृति पर इस जोर का, और पिछली तमाम चीजें याद दिलाने का सबब यह कि अगर कार्यपालिका की दखलंदाजी, बेंचों को अहम मामलों के आवंटन में वरिष्ठता के बजाय पसंद को तरजीह दिये जाने, एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्थान के तौर पर सुप्रीम कोर्ट की दीर्घजीविता को लेकर सबसे सीनियर जजों के इतने सारे सवाल हैं, और इन सवालों पर सी.जे.आई. की इतनी गहन चुप्पी है, तो मकसद उच्चतम न्यायपालिका के सभी जजों को डराने का तो नहीं हो सकता। तब क्या वित्त मंत्री का इशारा जजों के ‘हमारे’ और ‘उनके’ जैसे किसी लीग की ओर है और क्या फेसबुक पोस्ट में ‘मुख्य न्यायाधीश और उच्चतम न्यायपालिका के अन्य जज’ कहकर अनजाने ही उन्होंने ‘मुख्य न्यायाधीस और कथित तौर पर उनके पसंदीदा जजों’ की कोई ब्रैकेटिंग कर दी है? क्या उत्तराखंड की पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार को बर्खास्त करने के राज्यपाल के आदेश को उलट देनेवाले जस्टिस के.एम. जोसफ को सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त करने की काॅलेजियम की अनुशंसा पर तीन महीने की धूल झाड़कर आखिरकार उनका नाम लौटा देना और परम्परा से उलट, सरकार के इस कदम पर तत्काल काॅलेजियम की बैठक नहीं बुलाया जाना इसी ‘ब्रैकेटिंग’ को पुख्ता करना है? प्रसंगवश खबर यह है कि जस्टिस के.एम.जोसफ का नाम लौटाने के सरकार के फैसले से 26 अप्रैल की सुबह ही अवगत करा दिये जाने के बावजूद बैठक बुलाना तो दूर, सी.जे.आई. ने रात तक काॅलेजियम को इसकी जानकारी भी नहीं दी थी।
तो वित्त मंत्री की फेसबुक पोस्ट ‘डराने के जिस मकसद’ को लेकर चुप है, घटनाक्रमों ने उसे बेपर्द कर दिया है और साफ है कि सी.जे.आई. के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव की नोटिस स्वीकार किया जाना ‘हमारे और उनके के निर्दिष्ट लीग’ के द्वन्द्व में केन्द्र की मौजूदा सरकार के हक में नहीं होता। गजब यह कि अध्यक्ष वेंकैया नायडू ने इत्तेफ़ाकन वही किया जो सरकार के हक में था, वैसे ही जैसे अभी महीने भर पहले लोकसभा में स्पीकर सुमित्रा महाजन ने किया था, जबकि दोनों के पास विकल्प थे और नजीरें भी। इसी महीने सम्पन्न बजट सत्र के दूसरे चरण में 16 मार्च से करीब-करीब रोज ही दोपहर 12.00 बजे निचले सदन के वेल में, मुख्यतः अन्नाद्रमुक सदस्यों और कभी-कभार टी.आर.एस. जैसे दलों का जमावडा दिखता, ‘वी वांट जस्टिस’ जैसे नारे गूंजते और अविश्वास प्रस्ताव के छह-छह नोटिस विचारार्थ पड़े होने के बावजूद वह ‘सदन में आर्डर नहीं होने’ के हवाले देकर मिनट-दो मिनट में सदन की कार्यवाही स्थगित कर देती रहीं। सदन में व्यवस्था बहाल करने की खातिर छोटी-बडी अवधि के लिये सदस्यों के निलम्बन के दूसरे उदाहरणों को छोड़ भी दें, तो गाय की रक्षा के नाम पर देश भर में बढती हिंसा और दलितो-अल्पसंख्यकों पर हमलों पर विपक्ष के विरोध प्रदर्शनों से निपटने के लिये खुद महाजन ने कांग्रेस के छह सदस्यों को सदन से निलम्बित कर दिया था। इससे पहले अगस्त 2015 में तो, वह भगोडे़ ललित मोदी को पुर्तगाल का वीसा दिलवाने में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की भूमिका पर विरोध जता रहे 25 कांग्रेसी सांसदों को 5 दिन के लिये सदन से बाहर कर चुकी थीं, लेकिन अविश्वास प्रस्ताव की नोटिसों पर विचार के लिये उन्होंने यही कदम उठाना मुनासिब नहीं समझा।
महाभियोग प्रस्तावों पर संसद के पिछले सलूक, राज्यसभा अध्यक्ष को भी रास्ता दूसरा ही सुझा रहे थे। भारत के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग की नोटिस का यह पहला मामला जरूर था, लेकिन उच्च और उच्चतम न्यायालयों के जजों पर महाभियोग के जो छह मामले पिछले करीब 50 साल में संसद के किसी भी सदन में आये, उनमें से दो ही मामले ऐसे थे जो जज की किन्हीं टिप्पणी विशेष ोको लेकर पेश किये गये थे और जिनमें पीठासीन अधिकारियों ने कोई जांच समिति नहीं गठित की थी। 1970 में सुप्रीम कोर्ट के जज जे.सी. शाह के खिलाफ लोकसभा में महाभियोग का नोटिस अदालत में किसी मामले की सुनवाई के दौरान एक पूर्व सरकारी कर्मचारी ओ.पी.गुप्ता पर की गई उनकी एक टिप्पणी को लेकर चले अभियान के बाद दिया गया था और स्पीकर जी.एस. ढिल्लन ने तब के सी.जे.आई. मोहम्मद हिदायतुल्ला के इसरार के बाद इसे ‘छिछला और अगंभीर’ बताते हुए नामंजूर कर दिया था। गुजरात उच्च न्यायालय के जस्टिस जे.बी. परदीवाला के खिलाफ राज्यसभा में महाभियोग का नोटिस 2015 में पाटीदार आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल के मामले पर एक फैसले में आरक्षण के विरुद्ध उनकी टिप्पणी को लेकर दिया गया था, लेकिन बाद में राज्य सरकार के एक आवेदन पर जज ने फैसले से आपत्तिजनक टिप्पणियां हटा दी और सांसदों ने उनके महाभियोग की प्रक्रिया आगे ले जाने में दिलचस्पी नहीं ली।
इन दो प्रकरणों के अलावा, लोकसभा में 1991 में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस वी. रामास्वामी के खिलाफ और राज्यसभा में 2011 में कोलकाता उच्च न्यायालय के जस्टिस सौमित्र सेन, उसी साल सिक्किम उच्च न्यायालय के जस्टिस पी.डी. दिनाकरन और 2015 में मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के जस्टिस एच.के. गंगेले के खिलाफ महाभियोग के पेश चारो मामलो में – स्पीकर/अध्यक्ष ने नोटिस मंजूर कर आरोपों की जांच के लिये समिति का गठन किया। न्यायाधीशों के आचरण की जांच से संबंधित कानून का पीठासीन अधिकारियों के लिये प्रावधान भी यही है। अकारण नहीं है कि जाने-माने न्यायविद फली एस. नरीमन ने अध्यक्ष वेंकैया नायडू के फैसले का बचाव तो किया, लेकिन इस सवाल पर कि क्या आरोपों की गंभीरता का फैसला एक जांच समिति को नहीं करना चाहिये था, उन्होंने कहा कि जस्टिस दीपक मिश्रा का चार-पांच साल का कार्यकाल बचा होता तो यह दलील दी जा सकती थी, लेकिन वह तो अक्टूबर-नवम्बर में सेवानिवृत हो रहे हैं।
तब क्या नोटिस दिये जाने के तीन दिन के भीतर इसे नामंजूर करने की हड़बड़ी का भी सबब यही था?
कारण चाहे जो हो, भविष्य की सरकारें अब दो मोर्चों पर निश्चिन्त रह सकती हैं – एक, कि आम चुनावों के बाद एक बार लोकसभा में बहुमत साबित कर लेने पर उसे अपने किसी भी और कितने भी सदस्यों और साथी दलों की परवाह करने की कोई जरूरत या अविश्वास प्रस्ताव का कोई डर नहीं होगा, क्योंकि सदन में ‘आर्डर’ नहीं होने की आड़ सहज सुलभ रहती है और रहेगी। और दूसरे, कि उच्चतम न्यायपालिका का भी कोई सदस्य वित्तीय या अन्य किसी भी तरह की अनीति और भ्रष्ट आचरण के आरोपों पर महाभियोग के जोख़िम से बरी रहेगा, बशर्ते कि सत्ता उसे माफिक पा रही हो।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यूनीवार्ता के लिए वर्षों इन्होंने संसद को कवर किया है।