सज़ा से सशक्तीकरण का विफल फ़ार्मूला कब छोड़ेगा स्त्री-दमन में लगा समाज!
विकास नारायण राय
क्या भारतीय उप-महाद्वीप में बच्चियों के बर्बर यौनिक उत्पीड़न पर लगाम लग सकती है? जबकि न समाज के पितृसत्तात्मक दमन में बदलाव आ रहा है और न सजा को ही अंतिम निदान मान इस ज्वलंत मुद्दे की इतिश्री करने वाली सरकारों के रवैये में.
देश में लोगों से पूछिये, वे भी सरकार की बनायी तर्ज पर ही बेटी बचाओ धुन दोहराना चाहेंगे. मोदी सरकार के तमाम औपचारिक फ्लैगशिप कार्यक्रमों में ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ स्त्री सशक्तीकरण को समर्पित कार्यक्रम है. भ्रूण हत्या और बेटियों की उपेक्षा से ग्रस्त समाज में सशक्तीकरण का यह समीकरण स्वाभाविक भी लगता है. लेकिन इसी सरकार का एक और फ्लैगशिप कार्यक्रम है जो स्त्री की सुरक्षा, खास कर छोटी बच्चियों की सुरक्षा को लेकर, कहीं ज्यादा कारगर सिद्ध हो सकता है. आपको ताज्जुब होगा यदि मैं इस सन्दर्भ में नाम लूँ ‘स्वच्छ भारत’ अभियान का.
चाय की प्याली में उठे तूफान की तरह, हर महीने दो महीने में राजधानी क्षेत्र का कोई न कोई बर्बर दुष्कर्म काण्ड, अपराध, न्याय, मीडिया और विमर्श की सुर्खियाँ पकड़ता है और आहिस्ता-आहिस्ता समाज के रडार से तिरोहित हो जाता है. इस कड़ी में हालिया प्रसंग आठ वर्ष की अबोध बच्ची का रहा जो ‘पड़ोसी चाचा’ का शिकार होकर हफ़्तों अस्पताल में जीवन-मरण के संघर्ष में घिसटती रही. सुप्रीम कोर्ट के दखल से उसे एम्स की श्रेष्ठ चिकित्सा सुविधा जरूर मिली, और दिल्ली महिला आयोग ने तो ऐसे बलात्कारियों के लिए छह माह में फांसी की सजा के प्रावधान का अभियान ही छेड़ दिया.
जो बच्ची ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ के जज्बे से नहीं बच सकी, क्या वह सफल ‘स्वच्छ भारत’ अभियान से सुरक्षित हो सकती थी? माफ़ कीजिये, यहाँ मेरा मतलब अमिताभ बच्चन विज्ञापित अभियान के तौर-तरीकों से कदापि नहीं है. याद है न, झकाझक कपड़े पहने महानायक का हम सभी से अपने-अपने घरों के चारों तरफ दस गज की जगह हरी-भरी स्वच्छ रखने का चुनौती भरा भावुक टीवी आह्वान. लेकिन दड़बे-नुमा झुग्गियों और पशु-बाड़े जैसी अनधिकृत कालोनियों में रहने वाली अभागी बच्चियों और उनके परिवारों की दुनिया में घरों के आस-पास दस गज खुली जगह क्या होती है, वे क्या जानें?
‘स्वच्छ भारत’ से यहाँ मेरा मतलब इन बच्चियों का जैसा भी पड़ोस है, उसमें एक व्यवस्थित बंदोबस्त का आयाम डालने से है. बिजली, शौचालय, सीवर, पार्क, काउंसलिंग, क्रेच, स्कूलिंग, निगरानी, जैसी व्यवस्था से युक्त पारदर्शी और जवाबदेह बंदोबस्त. पुलिस का मेरा अनुभव मुझे बताता है कि जिस इलाके में रोजमर्रा की गतिविधियाँ जितनी अव्यवस्थित नजर आती हैं, वहां अपराध जैसी अव्यवस्था को उतना ही उकसावा भी मिलता है. शर्मनाक है कि स्त्री सुरक्षा को लेकर गठित निर्भया फण्ड के दसियों हजार करोड़ हमारी सरकारों से खर्च नहीं हो पा रहे हैं. उनका इससे बेहतर उपयोग और क्या हो सकता है !
अन्यथा, सामूहिक उन्मादों और कठोरतम सजाओं से बेशक राज्य या समाज वक्ती तौर पर संतुष्ट हो लें, उत्पीड़न की शिकार बच्चियों का तो कोई भला होता नहीं. अरुणाचल प्रदेश के लोहित जिले के तेजू में उग्र भीड़ ने पांच वर्ष की बच्ची के दो बलात्कारी हत्यारों को पुलिस थाने से बाहर खींचकर सरे बाजार मौत के घाट उतार दिया. एक तरह से, न्याय के उन्माद में जोर पकड़ती दो लोकप्रिय मांगो, बारह वर्ष से कम आयु के बच्चों के मामले में मौत की सजा और त्वरित दंड, का ही गैर-न्यायिक संगम था यह!
सजा को लेकर उन्माद का एक वर्गीय रूप रेयान स्कूल काण्ड में दिखा जब सात वर्ष के छात्र के हत्यारे को त्वरित दंड देने की जल्दी ने निर्दोष बस कंडक्टर को लगभग फांसी के फंदे पर पहुंचा दिया था. इसी प्रवृत्ति से संचालित एक और उन्मादी सांप्रदायिक रूप फिलहाल जम्मू के कठुआ में देखने को मिल रहा है, जहाँ मुस्लिम गूजर समुदाय की आठ वर्ष की बच्ची के अपहरण, बलात्कार और हत्या के आरोपी के पक्ष में हिन्दू महिलाओं का ‘वन्दे मातरम्’ जुलूस आयोजित किया गया.
लगता है जैसे हरियाणा राज्य में सजा के सामंती उन्माद का मौसम छाया हुआ है. आये दिन लड़कियों को स्वतंत्र आचार के दंड स्वरूप उनके अभिभावकों द्वारा मौत के घाट उतारने की जघन्यता सामने आ रही है. यह अतिवाद सांस्कृतिक ही नहीं राजनीतिक डीएनए में भी पसरा हुआ है. योगी का उत्तर प्रदेश जो स्त्री विरुद्ध हिंसा में अग्रणी है, उलटे लाखों लड़कियों को ही नैतिक पुलिसिंग का निशाना बना चुका है. यहाँ तक कि देश का प्रधानमंत्री भी लोक सभा में सहोदर महिला सांसद की कटाक्ष भरी हंसी के प्रति सौजन्यता नहीं दिखा पाता.
अदालतें भी इस प्रतियोगी अभियान में पीछे नहीं दिखना चाहतीं. ताजातरीन, पाकिस्तान में लाहौर से 50 किलोमीटर दूर कसूर शहर में सात साल की बच्ची की दुष्कर्म के बाद हत्या कर शव को कचरे के ढेर में फेंकने वाले इमरान अली को रिकार्ड डेढ़ माह के ट्रायल में चार बार फांसी देने की सजा सुनाई गयी. दोषी को अपहरण, दुष्कर्म, अप्राकृतिक कृत्य और हत्या, प्रत्येक अपराध के लिए अलग-अलग फांसी! इस तरह अगली बच्ची और अगले इमरान अली के मीडिया की सुर्खियाँ बनने तक वहां के समाज ने संतोष की सांस ली.
कठोरतम दंड के माध्यम से शासन स्थिति के नियंत्रण में होने का आभास देना चाहता है. भारत में मध्य प्रदेश पहला राज्य बना जिसने बारह वर्ष से कम आयु के बच्चों के दुष्कर्मियों के लिए मौत की सजा का प्रावधान किया. हरियाणा ने भी पिछले दिनों, दुष्कर्म प्रदेश कहलाये जाने की बदनामी से घिरने के बाद, ऐसे ही दंड विधान को लाने की पहल की है. जाहिर है, इससे बच्चियों की सुरक्षा में लगातार असफल सिद्ध हो रहे पितृसत्तात्मक समाज को अपनी सामूहिक कुंठा से उबरने में सहायता मिलती हो.
इसलिये भी, बलात दुष्कर्म के लिए कठोर सजा देने के पक्ष तक ही सीमित तर्कों बहुतायत है. हालाँकि सजा, कैसी भी सजा, कठोर से कठोर और त्वरित से त्वरित, दुष्कर्म पीड़ित के सशक्तीकरण में कितनी भूमिका अदा करेगी, इस पर संदेह का घेरा है. स्त्री के व्यापक सशक्तीकरण में या उसके यौन उत्पीड़न की रोकथाम में तो इसकी लाभप्रद अदायगी का शायद ही कोई महत्वपूर्ण प्रमाण मिलता हो.
यौन अपराधों में सजा को सशक्तीकरण मान कर राज्य और समाज अपनी पीठ थप-थपा सकते हैं, लेकिन क्या उनकी पहली जिम्मेदारी बच्चियों के यौन उत्पीड़न को रोकना नहीं है?
(अवकाश प्राप्त आईपीएस विकास नारायण राय, हरियाणा के डीजीपी और नेशनल पुलिस अकादमी, हैदराबाद के निदेशक रह चुके हैं।)