प्रपंचतंत्र : कानून की दुनिया के केसर और कस्तूरी

Courtesy India Today

अनिल यादव

इन दिनों के राम जेठमलानी को देख कर किसी ऐसे कछुए की याद आती है जिसकी गर्दन की झुर्रियों में बीता समय नहीं कानून की धारायें और अन्याय की अनसुनी कहानियां छिपी हुई हों. कछुए बहुत दिन जीते और सक्रिय रहते हैं. इस उम्र में आदमी सजग होने लगता है कि उसे मरने के बाद कैसे याद किया जाएगा, लेकिन वे अब भी कानून का इस्तेमाल वैसे ही करते हैं जैसे कोई भाड़े का ग्लैमरस शूटर असलहे का करता है. वे “सप्तर्षि मंडल” का सबसे सीनियर सितारा हैं जो पिछले पांच सालों से अफीमची-बलात्कारी संत आसाराम बापू को बेगुनाह साबित करने में लगा हुआ था.

हां, कानून का भी आसमान होता है जिसमें कई अनगिनत घलुआ तारे और चमकदार सितारे होते हैं. नक्षत्र होते हैं, भूलभुलैया सी आकाशगंगायें होती हैं और ब्लैकहोल होते हैं जिसमे लाखों साधारण और गरीब मुवक्किल बिला जाते हैं. यहां चमकदार सितारों का जिक्र ख़ास वजह से किया जा रहा है क्योंकि कानून पढ़ने वाले ज्यादातर युवा इन्हीं जैसा बनना चाहते हैं. यह कहीं पढ़ाया नहीं जाता लेकिन वे जानते हैं कि असल चीज़ कानून की मरोड़ है जिसके जरिये अन्याय को न्याय में और न्याय को मुसाफिर के मरने के बाद आने वाली रेलगाड़ी में और अंततः बहुत सारे रुपयों में बदला जा सकता है. सप्तर्षि मंडल के बाकी सितारों के नाम हैं – सुब्रमण्यम स्वामी, राजू रामचंद्रन, सिद्धार्थ लूथरा, केटीएस तुलसी, सलमान खुर्शीद और यूयू ललित. इनके सम्मुख जोधपुर के दो गुमनाम कस्बाई तारे थे पीके वर्मा और पीसी सोलंकी जिन्होंने इन्हें आभाहीन कर दिया. यह जानना दिलचस्प होगा कि इन बड़े वकीलों ने मध्ययुग के किसी औसत राजा से कहीं अधिक मालदार अपने क्लाइंट आसाराम की बेगुनाही के लिये कैसे-कैसे जलवे दिखाये.

जेठमलानी अपनी उम्र जितनी ही पुरानी बलात्कार की परिभाषा से चिपके हुए थे जिसमे माना जाता था कि पेनेट्रेशन के बगैर बलात्कार संभव नहीं है. तब उन्हें गुमनाम तारों ने पोक्सो एक्ट (POCSO) की याद दिलायी जिसमें बलात्कार की परिभाषा कहीं अधिक व्यापक हो चुकी है. उन्होंने या तो पोक्सो पढ़ा नहीं था या धांधली कर रहे थे. उन्होंने सवाल उठाया कि पीड़िता का चिकित्सकीय परीक्षण एफआईआर दर्ज होने के पहले ही कर लिया था इसलिये बलात्कार संदिग्ध है. उन्हें फिर से पोक्सो की धारा 27 की याद दिलायी गयी जिसके मुताबिक ऐसा होना बिल्कुल संभव है और कानूनी तौर पर जायज़ भी.

सुब्रमण्यम स्वामी ने अपनी आदत के मुताबिक, अदालत को यह कह कर धौंस में लेने कि कोशिश की कि देश के मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा जोधपुर के हुआ करते थे जिन्हें उन्होंने 90 के दशक में कानून मंत्री रहते हुए सुप्रीमकोर्ट का जज बनाने की सिफारिश की थी. पता नहीं वह जज को लालच दे रहे थे या जज से ऊंची अपनी कुर्सी दिखा रहे थे. उन्हें याद दिलाया गया कि वे बतौर वकील पंजीकृत ही नहीं हैं. तब वह हत्थे से उखड़ गये और चिल्लाने लगे कि उन्होंने 2जी घोटाले का पर्दाफाश किया है और अपने ज्ञान के प्रकोप से सरकारें गिरायी हैं. उन्हें समझाया गया, वे अगर मुकदमा लड़ना ही चाहते हैं तो इसके लिये अभियुक्त आसाराम का अदालत से ऐसा अनुरोध करना जरूरी है. जब तक जेल से आसाराम की अर्जी आती उन्हें 40 मिनट इंतजार करना पड़ा. इस अवधि में उन्हें कैसा महसूस हुआ होगा, ये वही जानते होंगे.

केटीएस तुलसी ने दावा किया, पीड़िता के वकील पीके वर्मा के पब्लिक प्रॉसीक्यूटर होने की अधिसूचना नहीं जारी हुई है लिहाज़ा वह मुकदमा नहीं लड़ सकते हैं. थोड़ी सी पड़ताल के बाद यह दावा भी बड़बोला साबित हुआ क्योंकि गजट बहुत पहले हो चुका था. यह ख्याल आना लाज़मी है कि इन काबिल सितारों ने आसाराम के पक्ष में ऐसी कलाबाजियां क्यों दिखायीं. वे कहेंगे कि जब तक आसाराम अपराधी साबित नहीं हुआ था तब तक उसका बचाव करना उनका अधिकार था. वे कभी इस अधिकार का इस्तेमाल किसी साधारण और गरीब मुवक्किल के पक्ष में भी क्यों नहीं करते?

उनके ज्ञान और रसूख के ग्राहक अक्सर ऐसे बेहद मालदार लोग ही क्यों होते हैं जिन्हें भीतर कानून का सम्मान नहीं उसे खरीद लेने का गुमान होता है. संत आसाराम बापू अतिप्रचारित पवित्रात्मा थे इसलिए छिप कर लहसुन-प्याज खाते थे. आश्रम में इन दोनों चीजों के लिये उनका कोड ‘केसर’ और ‘कस्तूरी’ था. कहीं ऐसा तो नहीं कि हम जिन्हें कानून की दुनिया के केसर और कस्तूरी समझते हैं, वे कुछ और हैं. इनकी संख्या सात नहीं ज्यादा है और लगातार बढ़ती जा रही है.

 

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