संघ एक दिन समाज में दूध में शक्‍कर जैसा घुल जाएगा! हेडगेवार का यह कथन आज सच हो चुका है

यह चुनाव नेताओं, सीटों, दलों, सरकार या संस्थाओं के बारे में नहीं है. यह केवल उन लोगों के बारे में है जो 2014 में 31% थे और 2019 में भाजपा का समर्थन करते हुए 37.4% हो गए. यह चुनाव उन लोगों का हाल बताता था जो एनडीए के पक्ष में 2014 तक 38% थे, आज 45% हो चुके हैं.

यह चुनाव न प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जीत है, न अमित शाह की संगठनात्मक शक्ति और बूथ प्रबंधन की. यह चुनाव राष्ट्रवाद या ‘आईडिया ऑफ इंडिया’ पर उभरे विवाद की भी जीत नहीं है. यह विकास कार्यक्रमों और सरकारी नीतियों की विजय भी नहीं है. न यह जीत मार्केटिंग की उछल-कूद पर चली और न ही प्रोपेगंडा के भ्रम पर. 2019 का आम चुनाव आधुनिक इतिहास में वर्षो से बनी आ रही प्रक्रियाओं का सुनियोजित परिणाम निकला.

हमारे अकादमिक और बौद्धिक फिर पिछड़ गए. यह पिछड़े हुए लोग हैं. जब पश्चिम का कोई अकादमिक कूड़ा वहां से फेंक दिया जाता है तो उसे यह कौम अपने ड्राइंग रूम की दीवार पर सजाती है. बात साफ है कि भारत का विचार, हिन्दू राष्ट्रवाद, सेक्युलर राष्ट्रवाद, फासीवाद, कम्युनलिज्म, आदि जुमले अपडेट नहीं हुए और सामने कुछ अनोखा घटित हो गया.

गांधी की हत्या के बाद हताश आरएसएस ने आधुनिक भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा दांव खेला था. एमएस गोलवलकर की रहनुमाई में और नानाजी देशमुख की देख-रेख में गोरखपुर के भीतर 1952 में सरस्वती शिशु मंदिर की स्थापना हुई. हां, एक स्कूल. इस एक नन्हे से कदम से शुरू हुआ संघ परिवार का विस्तार.

आरएसएस ने भारतीय राज्य की हेजेमनी के सामने एक काउंटर-हेजेमनी बनाने की शुरुआत कर दी थी. कुछ ग्राम्शी जैसा लगता है न? हां, वही ग्राम्शी है, वही गांधी है, वही माओ जडोंग की ‘ऑन कंट्राडिक्शन’ की समझ है. प्राइमरी कंट्राडिक्शन रहा भारतीय राज्य का ऊपर से थोपा हुआ सेक्युलर चरित्र और सेकेंडरी कंट्राडिक्शन रही वह राजनीति जो इस सेक्युलर चरित्र को लोकप्रिय बनाने का प्रयास कर रही थी. स्ट्रेटेजी और टैक्टिक्‍स क्या रही होगी वह आप सोच लीजिये.

संघ आज समाज का बड़ा हिस्सा है. संघ के भीतर एक युक्ति चलती है. संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने कहा था कि एक दिन संघ समाज मे ऐसे घुल जाएगा जैसे दूध में शक्कर घुल जाती है. लगता है आज वह हो चुका है. लगभग 17 राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों में जहां भाजपा को 50 फीसदी से अधिक मत मिला है, यह मत देने वाले लोग कौन है? वह कैसे दिखते हैं, वह क्या सोचते हैं? इस पर हमारे विद्वानों ने कभी चिंता नहीं की कि यह समाज कब आधा से अधिक उस ओर चला गया जिस ओर जाना गलत माना गया था. यह रातोंरात किसी एक नेता के उभरने से नहीं हुआ है.

यकीन मानिए जो लोग अब भी आईडिया ऑफ इंडिया जैसी बातों की दुहाई दे रहे हैं, वह झूठे लोग हैं. वह यह कहने को तैयार नहीं कि स्वतंत्रता आंदोलन के समानांतर दंगा और फसादों का एक बृहत इतिहास लिखा जा सकता है. यह विद्वान अपनी गलतियां नहीं मानेंगे और न ही आज वह यह कबूल करने को तैयार हैं कि समाज के उस आधे हिस्से से लिये वो एक ‘गाली’ बन चुके हैं.

संघ ने गांधीवादी आंदोलन की ग्राम्शी वाली स्ट्रेटेजी से आपको कब खोखला करके समाज के बड़े हिस्से को अपनी ओर मिला लिया, यह हमें पता नहीं चला. हम बस उसकी निंदा करते रहे, उसे एक साम्प्रदायिक संगठन कहते रहें. लेकिन कभी यह समझने का प्रयास नहीं किया कि आधुनिक संगठन को परिभाषित करने वाला हर मॉडल उस प्रक्रिया को समझने में विफल है.

2025 में दो आंदोलनों की शतवार्षिकी होगी. वाम और संघ, दोनों की पैदाइश 1925 में हुई थी. कानपुर और नागपुर में तब फासला बहुत ज्यादा लगता था. कालांतर में वह फासला मिटा दिया गया. कानपुर की प्रक्रियाओं को नागपुर ने खुद में समाहित कर लिया. समकालीन भारत की इन चुनौतियों पर कहानी उसी 1925 से शुरु करनी होगी और देखना होगा कि पतन और उभार का मानचित्र कैसे बनता रहा.

आने वाले समय की चुनौती पार्टी-पॉलिटिक्स से ज्यादा सोसाइटी-पीपल हैं. यह मत प्रतिशत केवल एक आंकड़ा नहीं, जीते जागते लोग और विचार हैं. एक सहमति है. यह नई सहमति अब यहां साथ रहने वाली है. अगर कुछ सकारात्मक करना चाहते हैं तो लोकतंत्र में उभरी इस नई सहमति को समझने का प्रयास करिये, आरएसएस पर विश्लेषण की नई धार विकसित करिये, उन लोगों को सच कहिये.

मोदी सरकार और मोदी एक व्यक्ति की आलोचना अब बस समय की बर्बादी है. लोगों से जूझना है. नेता और पार्टी-पॉलिटिक्स तो बस लोगों की नई सहमति की अभिव्यक्ति है!


लेखक इतिहास के अध्‍येता हैं

First Published on:
Exit mobile version