पहला पन्ना: टीकों का गणित सरकार और प्रचारकों से संभल नहीं रहा है 

वैसे तो आज 30 करोड़ टीकों के लिए 1500 करोड़ रुपए दिए जाने की खबर को इंडियन एक्सप्रेस ने पांच कॉलम में तान दिया है लेकिन द टेलीग्राफ ने इसी खबर का शीर्षक लगाया है, “टीकों पर समझदारी देर से आई।”  बात एक ही है, प्रस्तुति का अंतर देखिए। मामला सिर्फ प्रचार का नहीं है, सरकार के खिलाफ खबरें गायब होने का भी है और आज ऐसी ही एक खबर टाइम्स ऑफ इंडिया में है जो निश्चित रूप से प्रचारकों की खबर के आगे दब जाएगी। इस खबर से साफ है कि सब कुछ करके भी सरकार टीकों का गणित नहीं संभाल पा रही है। इस खबर के अनुसार 25 प्रतिशत खुराक निजी अस्पतालों को आवंटित किए गए हैं जबकि कुल टीकों में उनका हिस्सा सिर्फ 7.5 प्रतिशत है। इससे पहले यह भी सवाल उठा था कि राज्य सरकारों को टीके नहीं मिल रहे हैं तो मॉल में ड्राइव इन कैसे चल रहा है। जाहिर है आपदा में अवसर सबके लिए है और सबके कमाने की उत्तम व्यवस्था की गई है पर कोई कुछ बता नहीं रहा है। अखबार भी नहीं। टाइम्स ऑफ इंडिया ने जरूर कुछ खबरें की हैं पर पूरा मामला अभी भी साफ नहीं है। बीच-बीच में टीको का ऑर्डर किया जैसी खबरों से ऐसी खबरों पर पानी डाला जाता रहता है। 


न्यायमूर्ति मिश्र की मनमानी नियुक्ति 

अरुण मिश्रा को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का प्रमुख बनाए जाने पर आज भी अखबारों में पहले पन्ने पर कुछ नहीं है जबकि पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज के नेतृत्व में 67 एक्टिविस्ट्स ने एक संयुक्त बयान जारी कर इस नियुक्ति की निन्दा की है। द टेलीग्राफ ने आज फिर इस पर खबर छापी है। अखबर ने यह भी बताया है कि न्यायमूर्ति मिश्रा से संपर्क करने पर उन्होंने कहा कि वे इस मामले में एक्टिविस्ट्स से जुड़ना नहीं चाहते हैं। न्यायमूर्ति मिश्रा ने कहा कि अपनी नियुक्ति को न्यायोचित ठहराने वाला बयान मुझे क्यों देना चाहिए। या एक्टिविस्ट्स के बयान पर मैं क्यों टिप्पणी करूं। उन्होंने कहा कि नियुक्ति करने वाले पैनल के निर्णय़ के संबंध में उन्हें कोई जानकारी नहीं है। न्यायमूर्ति मिश्र के जवाब से आप संतुष्ट हों या नहीं ‘द टेलीग्राफ’ ने उनसे सवाल तो पूछा, खबर तो छापी। बाकी किसी अखबार में खबर ही नहीं है। 


पीयूसीएल की भी पूछ नहीं 

पीयूसीएल की स्थापना 1976 में जयप्रकाश नारायण ने की थी। आज स्थिति यह है कि प्रेसिडेंट कविता श्रीवास्तव के नेतृत्व में जारी 67 लोगों के बयान को तमाम अखबारों ने कोई महत्व नहीं दिया है। द टेलीग्राफ की खबर के अनुसार, कैमपेन फॉर जूडिशियल अकाउंटैबिलिटी (सीजेएआर) ने भी इस नियुक्ति का विरोध किया है। यही नहीं, अखबार ने बताया है कि पीयूसीएल के अनुसार राज्य सभा में विपक्ष के नेता, मल्लिकार्जुन खडगे ने सुझाव दिया था कि राज सत्ता के ज्यादातर पीड़ित दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और हाशिये पर कर दिए गए अन्य लोग आते हैं इसलिए एनएचआरसी आक मुखिया ऐसे ही किसी समुदाय के व्यक्ति को बनाया जाना चाहिए। लेकिन इस सुझाव को नजरअंदाज कर दिया गया और इसका कोई कारण भी नहीं बताया गया। 


संयुक्त विरोध की भी खबर नहीं 

एक अन्य खबर के अनुसार, मल्लिकार्जुन खड़गे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के नए अध्यक्ष और सदस्यों के चयन की प्रक्रिया से खुद को अलग कर लिया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के घर पर आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्यों का चयन करने वाली नियुक्ति समिति की बैठक हुई। इस दौरान खड़गे ने इन पदों पर नियुक्ति के लिए नामों के पैनल की सिफारिश किए जाने से संबंधित समिति के फैसले पर अपना विचार रखा था। आप जानते हैं कि यह पद सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को ही मिलता था। न्यायमूर्ति मिश्रा इस पद पर नियुक्त किए जाने वाले पहले व्यक्ति हैं जो मुख्य न्यायाधीश नहीं रहे। इसके लिए पहले ही नियम बदला गया था जबकि अभी भी कई रिटायर मुख्य न्यायाधीश हैं जिन्हें यह पद दिया जा सकता था। सरकार ने तो अपनी तैयारी से नियुक्ति की पर दिलचस्प यह है कि अखबारों में खबर नहीं है। नियुक्ति के विरोध को कोई समर्थन नहीं है। 


सुप्रीम कोर्ट की खबरें 

दूसरी ओर, विनोद दुआ के मामले में सुप्रीम कोर्ट का आदेश सभी अखबारों में लीड है। कहने की जरूरत नहीं है कि यह सबसे आसान होता है। कल भी टीके पर सुप्रीम कोर्ट में सरकार की खिंचाई से संबंधित खबरें सभी अखबारों में लीड थी। निश्चित रूप से ये सरकार विरोधी खबरें हैं और इनसे सरकार की किरकिरी भी होती है लेकिन अखबारों के पास इन्हें नहीं छापने का विकल्प भी नहीं है। उल्टे ऐसी खबरें छापकर वे निष्पक्ष होने और सरकार के खिलाफ खबरें छापने की अपनी हिम्मतका प्रदर्शन करते रह सकते हैं। हालांकि हिन्दुस्तान टाइम्स में आज यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है। इसके अलावा खेल ऐसी खबरों की प्रस्तुति में होता है। टाइम्स ऑफ इंडिया में विनोद दुआ वाली खबर का शीर्षक है, “सरकार की आलोचना के लिए पत्रकारों को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है : सुप्रीम कोर्ट।” अखबार ने एक और खबर छापी है, “देशद्रोह के मामले में वे सुरक्षा के हकदार हैं”।       

द हिन्दू में इस खबर का शीर्षक है, पत्रकारों को देशद्रोह के आरोप से सुरक्षा की आवश्यकता है। इंडियन एक्सप्रेस में इसका शीर्षक है, देशद्रोह कानून के दुरुपयोग के खिलाफ पत्रकारों की रक्षा के अपने फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने रेखांकित किया। इसी खबर का शीर्षक द टेलीग्राफ में इस प्रकार है, “सुप्रीम कोर्ट ने सरकार और उसके कर्ता-धर्ताओं के उपायों की आलोचना करने के नागरिकों के अधिकार को बनाए रखा। दूसरे अखबारों में जहां पत्रकार लिखा गया है वहां द टेलीग्राफ में नागरिक लिखा गया है। दूसरे अखबारों ने नागरिकों को उनके अधिकार बताए ही नहीं और उसे पत्रकारों का विशेष अधिकार बना दिया। सरकार की यह सेवा अखबार वाले क्या मुफ्त में कर रहे होंगे? कीमत तो जनता को ही चुकाना है।

यही नहीं, द टेलीग्राफ ने विनोद दुआ वाले मामले की सूचना देते हुए केस कैलेंडर भी छापा है और इसमें बताया गया है कि 30 मार्च को वीडियो अपलोड होने के बाद छह मई को पहली शिकायत हिमाचल प्रदेश में दर्ज कराई गई और 4 जून को दिल्ली भाजपा के प्रवक्ता ने एफआईआर करवाई। पहले मामले में भी शिकायतकर्ता स्थानीय भाजपा नेता हैं। दिलचस्प यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में जांच पर स्टे नहीं लगाया था पर हिमाचल पुलिस जांच रिपोर्ट दाखिल नहीं की। केंद्र सरकार ने शिकायकर्ताओं की बात को दोहराया पर फैसला सरकार के खिलाफ आया। जाहिर है, पत्रकारों के जरिए नागरिकों को आलोचना से रोकने की कोशिश सरकार की थी और सरकार इसमें बुरी तरह नाकाम रही। अब यह खबर कैसे कितनी छपी है जो आप तय कीजिए।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

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