डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी – 19
पिछले दिनों एक ऑनलाइन सर्वेक्षण में डॉ.आंबेडकर को महात्मा गाँधी के बाद सबसे महान भारतीय चुना गया। भारत के लोकतंत्र को एक आधुनिक सांविधानिक स्वरूप देने में डॉ.आंबेडकर का योगदान अब एक स्थापित तथ्य है जिसे शायद ही कोई चुनौती दे सकता है। डॉ.आंबेडकर को मिले इस मुकाम के पीछे एक लंबी जद्दोजहद है। ऐसे में, यह देखना दिलचस्प होगा कि डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की शुरुआत में उन्हें लेकर कैसी बातें हो रही थीं। हम इस सिलसिले में हम महत्वपूर्ण स्रोतग्रंथ ‘डॉ.अांबेडकर और अछूत आंदोलन ‘ का हिंदी अनुवाद पेश कर रहे हैं। इसमें डॉ.अंबेडकर को लेकर ख़ुफ़िया और अख़बारों की रपटों को सम्मलित किया गया है। मीडिया विजिल के लिए यह महत्वपूर्ण अनुवाद प्रख्यात लेखक और समाजशास्त्री कँवल भारती कर रहे हैं जो इस वेबसाइट के सलाहकार मंडल के सम्मानित सदस्य भी हैं। प्रस्तुत है इस साप्ताहिक शृंखला की उन्नीसवीं कड़ी – सम्पादक
144.
दलित वर्ग दूसरे सदन के खिलाफ
डा. आंबेडकर ने संयुक्त संसदीय समिति की रिपोर्ट पर
बेहतर प्रतिनिधित्व के प्राविधान की माॅंग की
(दि टाइम्स आॅफ इंडिया, 15 जनवरी 1935)
‘हालाॅंकि यह मेरे और दलित वर्गों के लिए बड़े सन्तोष का विषय है कि संयुक्त संसदीय समिति ने पूना-समझौते में कोई रद्दोबदल नहीं किया है, परन्तु मुझे ध्यान दिलाना होगा कि दलित वर्गों के साथ प्रान्तों में दूसरे सदनों में और संघीय विधानसभा के उच्च सदन में प्रतिनिधित्व के मामले में संयुक्त संसदीय समिति के द्वारा अन्याय किया गया है।’ यह विचार डा. आंबेडकर ने दलित वर्गों के सम्बन्ध में संयुक्त संसदीय समिति की रिपोर्ट पर अपने वक्तव्य में व्यक्त किए हैं।
डा. आंबेडकर वक्तव्य में कहते हैं-
दलित वर्गों ने प्रान्तों में दूसरे सदन की स्थापना का विरोध किया था। उन्हें माॅंन्टेग्यू चेम्सफोर्ड सुधारों के तहत गैरजरूरी समझा गया था। साइमन कमीशन ने भी उनकी सिफारिश नहीं की थी। भारत के भी सभी राजनीतिक संगठनों ने उनका खण्डन किया था। दलित वर्गों के विचार में यह एक घातक कदम होगा, और देश की प्रगति में रोड़ा साबित होगा।
दलित वर्गों के विरोध का दूसरा आधार इन सदनों के गठन की संरचना से है। यह स्पष्ट है कि कुछ प्रान्तों में, जिनमें दूसरे सदन स्थापित किए गए हैं, क्या दलित वर्गों के लिए एक भी सीट आरक्षित है? इन प्रान्तों के दूसरे सदनों में मुसलमानों, यूरोपियों और भारतीय ईसाईयों के लिए विशेष प्राविधान किया गया है। किन्तु किसी भी प्रान्त में ऐसा कोई प्राविधान दलित वर्गों के लिए नहीं किया गया है। बम्बई, मद्रास और संयुक्त प्रान्तों के दलित वर्गों को सामान्य सीटों पर सीधी चुनावी लड़ाई में हिन्दू उम्मीदवारों के साथ लड़ाकर इस तरह के प्रतिनिधित्व से बाहर किए जा सकते हैं।
यदि दलित वर्गों के लिए सवर्ण हिन्दू उम्मीदवारों के विरुद्ध खुली चुनावी लड़ाई में सीट जीतने का अवसर मिलता होता, तो क्या पूना समझौते की जरूरत पड़ती? इसलिए स्पष्ट है कि इन प्रान्तों में दूसरे सदनों में दलित वर्गों का कोई प्रतिनिधि नहीं होगा। बंगाल और बिहार में यह प्राविधान किया गया है कि पूर्व में 65 में से 27 और बाद में 30 में से 12 का निर्वाचन प्रान्तीय प्रथम सदन के सदस्यों के द्वारा एकल हस्तान्तरणीय वोट की पद्धति से किया जायेगा।
यह प्राविधान इन दोनों प्रान्तों में दलित वर्गों के लिए दूसरे सदन में प्रतिनिधित्व प्राप्त करने की सम्भावना तो खोलता है, परन्तु तथ्यों के सावधानी पूर्वक अध्ययन से यह साफ हो जायेगा कि बिहार में इसकी कोई सम्भावना नहीं होगी, क्योंकि प्रान्तीय प्रथम सदन में दलित वर्गों की सीटें 152 में से 15 हैं, जो उनको जरूरी कोटा प्रदान करने में पर्याप्त नहीं होंगी, जबकि बंगाल में 250 सीटों के सदन में 30 सीटें हैं, जो उन्हें मुश्किल से एक सीट का कोटा मिल सकेगा।
न केवल किसी भी प्रान्तीय दूसरे सदनों में दलित वर्गों के लिए कोई सीट नहीं होगी, बल्कि मताधिकार के कारण, वे दूसरे सदनों के चुनावों को प्रभावित भी नहीं कर पायेंगे।
आरक्षित सीटों की जरूरत
ऐसा लगता है कि संयुक्त संसदीय समिति ने इन प्रतिकूल प्रभावों पर कोई विचार नहीं किया है, जिसके प्रस्ताव दूसरे सदनों में दलित वर्गों को प्रतिनिधित्व देने के लिए किए गए थे। उसके मताधिकार प्रस्तावों के सम्बन्ध में समिति यह मानती है कि ‘ऊपर उल्लिखित योग्यताएॅं उम्मीदवारों पर भी लागू होंगी, परन्तु विशेष प्राविधान महिलाओं और दलित वर्गों के मामले में आवश्यक हो सकते हैं।’ लेकिन यह सन्देह से परे है कि वह विशेष प्राविधान आवश्यक होगा। यहाॅं मुझे जसे बात कहनी है, वह यह है कि दलित वर्गों के उम्मीदवार के लिए विशेष योग्यता का कोई लाभ नहीं होगा, अगर मतदाताओं का मताधिकार एक समान रहता है। सचमुच, दलित वर्गों के पक्ष में यह विशेष योग्यता चुनाव जीतने में उनकी सहायता तब तक नहीं करेगी, जब तक कि उनके लिए सीटें आरक्षित नहीं होंगी।
संघीय उच्च सदन में भी दलित वर्गों के प्रतिनिधित्व की स्थिति में प्रतिकूल परिवर्तन आया है। श्वेत पत्र के प्रस्तावों के अन्तर्गत संघीय उच्च सदन के निर्वाचन के लिए प्रान्तीय निचला सदन था और ये चुनाव आनुपातिक प्रणाली तथा एकल हस्तान्तरणीय वोट पद्धति से होने थे। जैसाकि प्रान्तीय निचले सदनों में दलित वर्गों को पर्याप्त संख्या में प्रतिनिधित्व दिया गया था, ताकि उन्हें आठ या नौ प्रान्तों में कम-से-कम अपना एक सदस्य चुनने के लिए आवश्यक कोटा दिया जा सके, इससे दलित वर्गों की संघीय उच्च सदन में आठ या नौ सीटें सुरक्षित थीं। अब संयुक्त संसदीय समिति ने संघीय उच्च सदन के लिए चुनाव प्रणाली में परिवर्तन करके इस सम्भावना को पूरी तरह नष्ट कर दिया है।
निर्वाचक मण्डल
जैसा कि मैंने उल्लेख किया है, प्रान्तीय द्वितीय सदनों में दलित चर्गों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं होगा, जबकि वे उन प्रान्तों में, जहाॅं विधायिका के दो सदन हैं, संघीय उच्च सदन के मतदाता हैं। उन प्रान्तों में प्रस्तावित निर्वाचक मण्डलों में बदलाव करते हुए, जो एक सदनी हो जायेंगे, और अपनी संरचना का परीक्षण करेंगे, तो स्पष्ट हो जायेगा कि विशेष निर्वाचक मण्डलो के लिए जैसा प्राविधान सिखों और मुस्लिमों के लिए किया गया है, वैसा कोई प्राविधान दलित वर्गों के लिए नहीं किया गया है, और न ही इस तरह का कोई विशेष प्राविधान भारतीय ईसाईयों, एॅंग्लो-इंडियन्स और यूरोपियनों के लिए किया गया है।
एक सदनीय प्रान्तों में विशेष निर्वाचक मण्डलों के संविधान के सम्बन्ध में समिति, सामान्य सीटों में, विशेष रूप से केन्द्रीय प्रान्तों से सम्बन्धित सीटों में दलित वर्गों के लिए विशेष प्राविधानों के प्रश्न पर विशेष विचार करने की आवश्यकता को मानती है।
यदि केन्द्रीय प्रान्तों में दलित वर्गों के लिए विशेष प्राविधान आवश्यक है, तो एक सदनीय प्रान्तों में दलित वर्गों के लिए विशेष प्राविधान आवश्यक क्यों नहीं है? और यदि दलित वर्गों के लिए एक सदनीय प्रान्तों में विशेष प्राविधान आवश्यक है, तो द्विसदनीय प्रान्तों में विशेष प्राविधान आवश्यक क्यों नहीं है? दलित वर्गों की स्थिति सम्पूर्ण देश में एक जैसी है, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि केन्द्रीय प्रान्तों के दलित वर्गों की स्थिति देश के अन्य भागों में रह रहे दलित वर्गों के मुकाबले ज्यादा बुरी है।
महत्वपूर्ण हितों के विरुद्ध
इस प्रकार संयुक्त संसदीय समिति ने दलित वर्गों के प्रतिनिधित्व के प्राविधान को छोड़कर उनके महत्वपूर्ण हितों के खिलाफ काम किया है। मैं हिज मैजेस्टी की सरकार को स्मरण कराना चाहूॅंगा कि भारतीयों को सत्ता के हस्तान्तरण के लिए दलित वर्गों की सहमति नए संविधान के अन्तर्गत देश की विधायिकाओं में उनके पर्याप्त प्रतिनिधित्व के लिए दिए जाने वाले प्राविधानों पर निर्भर करती है। इस बात को मैं दलित वर्गों के प्रतिनिधि के रूप में प्रथम गोलमेज सम्मेलन के पूर्ण अधिवेशन में ही काफी अच्छे तरीके से स्पष्ट कर चुका हूॅं। इसलिए प्रान्तीय और संघीय दूसरे सदनों में दलित वर्गों के प्रतिनिधित्व के प्राविधान को खत्म करना उन सब लोगों के भी विचारों के विपरीत है, जिन्होंने समस्या का सामना किया है।
मुझे विश्वास है कि प्रधानमन्त्री की जिन भावनाओं पर दलित वर्गों ने भरोसा किया है, उनको नए संविधान के निर्माण में शामिल किया जाना था, परन्तु संयुक्त संसदीय समिति उनकी भावनाओं का सम्मान करने में विफल हो गया है, जिसके परिणमस्वरूप प्रान्तीय और संघीय दूसरे सदनों में प्रतिनिधित्व के मामले में दलित वर्गों के हितों को उपेक्षित कर दिया गया है। इसलिए मुझे कहना होगा कि दलित वर्गों के लिए सुधार योजना को समर्थन देना सम्भव नहीं होगा, और मुझे आशा है कि हिज मेजेस्टी की सरकार संयुक्त संसदीय समिति के प्रस्तावों में संशोधन करेगी, ताकि दूसरे सदनों-प्रान्तीय और संघीय, में दलित वर्गों का प्रतिनिधित्व सुरक्षित हो सके। मुझे दुख के साथ कहना पड़ता है कि यदि ये प्रस्ताव ज्यों के त्यों रहते हैं, तो सुधारों की योजना को समर्थन देना दलित वर्गों के लिए सम्भव नहीं होगा।
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डाॅ. बी. आर. आंबेडकर
(दि टाइम्स आॅफ इंडिया, 17 अप्रैल 1935)
गोलमेज सम्मेलन के प्रतिनिधि और बम्बई में दलित वर्गों के नेता डाॅ. आंबेडकर का 43 वाॅं जन्मदिन मनाने के लिए रविवार रात में परेल के दामोदर ठाकरसे हाल में ‘फ्रेन्डस स्पोर्टिंग क्लब’ के तत्वावधान में एक जनसभा का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता मि. जी. एन. सहस्रबुद्धे ने की।
सभा को सम्बोधित करते हुए मि.एस.एल.वाडवलकर और मि. एस. सावकर ने डाॅ. आंबेडकर की प्रशंसा करते हुए उन्हें दलित वर्गों का चैम्पियन कहा। उन्होंने समाज के लोगों से संगठित होकर अपनी न्यायोचित और वैधानिक माॅंगों के लिए कड़ा संघर्ष करने की माॅंग की।
146.
प्राचार्य पद पर डाॅ. आंबेडकर की नियुक्ति
(दि फ्री प्रेस जर्नल, 19 अप्रैल 1935)
बम्बई, वृहस्पतिवार।
आज जारी राजकीय गजट में, डाॅ. बी. आर. आंबेडकर को बम्बई के शासकीय लाॅ कालेज का प्राचार्य नियुक्त किया गया है।
147.
उपनगरीय हरिजन सम्मेलन
डाॅ. आंबेडकर ने अध्यक्षता की
(दि फ्री प्रेस जर्नल, 21 अप्रैल 1935)
विले पारले, 20 अप्रैल।
पहला उपनगरीय हरिजन सम्मेलन डाॅ. आंबेडकर की अध्यक्षता में 5 मई, रविवार को वाइल पारले छावनी परिसर में आयोजित किया जायेगा।
148.
उपेक्षित तथ्य
(दि बाम्बे क्रानिकल, 8 मई 1935)
डाॅ. आंबेडकर ब्रिटिश राज के गीत गाने के पूरी तरह हकदार हैं, यह सोमवार को परेल में हरिजन सभा में उनके भाषण से साफ हो गया। लेकिन हम समझते हैं कि उन्होंने अपने उत्साह के अतिरेक में भी तथ्यों को नजरअन्दाज नहीं किया है। उन्होंने पूरी उदारता से यह स्वीकार किया कि ‘यह सच है कि विदेशी राज किसी भी राष्ट्र के लिए गर्व या सन्तोष का विषय नहीं है, लेकिन उन्होंने तर्क दिया कि कभी-कभी एक आपदा भी वरदान हो सकती है।’ उन्होंने आगे कहा, ‘अंग्रेजों द्वारा भारत को जीतना दलित वर्गों की दृष्टि से एक वरदान है।’ किन्तु योग्य डाक्टर ने अपने श्रोताओं को यह नहीं बताया कि विदेशी शासन दलित वर्गों के लिए किस तरह वरदान साबित हुआ है? इस देश में ब्रिटिश राज को स्थापित हुए 150 साल हो चुके हैं। क्या इस लम्बी अवधि में दलित वर्गों की स्थिति में ऐसा कोई सुधार हुआ, जो उनके विदेशी शासन के उत्साही औचित्य को साबित कर सकता है?
भयानक निरक्षरता
यदि लोगों की विशाल संख्या भयानक रूप से निरक्षरता से पीड़ित है, तो इसमें दलित वर्गों की स्थिति एक हजार गुना से भी ज्यादा भयानक है। इन 150 वर्षों की अवधि में कितने आंबेडकर पैदा हुए हैं? निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की यह इकलौती पद्धति इस निरक्षरता को समाप्त नहीं कर सकती। क्या डाॅ. आंबेडकर हमें बतायेंगे कि यह पद्धति अभी तक भारत में प्रस्तुत क्यों नहीं हुई है, जबकि भारतीय नेता दशकों से इसकी माॅंग करते आ रहे हैं? वे यह नहीं कह सकते कि जनता के ये नेता निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की माॅंग करने में, दलित वर्गों को उसके लाभ से वंचित करना चाहते थे। शिक्षा के अलावा, सरकार की वर्तमान प्रणाली का भी एक मात्र सही परीक्षण यह देखना होगा कि उसने दलित वर्गों और उनके देशवासियों के आर्थिक हालात बदल कर उन्हें कितना लाभ पहुॅंचाया है। इसी से मालूम हो जायेगा कि विदेशी शासन को बनाए रखने के लिए डा. आंबेडकर के दावे का इतिहास कितना समर्थन करता है? हमें आशा है कि जैसे सभी इतिहासकार सहमत हैं, वे भी सहमत होंगे कि यह भारत की सम्पत्ति ही थी, जिसके कारण अंग्रेज भारत की ओर आकर्षित हुए थे, और यह देश यहाॅं अंग्रेजी राज की स्थापना की पूर्व संध्या पर दुनिया के सबसे अमीर देशों में शुमार था। डा. आंबेडकर इस सार्वभौतिक सत्य को भी स्वीकार करेंगे कि आज भारत दुनिया के सबसे गरीब देशों में शुमार होता है। एक सदी की सतत अवधि के दौरान यह परिवर्तन क्यों और कैसे पैदा हो गया, और शासन-प्रणाली के आधा हिस्से को डा. आंबेडकर दलित वर्गों के लिए वरदान के रूप में मानते हैं, जिनकी आर्थिक स्थिति में निश्चित रूप से इस अवधि के दौरान कोई सुधार नहीं हुआ है।
घोर अन्याय
यदि उनमें अधिकांश पहले की तरह ही अशिक्षित और गरीब बने हुए हैं, तो क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि अस्पृश्यता के कलंक को मिटाने और उनकी सामाजिक उन्नति के लिए कुछ भी ठोस कार्य नहीं किया गया है? क्या डा. आंबेडकर के लिए यह जानना उचित नहीं होगा कि सरकारी कुॅंओं और शिक्षण संस्थानों के उपयोग के सम्बन्ध में प्रशासनिक स्तर पर जो कुछ भी किया गया है, वह वास्तव में एक सशक्त जन-आन्दोलन का परिणाम रहा है, अस्पृश्यता के खिलाफ अभियान चलाने में गैर-सरकारी भारतीयों ने पहल की है, और इस अभियान को महान गति तब मिली थी, जब गाॅंधी जी के प्रोत्साहन पर, भारतीय राष्ट्रीय काॅंग्रेस ने स्वराज जीतने की आरम्भिक शर्तों में अस्पृश्यता मिटाने के कार्य को भी शामिल किया था? और क्या डा. आंबेडकर इस बात से भी इनकार करेंगे कि भारत सरकार का रवैया मुख्य रूप से विधायिका के माध्यम से, अस्पृश्यता मिटाने के प्रथम रचनात्मक प्रयास को क्षति पहुॅंचाने के लिए जिम्मेदार था, यह प्रयास हिन्दू समुदाय में असाधारण परिवर्तन आने की वजह से सम्भव हुआ था, और इसे महात्मा गाॅंधी के ऐतिहासिक उपवास ने प्रस्तुत किया था, जिसका प्रचार भी उनके मार्ग-दर्शन में कम ऐतिहासिक नहीं था? हम इस बात के लिए डा. आंबेडकर की प्रशंसा करते हैं कि वे हरिजनों को उनके अपरिहार्य और मूलभूत अधिकारों को दिलाने के लिए चिन्तित और उत्साहित हैं और उस दिशा में कार्य भी कर रहे हैं। लेकिन हम उन्हें बताना चाहते हैं कि वे अपने उन देशवासियों पर घोर अन्याय कर रहे हैं, जो उनके विरुद्ध भारी मतभेदों के बावजूद, देश से अस्पृश्यता का कलंक को मिटाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जबकि वे उनके कल्याण के लिए वर्तमान शासन-प्रणाली को बनाए रखने का सुझाव देकर हरिजनों पर ज्यादा भारी अन्याय कर रहे हैं।
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श्रीमती आंबेडकर का निधन
(दि टाइम्स आॅफ इंडिया, 28 मई 1935)
डा. बी. आर आंबेडकर की पत्नी श्रीमती रमाबाई आंबेडकर का कल मंगलवार, 27 मई 1935 की सुबह उनके आवास हिन्दू कालोनी, दादर, बम्बई में निधन हो गया। उनकी शव-यात्रा उसी दिन शाम को डा. आंबेडकर के आवास से निकली, जिसमें बार सदस्यों और डा. आंबेडकर के अन्य मित्रों सहित सैकड़ों लोगों ने भाग लिया।
पिछली कड़ियाँ-
18.जोतदार को ज़मीन से बेदख़ल करना अन्याय है- डॉ.आंबेडकर
17. मंदिर प्रवेश छोड़, राजनीति में ऊर्जा लगाएँ दलित -डॉ.आंबेडकर
16. अछूतों से घृणा करने वाले सवर्ण नेताओं पर भरोसा न करें- डॉ.आंबेडकर
15. न्यायपालिका को ‘ब्राह्मण न्यायपालिक’ कहने पर डॉ.आंबेडकर की निंदा !
14. मन्दिर प्रवेश पर्याप्त नहीं, जाति का उन्मूलन ज़रूरी-डॉ.आंबेडकर
13. गाँधी जी से मिलकर आश्चर्य हुआ कि हममें बहुत ज़्यादा समानता है- डॉ.आंबेडकर
12.‘पृथक निर्वाचन मंडल’ पर गाँधीजी का अनशन और डॉ.आंबेडकर के तर्क
11. हम अंतरजातीय भोज नहीं, सरकारी नौकरियाँ चाहते हैं-डॉ.आंबेडकर
10.पृथक निर्वाचन मंडल की माँग पर डॉक्टर अांबेडकर का स्वागत और विरोध!
9. डॉ.आंबेडकर ने मुसलमानों से हाथ मिलाया!
8. जब अछूतों ने कहा- हमें आंबेडकर नहीं, गाँधी पर भरोसा!
7. दलित वर्ग का प्रतिनिधि कौन- गाँधी या अांबेडकर?
6. दलित वर्गों के लिए सांविधानिक संरक्षण ज़रूरी-डॉ.अांबेडकर
5. अंधविश्वासों के ख़िलाफ़ प्रभावी क़ानून ज़रूरी- डॉ.आंबेडकर
4. ईश्वर सवर्ण हिन्दुओं को मेरे दुख को समझने की शक्ति और सद्बुद्धि दे !
3 .डॉ.आंबेडकर ने मनुस्मृति जलाई तो भड़का रूढ़िवादी प्रेस !
2. डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी
1. डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी