दलित राजनीति का उद्भव, विकास और पतन-1

जिस तरह डा. आंबेडकर कम्यूनल अवार्ड में दलित वर्गों को एक पृथक अल्पसंख्यक वर्ग के रूप में मान्यता दिलाने में कामयाब हो गये थे, वह गाँधी के लिये इसीलिये ज्यादा चिंताजनक था कि उससे सर्वहारा या दलित वर्ग की सत्ता भारतीय समाज की मूल संरचना (सामंतवादी ढाँचा) ध्वस्त कर सकती थी। इसलिये गाँधी ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर उस सम्भावना को नष्ट किया। गाँधी की हरिजन राजनीति ने हिन्दू समाज में नव-उदारवाद पैदा किया, जिसने स्वयं को तो नहीं बदला, पर दलितों के प्रति उदार दृष्टिकोण रखा। इसने हिन्दू समाज के पूँजीवादी, सामंतवादी और ब्राह्मणवादी ढाँचे को सुरक्षित रखा और इसी का परिणाम है कि आजादी के बाद भी यह ढाँचा बना हुआ है।

 

 दलित विमर्श के विविध आन्दोलनों को जानने के बाद अब यह देखना जरूरी हो जाता है कि राजनीति में उसका क्या प्रभाव पड़ा, दूसरे शब्दों में यह कि दलित प्रश्न का राजनैतिक विकास किस स्तर पर हुआ? इस अध्याय में मैं इसी विषय पर संक्षिप्त चर्चा करूँगा।

 महाराष्ट्र में ज्योतिराव फुले के ‘नवजागरण’ के उपरांत जो दलित चेतना उभरी, उसका राजनैतिक प्रभाव हमें 1923 में देखने को मिलता है, जब बम्बई की विधान परिषद ने यह प्रस्ताव पारित किया कि सभी सार्वजनिक सुविधाओं और संस्थाओं का उपयोग करने का दलित वर्गों के लोगों को भी समान अधिकार होगा। आपने पिछले अध्याय में देखा कि महाड़ में अछूतों का, पानी के लिये सत्याग्रह, इसी अधिकार को प्राप्त करने के लिये था। यह वस्तुतः वह संघर्ष था, जिसने तत्कालीन राष्ट्रीय परिदृश्य में राजनीति के तीसरे ध्रुव (दलित राजनीति ) को जन्म दिया। इसी तीसरे ध्रुव की राजनीति ने दलित वर्गों को सत्ता में भागीदारी दिलाई।

 दलित राजनीति का विकास किस तरह हुआ, मैं क्रमशः उसका चरणबद्ध वर्णन यहाँ करूँगा, जो राष्ट्रीय आन्दोलन के समय से आज तक के विकास का एक जायजा है। लेकिन सबसे पहले यह बताना जरूरी है कि जिन परिस्थितियों में दलित राजनीति का उदय हुआ, वे क्या थीं?

 यहाँ यह बात समझने की है कि जो स्वतन्त्रता संग्राम लड़ा जा रहा था, उसके केन्द्र में दलित-मुक्ति का प्रश्न नहीं था। दूसरी बात यह समझने की है कि राजनीति में दलित प्रश्न किस तरह शामिल हुआ? प्रथम विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटिश सरकार ने 1919 के अधिनियम में संवैधानिक सुधार करने के लिये विचार किया। काँग्रेस और हिन्दू नेताओं ने मुसलमानों के पृथक राजनैतिक अधिकारों तथा हितों को स्वीकार कर लिया था। इस समझौते में यह चिन्ता नहीं थी कि दलित वर्गों के भी कुछ हित हैं और उन्हें भी राजनैतिक अधिकार मिलने चाहिए। यह स्थिति दलित वर्ग के लिये चिंताजनक थी। उन्हें भय था कि यदि अँग्रेजों ने भारत को आजाद कर दिया, तो यह आजादी दलितों के लिये क्या महत्व रख सकती है? डा. आंबेडकर ने साउथबरो समिति के समक्ष, जिसने वैधानिक सुधारों पर अपनी रिपोर्ट दी थी, साक्ष्य में कहा था कि दलितों को प्रायः दया का पात्र समझा जाता है, पर किसी भी राजनैतिक योजना में उनकी यह कहकर उपेक्षा कर दी जाती है कि उनके कोई हित नहीं हैं, लेकिन वास्तव में उनके ही हित ऐसे हैं, जिनकी रक्षा की सबसे बड़ी जरूरत है। इसलिये नहीं कि उनके पास कोई धन-जायदाद है, जिसे हड़पे जाने से बचाना है, बल्कि उनका तो सबकुछ छीन लिया गया है। इसलिये सिर्फ धन-जायदाद से सम्बन्धित हित मानव-मात्र के बुनियादी हितों के सामने नगण्य है।

 साउथबरो कमेटी ने दलितों के साथ न्याय नहीं किया। उसने दलितों की निर्वाचन की माँग को स्वीकार नहीं किया, बल्कि उनके लिये मनोनयन की व्यवस्था की सिफारिश की। इस कमेटी ने यह व्यवस्था इस आधार पर दी कि दलित वर्गों के मतदाताओं की संख्या संतोषजनक नहीं थी। डा. आंबेडकर ने, ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ की ओर से, जिसके वे अध्यक्ष थे, इस सिफारिश का विरोध् किया। 1927 में ब्रिटिश सरकार ने भारत की संवैधानिक समस्या को सुलझाने के लिये साइमन कमीशन नियुक्त किया। यह कमीशन दलित वर्गों के लिये भी संवैधानिक संरक्षणों की सिफारिश करने वाला था। किन्तु काँग्रेस और हिन्दू महासभा ने कमीशन का देशव्यापी बहिष्कार किया। बहिष्कार में मुस्लिम लीग का भी एक गुट शामिल था। लेकिन दलित वर्गों ने कमीशन का स्वागत किया था। इस स्वागत का एक कारण यह था कि कमीशन में कोई भी भारतीय सदस्य शामिल नहीं किया गया था। भारतीय सदस्य दलित वर्गों के हितों की उपेक्षा कर सकते थे। दलित वर्गों को उनके ऊपर बिल्कुल विश्वास नहीं था। बहुत से गाँवों में हिन्दुओं ने यह किया कि जब कमीशन वहाँ पहुँचा तो हिन्दुओं ने कुछ अछूतों को साफ कपड़े पहनाकर कमीशन के सामने उपस्थित कर और उनसे यह कहलवा दिया कि उनके साथ कोई भेदभाव नहीं होता है और उन्हें अलग राजनैतिक अधिकार नहीं चाहिए। लेकिन हिन्दुओं की यह चालाकी डा. आंबेडकर के साक्ष्य के सामने विफल हो गई। उन्होंने कमीशन को न केवल दलितों की वास्तविक संख्या से अवगत कराया, बल्कि उसके आधार पर यह माँग भी की कि दलित वर्गों को हिन्दुओं से अलग एक विशिष्ट अल्पसंख्यक वर्ग माना जाये और उनके लिये मुसलमानों की तरह का प्रतिनिधित्व दिया जाये। उन्होंने मनोनयन के सिद्धांत का विरोध् किया और निर्वाचन पद्धति की माँग की थी।

  1929 में, जब साईमन कमीशन ने अपनी रिपोर्ट दी तो उसका भी काँग्रेस और हिन्दू महासभा ने व्यापक विरोध किया। एक हिन्दू नेता ने उसकी तुलना मिस मेयो की पुस्तक ‘मदर इंडिया’ से की, तो अन्य हिन्दू नेताओं ने उसे प्रतिक्रियावादी रिपोर्ट की संज्ञा दी। लगभग उसी समय भारत के भावी संविधान की रूपरेखा तय करने के लिये लंदन में गोलमेज सम्मेलन की घोषणा हुई। इस सम्मेलन में दलित वर्गों के प्रतिनिधि के रूप में डा. आंबेडकर और श्री आर. श्रीनिवास को आमंत्रित किया गया था। इस सम्मेलन में, जो तीन चरणों में हुआ था, डा आंबेडकर ने दलित वर्गों के संवैधानिक अधिकारों के लिए उसकी अल्पसंख्यक समिति को एक ज्ञापन दिया, जिसमें उन्होंने दलित वर्गों के लिये पृथक निर्वाचन मंडल की माँग की थी। ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने अपने निर्णय में, जिसे इतिहास में ‘कम्यूनल अवार्ड’ के नाम से जाना जाता है, दलित वर्गों की इस माँग को स्वीकार कर लिया। काँग्रेस और हिन्दू महासभा ने इस निर्णय में दलित वर्गों के लिये पृथक अधिकारों को मानने से इन्कार कर दिया। उस समय गाँधी पूना की येरवदा जेल में थे। उन्होंने जेल में ही दलित वर्गों के पृथक अधिकारों के खिलाफ आमरण अनशन शुरु कर दिया। अंततः तमाम दबावों के बाद दलित नेताओं और हिन्दू नेताओं के बीच समझौता हुआ, जिसे डा. आंबेडकर और गाँधी जी ने अंतिम रूप दिया। यह समझौता 1932 में हुआ, जो पूना-पैक्ट के नाम से जाना जाता है।

मूल्यांकन

दलित आन्दोलन के राजनैतिक विकास का यह पहला चरण था, जिसने एक तीसरे राजनैतिक ध्रुव के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कर एक बड़ी सफलता हासिल की थी। इसने समकालीन साम्प्रदायिक राजनीति में हिन्दू और मुस्लिम दोनों समुदायों के नेताओं को यह अनुभव करा दिया था कि जाति भी भारतीय समाज की एक बहुत बड़ी सच्चाई है, जिसे उपेक्षित नहीं किया जा सकता। यह सच है कि दलित नेतृत्व ने स्वतन्त्रता-संग्राम का समर्थन नहीं किया था, पर उसके मूलभूत कारणों को जाने बिना दलित नेतृत्व के सम्बन्ध में एकतरफा राय कायम करना गलत होगा। दरअसल दलित नेतृत्व, जिसे हिंदू नेता प्रतिक्रियावादी मानते थे, आत्मरक्षा की स्थिति में था। यदि वह राष्ट्रीय आन्दोलन या स्वतन्त्रता-संग्राम में अलग-थलग था, तो इसके जिम्मेदार स्वयं काँग्रेस और हिन्दू महासभा के नेता थे। इन हिन्दू नेताओं ने, जिनमें गाँधी जी भी शामिल थे, मुसलमानों के राजनैतिक अधिकारों को मान लिया था, क्योंकि धर्म के आधार पर उनके लिये वह एक पृथक अल्पसंख्यक समुदाय था। इसी आधार पर वे सिखों और ईसाईयों के लिये भी पृथक राजनैतिक अधिकार देने को तैयार थे, हालाँकि वे दलितों को हिन्दू मानते थे, पर वे उनकी किसी भी राजनैतिक योजना में शामिल नहीं थे। दलितों की सामाजिक स्थिति को देखते हुए और उनके प्रति सवर्णों के अमानवीय व्यवहार को नजर में रखते हुए डा. आंबेडकर का मत था कि दलित हिन्दुत्व के अंग नहीं हैं, वे उसमें दास वर्ग हैं, इसलिये दलित वर्ग भी एक पृथक समुदाय हैं। काँग्रेस और हिन्दू महासभा के राजनैतिक एजेण्डे में दलित-मुक्ति की कोई कार्य-योजना नहीं थी।

 दलित नेतृत्व की चिन्ता यह थी कि देश आजाद हुआ तो आजादी का वास्तविक उपयोग हिन्दू और मुसलमान ही करेंगे, दलितों को उससे वंचित ही रहना है। इस चिन्ता का मुख्य कारण यह था कि काँग्रेस और हिन्दू महासभा के पास आजादी की कोई स्पष्ट रूपरेखा और परिकल्पना नहीं थी। अँग्रेजों से मुक्ति के बाद आजाद भारत की सरकार का स्वरूप क्या होगा और सत्ता किनके हाथों में आयेगी, यह अनिश्चय की स्थिति में था। इसलिये डा. आंबेडकर को कहना पड़ा था, ‘‘अछूतों को डर है कि भारत की हिन्दू राज स्थापित करेगी और अछूतों के लिये दरवाजे बंद हो जायेंगे। सदैव के लिये उनके जीवन की सभी आशाएँ, स्वतन्त्रता और उनकी खुशियों के स्रोत बंद हो जायेंगे तथा वे केवल लकड़ी चीरने वाले और पानी खींचने वाले ही बना दिये जायेंगे।’’

डा. आंबेडकर ने काँग्रेस की स्थिति पर टिप्पणी करते हुए लिखा, ‘‘जब यह पूछा जाता है कि स्वतन्त्र भारत के संविधान के सम्बन्ध् में क्या होना चाहिए? काँग्रेस का उत्तर होता है कि लोकतन्त्र होगा। जब यह पूछा जाता है कि लोकतन्त्र किस प्रकार का होगा, तो काँग्रेस का उत्तर होता है कि यह वयस्क मताध्किार पर आधारित होगा। वयस्क मताध्किार के अतिरिक्त संविधान में क्या ऐसे भी संरक्षण प्रदान किये जायेंगे, जो हिन्दू साम्प्रदायिक बहुमत के अत्याचारों को रोकने में सक्षम होंगे? काँग्रेस का उत्तर पूर्णतया नकारात्मक होता है।’’, दलित वर्ग के लोग हिन्दुओं के अत्याचारों से सुरक्षा के लिये संवैधानिक संरक्षणों की गारंटी चाहते थे, जिसके लिये काँग्रेस तैयार नहीं थी। काँग्रेस कहती थी कि आजादी मिलने के बाद ही संरक्षणों की माँग की जानी चाहिए। दलित नेतृत्व इसके लिये तैयार नहीं था, क्योंकि उसके पास इतिहास के कटु अनुभव थे। उनके सामने नीग्रो का उदाहरण था। अमेरिका के ‘सिविल वार’ में 37 हजार नीग्रो सैनिकों ने अपनी जानें गँवाई थीं, परन्तु युद्ध की समाप्ति के बाद उनके साथ विश्वासघात हुआ। वहाँ ऐसे कानून बनाये गये, जिनसे नीग्रो को मताधिकार से वंचित रखा गया और उन्हें गुलाम बनाया गया। अतः दलित नेतृत्व ने कहा कि नीग्रो के उदाहरण को देखते हुए स्वतन्त्रता-संग्राम के सम्बन्ध में दलितों का रूख गलत नहीं है। दलित नेतृत्व का तर्क था कि भारत की स्वतन्त्रता उस धन के समान है, जिसका कोई रिसीवर होता है। इस समय रिसीवर की स्थिति में ब्रिटिश सरकार है। जैसे ही आपसी मतभेद दूर हो जायेंगे और भावी संविधन की रूपरेखा तय हो जायेगी, ब्रिटिश सरकार उस धरोहर को योग्य भारतीयों को सौंप देगी। तब दलित वर्ग इससे लाभ क्यों न उठाये? दलित नेतृत्व चाहता था कि देश की मुख्य समस्याओं को, जिनमें दलित-मुक्ति भी एक समस्या थी, ईमानदारी से समझौता करके निपटाने के बाद सामूहिक रूप से स्वतन्त्रता का दावा किया जाये। लेकिन काँग्रेस इस आधार पर स्वतन्त्रता की लड़ाई नहीं लड़ना चाहती थी। दलितों के प्रति काँग्रेस की उपेक्षा पर डा. आंबेडकर ने यहाँ तक कहा था, ‘‘हम उतने मजबूत नहीं हो सकते, जितनी काँग्रेस है। हम संख्या में भी उतने नहीं हो सकते हैं। परन्तु हम सामाजिक जीवन के इस सिद्धांत में विश्वास करते हैं कि यदि हमें सूखी रोटी के सिवा कुछ और नहीं मिलता है, तो हमें उसी को अपने साथियों में बाँट लेना चाहिए। काँग्रेस सूखी रोटी के लिये पैदा नहीं हुई है। वह पूर्ण भोजन के लिये मैदान में आई है और उस दावत में स्वयं ही तृप्त होना चाहती है। वह दूसरों को इससे वंचित रखना चाहती है। ठीक है, हम उनके हाथों में से थालियाँ छीनने में समर्थ नहीं हो सकते। परन्तु हम एक काम कर सकते हैं। हम उनके भोजन में मुट्ठी भर धूल फेंक कर भाग सकते हैं’’ हालाँकि कम्यूनल अवार्ड में स्वीकृत पृथक निर्वाचक मंडलों और पृथक प्रतिनिधित्व के विरुद्ध गाँधी के इस तर्क में दम था कि यह एक विशुद्ध धार्मिक मामला है। पृथक निर्वाचक मंडल स्वयं दलितों के लिये हानिकारक होंगे, क्योंकि वे जानते हैं कि सवर्ण हिन्दुओं के बीच उनकी क्या स्थिति है और किस प्रकार वे सवर्णों पर आश्रित हैं? क्या गाँधी हिन्दू समाज की सही तस्वीर पेश कर रहे थे या दलित वर्ग को भयभीत कर रहे थे? ये दोनों चीजें थीं और इसका प्रभाव दलितों के विरुद्ध पड़ना ही था। दलित नेतृत्व ने इसे अनुभव किया था और पूना-पैक्ट में दलित पक्ष की विफलता का यही मुख्य कारण भी था।

 पूना-पैक्ट के पीछे काँग्रेस, गाँधी और अन्य हिन्दू नेताओं की मंशा साफतौर पर दलित वर्गों को हिंदू फोल्ड में रखने की थी। पृथक निर्वाचन के स्थान पर संयुक्त निर्वाचन की पद्धति को इस पैक्ट में इसलिये स्वीकार किया गया था ताकि सत्ता में दलित प्रतिनिधित्व सवर्ण मतों पर निर्भर रहे. उनका एक मकसद और भी था, जैसा कि डा. आंबेडकर का मत है, गाँधी इस बात के लिये आतुर थे कि दलित केवल हिन्दुओं की जागीर बने रहे। वे नहीं चाहते थे कि ईसाई और मुसलमान उनमें रुचि लें। इसके लिये ही गाँधी और काँग्रेस ने अस्पृश्यता-निवारण को अपने कार्यक्रम में शामिल किया था। यह मूलरूप से डा. आंबेडकर की अवधारणा के खिलाफ था। उन्होंने महाड़ और नासिक के दोनों सत्याग्रहों में अस्पृश्यता के मुद्दे को नागरिक अधिकार का ज्वलंत प्रश्न बनाया था। यही नागरिक अधिकार दलितों के लिये उनके पृथक राजनीतिक अधिकारों की माँग में था। गाँधी को इसमें यह खतरा दिखाई दे रहा था कि यदि अस्पृश्यता का मुद्दा नागरिक अधिकार का प्रश्न बन गया था, तो जैसा कि डी आर नागराज का भी मत है, अन्य परिवर्तनकारी शक्तियाँ एकजुट होकर विकट मोर्चा बना लेंगी। इसलिये उन्होंने अस्पृश्यता की समस्या को हिन्दुत्व का अन्दरूनी मामला बताया और उसे जनतन्त्र का मुद्दा नहीं बनने दिया।

 पूना-पैक्ट के मूल्यांकन में मैं यह स्पष्ट करना चाहूँगा कि यह दलित राजनीति के आरम्भिक अर्थात् उद्भव काल की परिघटना थी, जिसमें दलित पक्ष की हार हुई थी। इसका एक कारण यह था कि उस काल की दलित जनता पूरी तरह अशिक्षित और नासमझ थी, उसमें आज जैसी समझ नहीं थी। वह न तो लोकतन्त्र का अर्थ जानती थी और न उसमें अपनी भूमिका का महत्व समझती थी। वह सिर्फ डा. आंबेडकर को अपना नेता मानती थी और यह विश्वास करती थी कि वे उनकी आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं। दूसरी तरफ, जिन उच्च जातीय हिन्दुओं से दलितों को आजाद होना था, वे शिक्षित भी थे, समझदार भी थे। वे लोकतन्त्र के अर्थ को भी जानते थे और उसमें अपनी भूमिका के महत्व को भी समझते थे। वे ऐसे किसी भी समझौते और निर्णय के विरुद्ध थे, जो दलितों को उनसे आजाद करते थे। यदि पूना-पैक्ट न होता, तो वे देशभर के गाँव-शहरों में दलितों को गाजर-मूली की तरह काटने के लिये तैयार बैठे थे। दलित पक्ष इसी आतंक के कारण पराजित हुआ था और पूना-पैक्ट अस्तित्व में आया था। आज भी दलित वर्ग पूना-पैक्ट को अपनी हार के रूप में देखता है और इसका कारण यह है कि पूना-पैक्ट के बाद जो परिस्थितियाँ उत्पन्न हुईं, उनमें सत्ता में दलितों को प्रतिनिधित्व तो मिला, पर इस प्रतिनिधित्व ने हिन्दू शक्तियों को ही मजबूत किया, और वह दलितों की मुक्ति में कोई कारगर भूमिका नहीं निभा सका।

 

हरिजन राजनीति का उदय

 पूना-पैक्ट के बाद दलित राजनीति के गाँधीवादी माडल का उदय हुआ। गाँधी ने दलितों को ‘हरिजन’ नाम दिया। इसलिये हम इस माडल को हरिजन राजनीति का भी नाम दे सकते हैं। हरिजन राजनीति की दो मुख्य विशेषताएँ हैं। पहली यह कि इसने अस्पृश्यता निवारण के लिये काम किया। उसके राजनैतिक निहितार्थ दलितों को हिन्दू फोल्ड में रखने के ही हैं, परन्तु यह हमें ईमानदारी से स्वीकार करना होगा कि इसे गाँधी ने गम्भीरता से लिया था। उन्होंने स्वयं भी अपने शौचालय की सफाई की थी और अपनी पत्नी कस्तूरबा को भी उसके लिये बाध्य किया था। इससे प्रभावित होकर एक सनातनी ब्राह्मण ने उत्तरप्रदेश में दिलकुशा में एक प्राईमरी पाठशाला के शौचालय की जनसमूह के समक्ष सफाई की थी। गाँधी अपने इस कार्यक्रम को आत्मशुद्धि और हृदय-परिवर्तन का नाम देते थे। इसी कार्यक्रम के तहत वे दिल्ली की एक भंगी बस्ती में जाकर रहे थे, भले ही वे अपने साथ बकरी ले गये थे और भोजन के नाम पर उसी का दूध पीते थे। यह एक राजनैतिक ड्रामा जरूर था, परन्तु इसका दलितों और उच्च हिंदुओं दोनों पर प्रभाव पड़ा था। उच्च हिंदुओं पर यह प्रभाव पड़ा कि उन्होंने इसे सत्ता में बने रहने के लिये एक आवश्यक साधन के रूप में लिया और ऐसे उच्च हिंदू भी आगे आये, जिन्होंने अस्पृश्यता-निवारण को ही अपना मिशन बनाया। दलितों में मेहतर समुदाय पर गाँधी का व्यापक प्रभाव पड़ा। वे हरिजन कहे जाने लगे, हालाँकि गाँधी ने सभी दलितों को हरिजन नाम दिया था, पर वह मेहतर जाति के साथ ही ज्यादा जुड़ा। इसका मुख्य कारण पता नहीं चलता, पर यह हो सकता है कि मेहतर कालोनी में गाँधी के रहने का ही यह परिणाम हो।

 हरिजन राजनीति की दूसरी विषेषता है कि उसने आंबेडकर-विरोधी चेतना का विकास किया, जिसका उद्देश्य निश्चित रूप से परिवर्तनकारी दलित आन्दोलन को रोकना था, जो उस समय एक बड़ी भूमिका में था। हरिजन राजनीति में, जो दलित नेतृत्व उभरा वह गाँधीवादी तो था ही, आंबेडकर विरोधी भी था। वह हिन्दुत्व का अनुयायी था, जो एक वजह से इसलिये भी था कि सुरक्षित निर्वाचित क्षेत्रों में संयुक्त निर्वाचन पद्धति के तहत सत्ता में उसकी भागीदारी सवर्ण वोटों पर ही निर्भर करती थी। इसका परिणाम यह हुआ कि हरिजन इतिहास के नायक तो नहीं बन सके, वे उस इतिहास के समर्थक ही बनकर रह गये, जो सवर्णों के नेतृत्व में बनाया जा रहा था। गाँधी का हृदय परिवर्तन या आत्मशुद्धि का अनुष्ठान भी हिन्दू समाज को नहीं बदल सका, पर दलितों के हृदय और विचारों को उसने जरूर बदल दिया।

 दलित राजनीति के लिये हरिजन माडल की यदि हम जनवादी समीक्षा करें, तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अस्पृश्यता की समस्या को जनवादी प्रक्रिया का रूप देने का जो प्रयास आंबेडकर-नेतृत्व की दलित राजनीति ने किया था, उसे गाँधी-नेतृत्व की हरिजन राजनीति ने पूरी तरह विफल कर दिया था। अकसर यह कहा जाता है कि डा. आंबेडकर ने मार्क्सवाद को कमजोर किया था। पर हकीकत यह है कि मार्क्सवाद के दलित वर्गों तक पहुँचने के हर मार्ग को गाँधीवाद ने बंद किया था। डा. आंबेडकर कम्युनिस्टों से नाराज थे, यह सच है। लेकिन वे मार्क्सवाद के विरोधी नहीं थे, वे यह मानते थे कि विश्व भर के शोषित वर्ग को मार्क्स ने जो दर्शन दिया, वह किसी ने नहीं दिया था। वे रूस की अक्टूबर क्रान्ति से भी बहुत प्रभावित थे। पर वे निर्दोष लोगों की हत्याओं से दुःखी थे। वे खूनी क्रान्ति के पक्षधर नहीं थे। वे सर्वहारा की तानाशाही के मुकाबले संसदीय लोकतन्त्र में ज्यादा आस्था रखते थे। लेकिन डा. आंबेडकर की दलित राजनीति को जनवादी प्रक्रिया का रूप आसानी से दिया जा सकता था, यदि दो स्थितियाँ पैदा न होतीं। एक गाँधी के साथ राजनीतिक समझौता (पूना-पैक्ट) न हुआ होता, जिसके कारण हरिजन राजनीति का उदय हुआ तथा दूसरी, भारत में कम्यूनिस्ट आन्दोलन ब्राह्मणों के हाथों में न होता। यह बात बहुत कम लोग जानते होंगे कि डा. आंबेडकर ने कम्यूनिस्ट नेता अमृत डांगे और कामगार नेता स.म. जोशी के साथ काम किया था। पर कम्यूनिस्टों के काम करने तथा सोचने के ढंग से वह दुखी थे। सम्भवतः यही कारण था कि उन्होंने 1936 में इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (स्वतन्त्रा मजदूर पार्टी) का गठन किया और 1937 में भारत का पहला चुनाव इसी पार्टी से लड़ा।

 यदि हम गौर से देखें तो 1932 से 1947 तक हमें दलित राजनीति (आंबेडकरवादी) एक तरफ हरिजन राजनीति से टक्कर लेती दिखाई देती है, तो दूसरी तरफ कम्यूनिस्टों से अपने जातीय अंतर्विरोधों के कारण लगभग उसी लक्ष्य के लिये संघर्षरत दिखाई देती है। 1947 तक आंबेडकरवादी दलित राजनीति राज्य-समाजवाद के महत्व को समझने लगी थी, जो डा. आंबेडकर के ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ पुस्तक में दिखाई देता है। मैं समझता हूँ कि आंबेडकरवादी राजनीति यह समझने में असफल रही कि जिस तरह भारतीय समाज में जाति एक मुख्य ईकाई है, जो हर क्रान्ति को नाकाम करती है, उसी तरह वर्ग भी एक बड़ी सच्चाई है, जिसका दायरा जाति से व्यापक है। ये वर्ग जाति आधरित भी हैं और धर्म तथा पूँजी आधारित भी हैं; और क्रान्ति की सम्भावनाएँ सिर्फ जाति-चेतना के कारण ही नहीं, वर्ग-चेतना की वजह से भी नष्ट होती हैं। इसी तरह कम्युनिस्ट सिर्फ वर्ग-संघर्ष पर ही जोर देते रहे। वे यह नहीं समझ सके कि जाति का राक्षस भी क्रान्ति के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा है, जिसे मारे बिना न सामाजिक क्रान्ति सम्भव है, न राजनैतिक और आर्थिक ।

 1938 में डा. आंबेडकर ने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के घोषणा-पत्र को रेलवे मजदूरों की एक रैली में रखा था। उन्होंने दलित राजनीति को दलित वर्गों के आर्थिक हितों से जोड़ते हुए कहा था कि इस मायने में यह पहला सम्मेलन है, जब दलित वर्ग के लोग श्रमिकों के रूप में अपने आर्थिक हितों पर विचार करने के लिये एकत्र हुए हैं। उन्होंने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी को वर्ग हित और वर्ग-चेतना पर आधारित बताते हुए कहा कि दूसरा कोई राजनैतिक दल इसका मुकाबला नहीं कर सकता। उन्होंने कहा कि मजदूरों के दो दुश्मन हैं : एक ब्राह्मणवाद और दूसरा पूँजीवाद। हमारे आलोचक ब्राह्मणवाद को श्रमिकों के शत्रु के रूप में समझने में असफल हुए हैं। उन्होंने कहा कि ब्राह्मणवाद इतना सर्वव्यापी है कि वह आर्थिक क्षेत्रों को भी प्रभावित करता है। दलित वर्गों के मजदूरों को लीजिये और उनके रोजगार के अवसरों की तुलना उस मजदूर से कीजिये, जो दलित वर्ग से सम्बन्धित नहीं है। दलित मजदूर के पास काम के कितने अवसर हैं? बहुत-से ऐसे व्यवसाय हैं, जिनसे दलित वर्ग का मजदूर इसलिये वंचित या बहिष्कृत है क्योंकि वह अछूत है। उन्होंने काटन इंडस्ट्री और रेलवे का उदाहरण दिया, जिसमें दलितों के भाग्य में सिर्फ गैंगमैन के रूप में ही काम करना लिखा है। उन्होंने कहा कि बुनियादी सवाल यह है कि कैसे हम मजदूरों में एकता कायम करें? एकता उत्पन्न करने के लिये हमें उस ब्राह्मणवाद से पहले लड़ना होगा, जो मजदूरों के बीच सामाजिक भेदभाव पैदा करता है। इसके बाद ही पूँजीवाद के विरुद्ध मजदूरों की लड़ाई सफल हो सकती है।

अपने-अपने सरोकारों के बावजूद दलित राजनीति और जनवादी राजनीति यदि अपने लक्ष्य को, जो दोनों का एक तरह से समान था, नहीं पा सकी, तो इसका मुख्य कारण भी जाति और वर्ग की चेतनाएँ ही हैं, जिसे गाँधी की हरिजन राजनीति के सामन्ती माडल ने नई ऊर्जा दी थीवास्तव में, काँग्रेस जो स्वतन्त्रता-संग्राम लड़ रही थी, उसमें मुख्य सहायक सामन्त और पूँजीपति ही थे। वह लड़ाई मुख्यरूप से उन्हीं के हितों के लिये थी। सम्भवतः भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी ने 1928 में इसी आधार पर काँग्रेस से अपना सम्बन्ध विच्छेद भी कर लिया था। लेकिन डा. आंबेडकर का राजनैतिक आन्दोलन सामन्ती माडल के लिये घातक था। जिस तरह डा. आंबेडकर कम्यूनल अवार्ड में दलित वर्गों को एक पृथक अल्पसंख्यक वर्ग के रूप में मान्यता दिलाने में कामयाब हो गये थे, वह गाँधी के लिये इसीलिये ज्यादा चिंताजनक था कि उससे सर्वहारा या दलित वर्ग की सत्ता भारतीय समाज की मूल संरचना (सामंतवादी ढाँचा) ध्वस्त कर सकती थी। इसलिये गाँधी ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर उस सम्भावना को नष्ट किया। गाँधी की हरिजन राजनीति ने हिन्दू समाज में नव-उदारवाद पैदा किया, जिसने स्वयं को तो नहीं बदला, पर दलितों के प्रति उदार दृष्टिकोण रखा। इसने हिन्दू समाज के पूँजीवादी, सामंतवादी और ब्राह्मणवादी ढाँचे को सुरक्षित रखा और इसी का परिणाम है कि आजादी के बाद भी यह ढाँचा बना हुआ है।

*कँवल भारती हमारे युग के एक विशिष्ट चिंतक हैं। सामाजिक परिवर्तन के विचार से गहराई से जुड़े कँवल जी का लेखन अपनी विश्लेषण शैली और वस्तुपरकता के कारण अलग से पहचाना जाता है। कल इस लेख की अगली कड़ी में चर्चा करेंगे स्वतंत्रता के बाद दलित आंदोलन की स्थिति पर। 

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