पहला पन्ना: लोकतंत्र हार चुका है, स्वीकार चुके हैं ज़्यादातर अख़बार!

पश्चिम बंगाल जैसे सीमाई, गैर हिन्दी भाषी, एक छोटे से राज्य का चुनाव महीने भर से ज्यादा चले, उससे बड़े तथा ज्यादा आबादी वाले राज्यों के तीन चरण के मुकाबले आठ चरण में हों और फिर भी सुरक्षा बलों को गोली चलानी पड़े, पांच लोग मारे जाएं तो यह लोकतंत्र की हार है। ऐसे चुनाव के चौथे चरण में गोली चलना, उसमें पांच लोगों का मारा जाना, हालफिलहाल में ऐसा होना, घटना के बाद अखबारों में सरकारी विवरण दूसरे अखबारों के विवरण से अलग होना और फिर भी अखबारों में गंभीरता नहीं दिखनाइस हार को स्वीकार करना है। 

कायदे से आज पूरे मामले पर सरकार का पक्ष, लीड होना चाहिए था। जो लोगों का लोकतंत्र और चुनाव में विश्वास दिलाने के लिए जरूरी है। चुनाव का मतलब यही है कि जो सत्ता में है, सरकारी ताकतों से युक्त है वह हार सकता है। तभी चुनाव का मतलब है। वरना चुनाव का क्या फायदा। सुरक्षा बलों की संख्या और ताकत के हिसाब से केंद्र सरकार यानी भारतीय जनता पार्टी मजबूत हैयह सबको पता है। इसके लिए ऐसे चुनाव की कोई जरूरत ही नहीं जिसमें नागरिकों की जान जाए। जो मर गया वह क्यों मरा, यह पूछना जिन्दा बचे लोगों का काम है। अखबारों से यही अपेक्षा होती है पर हमेशा की तरह अखबारों ने आज फिर निराश किया।  

स्वतंत्र, निष्पक्ष और मजबूत मीडिया के बिना लोकतंत्र औपचारिकता है, दिखावा है और यह आज के अखबारों से बिल्कुल साफ है। अगर आज इससे बड़ी कोई खबर है तो कोरोना की है और चूंकि यह कई दिनों से चल रहा है इसलिए इसे छोड़कर मतदाताओं की निहत्थी भीड़ पर गोली चलाने और उसमें पांच जनों की मौत (एक मामला अलग था उसका विवरण कल नहीं मिला था) का कारण और उसका जवाब देश को दिया जाना चाहिए था। यह आगे के मतदान ही नहीं लोकतंत्र में भी में भरोसा बनाए रखने के लिए जरूरी है। पर आज के अखबारों में ऐसा कुछ नहीं है। क्योंकि सरकारी जवाब नदारद है। ऐसे में दूसरा विकल्प था फॉलोअप। और यह काम भी टेलीग्राफ ने ही किया है। आइए, पहले संबंधित खबरों और शीर्षक को जान लें। 

  1. हिन्दू में यह खबर लीड है और शीर्षक है, “ममता ने लोगों को उकसाया, शाह ने कहा। उपशीर्षक है, “केंद्रीय बलों का घेराव करने की पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री की अपील के कारण हमला हुआ, गोली चली, केंद्रीय गृहमंत्री ने कहा।मुझे लगता है कि यह स्थिति का स्पष्ट बयान है और किसी लाचार अखबार को जो करना चाहिए उसका आदर्श है। अगर कोई अखबार सरकार से लड़ना नहीं चाहे तो अपना काम ईमानदारी से करे। कल की खबर के बाद पाठक यह जानना चाहेंगे कि सरकार ने क्या कहा। अखबार ने बता दिया। बाकी पाठक जानता है समझता है। नहीं तो भुगते। अखबार भुगताना भी बता देगा। अखबार ने सरकार का पक्ष नहीं लिया। भाजपा नेता का प्रचार नहीं किया। केंद्रीय गृहमंत्री ने जो कहा उसे जस का तस रख दिया।
  2. हिन्दुस्तान टाइम्स में दो खबरें हैं। इसे आप कल की खबर का फॉलो अप कह सकते हैं। पहली खबर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का आरोप है, “पीड़ितों को हत्या के इरादे से सीने में गोली मारी गई। दूसरी खबर राज्य में चुनाव लड़ रही दूसरी पार्टी का आरोप है। संयोग से या राजनीतिक कारणों से यह जवाब केंद्रीय गृहमंत्री का है जो हाल तक भाजपा अध्यक्ष थे और पूर्व में तड़ीपार किए जा चुके हैं। शीर्षक है, “केंद्रीय बलों का घेराव करने की ममता की अपील के कारण हिंसा हुई :अमित शाह। मुझे लगता है कि इन खबरों और इनकी प्रस्तुति में राजनीति है। हिन्दू की तरह शुद्ध पत्रकारिता नहीं है। हालांकि शुद्ध पत्रकतारिता को भी राजनीति कहा जा सकता है। भक्त मित्र इसे सरकार विरोधी राजनीति कहते हैं।
  3. टाइम्स ऑफ इंडिया का शीर्षक है, “ममता ने इसे नरसंहार कहा; जवाब में शाह ने कहा, उन्हीं ने उकसाया।यह विशुद्ध कॉरपोरेट शैली में है। आजकल की पत्रकारिता है। चुनाव में दोनों बराबर, महत्व भी बराबर। अखबार ने इसके साथ अमित शाह का कोट छापा है जो चुनाव में सुरक्षा बलों की गोली से आम नागरिकों के मारे जाने पर सरकार के स्पष्टीकरण के मुकाबले विपक्ष के नेता का जवाब ज्यादा लगता है। बाकी कसर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ने पूरी की है। उसकी छोड़ी चर्चा आगे है। जानकारी के लिए उनका पूरा भाषण ढूंढ़कर पढ़िए। अगर चुनाव केंद्र और राज्य सरकार के बीच है तो जैसा मैंने पहले कहा, निश्चित रूप से केंद्र सरकार मजबूत है। यही प्रशांत किशोर ने कहा तो उसेलीककरके राजनीति की जा रही है। इस लिहाज से ममता बनर्जी के आरोप गंभीर और मुद्दे पर हैं।
  4. इंडियन एक्सप्रेस का शीर्षक कई बार टाइम्स ऑफ इंडिया की नकल जैसा होता है। आज भी है।ममता ने चुनावी मौतों कोनरसंहारकहा, शाह कहते हैं उन्होंने हमले के लिए उकसाया अखबार का मन इतने से नहीं भरा, उपशीर्षक है, “पश्चिम बंगाल भाजपा प्रमुख ने कहा, “गोलियों से जो मारे गए वे गंदे बच्चे थे।ऐसा लग रहा है जैसेगंदे बच्चेको मार देने का अधिकार सुरक्षा बलों को है या भाजपा को अथवा केंद्र सरकार को ऐसे बच्चों को मरवा देने का अधिकार है। मेरा मानना है कि किसी अपराधी की सजा माफ करने का अधिकार राष्ट्रपति को है तो किसी अपराधी को ठोंक देने का अधिकार सिपाही या जवान को कैसे हो सकता है। पर यह अधिकार सबसे पहले डबल इंजन वाली सरकार ने अपने सिपाहियों को दिया जो निश्चित रूप से राष्ट्रपति के अधिकारों के खिलाफ या उससे भी ज्यादा है। हालांकि, अलग मुद्दा है। फिलहाल तो इस शीर्षक मेंचुनावी मौतोंका प्रयोग ऐसे किया गया है जैसे कोई जीएसटी हो जो हर खरीदारी पर दिया ही जाना है।
  5. टेलीग्राफ में सरकार का पक्ष नहीं, उसका पोर्टमार्टम है जो मीडिया का काम है। कर सके तो जरूर करना चाहिए। कल मैंने लिखा था कि अखबार का विवरण चुनाव आयोग के विवरण से अलग है। चुनाव आयोग ने नेताओं को इलाके में जाने से रोक दिया है। ऐसे में अखबारों का काम था कि मौके से रिपोर्ट करते और टेलीग्राफ के दावे के मद्देनजर सत्य जाननेबताने की कोशिश करते। पर ऐसा कुछ पहले पन्ने पर तो नहीं दिखा। मुख्य शीर्षक, एक भुक्तभोगी का बयान है, सुरक्ष बल के जवान ने मुझे गर्दन से पकड़ कर डंडों से मारा। अखबार ने इसके साथ आज फिर छापा है कि उसका यह विवरण स्थानीय प्रशासन द्वारा चुनाव आयोग को भेजी गई रिपोर्ट के उलट है। यहां ममता बनर्जी का आरोप भी है, मतदाताओं को सीने में और गर्दन में गोली मारी गई। साथ में प्रदेश भाजपा अध्यक्ष दिलीप घोष की चेतावनी है, हर जगह सीतलकुची जैसा होगा। इंडियन एक्सप्रेस ने इसे प्रमुखता नहीं देकर गंदे बच्चे को महत्व दिया है। टेलीग्राफ ने नॉटी ब्वायज लिखा है। इस हिसाब से नटखट बच्चे होगा। बांग्ला में उन्होंने दुष्ट छेले कहा है। मुझे लगता है कि यह हिन्दी का दुष्ट ही है। नटखट मतलब शैतान। बैड से गंदे बनता है। पर यह महत्वपूर्ण नहीं है। टेलीग्राफ में कोरोना पर भी विस्तृत खबर है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि अखबारों का बहुत ज्यादा पतन हुआ है और वे अपना काम तो नहीं ही कर रहे हैं सरकार के पक्ष में प्रचार भी करने का कोई मौका नहीं चूकते। इस लिहाज से इंडियन एक्सप्रेस ने सबसे ज्यादा निराश किया है। रामनाथ गोयनका कहते थे अखबार का खर्चा बिल्डिंग के किराए से चलता है। उनके बाद संपत्ति के बंटवारे में जाने क्या हुआ अखबार एक्सप्रेस बिल्डिंग से नहीं निकलता है किराया पता नहीं कहां जाता है कि अखबार को हर मौके पर भाजपा का बचाव करना पड़ता है। हालांकि, आज पहले पन्ने पर विज्ञापन नहीं है और होता तो पता नहीं यह खबर यहां होती कि नहीं लेकिन विज्ञापन नहीं होने पर भी यह खबर यहां लगाई गई तो इसकी चर्चा भी बनती है। 

 

 

एक खबर का शीर्षक है, गुजरात में मरीजों की लाइन, भाजपा के  रेमडिसेविर स्टॉक को राजनीतिक बना दिया गया। मामला यह है कि कोरोना के लिए जरूरी यह इंजेक्शन नहीं मिल रहा है। ब्लैक में बिक रहा है। गुजरात भाजपा के पास 5000 इंजेक्शन का स्टॉक होने की खबर थी। इस मामले में मुख्यमंत्री से पूछा गया कि भाजपा अध्यक्ष के पास स्टॉक कैसे पहुंचा तो कोई ढंग का जवाब देने की बजाय वे यही कहते रहे हैं कि उन्हीं से पूछिए। ऐसे में कल सोशल मीडिया पर चर्चा थी कि गुजराती दैनिक दिव्य भास्कर ने मुख्य शीर्षक के रूप में गुजरात भाजपा अध्यक्ष का नंबर छाप दिया क्योंकि वे अपना फोन उठा नहीं रहे थे। पूरा मामला गुजराती में है इसलिए मैं समझ नहीं पाया लेकिन हिन्दी में कई साथियों ने यह सब लिखा था। 

वैसे अभी मुद्दा वह नहीं है। यह सवाल अपने आप में गंभीर है कि कोई दुर्लभ और जरूरी दवा गुजरात भाजपा अध्यक्ष के पास बड़ी मात्रा में क्यों है। कायदे से दवा का स्टॉक कोई दवा विक्रेता ही रखेगा और जरूरत के समय अगर ज्यादा कीमत लेकर बेचना मुनाफाखोरी, जमाखोरी है तो राजनीतिक लाभ पाने के लिए मुफ्त में बांटना भी भ्रष्टाचार है। जहां तक मेरी जानकारी है, नवंबर में इसकी कीमत 5000 रुपए से ऊपर थी और कलपरसों गुजरात में 18,000 रुपए से ऊपर में बिक रहा था। हालांकि आज उसकी कीमत 800 रुपए से ऊपर बताई गई है। ऐसे में 5000 का स्टॉक साधारण नहीं है और इसकी जांच कराने की बजाय मुख्यमंत्री टालते रहे। इंडियन एक्सप्रेस की खबर भी इस मामले में शांत है पर प्रचार वाली सूचनाएं बखूबी दे रही है। 

 

लेखक प्रसिद्ध पत्रकार और वरिष्ठ अनुवादक हैं।

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