पहला पन्ना: दिल्ली के अखबारों में ना मुख्यमंत्री का सवाल ना उसका जवाब!

अर्थव्यवस्था की खराब हालत में पीएम केयर्स और ढाई लाख करोड़ की संपत्ति बेचने की योजना और उसकी खबरों के बीच गरीबों के लिए कुछ नहीं, ममता बनर्जी की खबर भी नहीं। दिल्ली की निर्वाचित सरकार के अधिकार कम करने का मतलब है भाजपा ने आम आदमी पार्टी से हार मान ली- क्या किसी अखबार ने आपको ऐसा बताया?

दिल्ली पर मनोनीत राज्यपाल के जरिए राज करने की केंद्र सरकार की कोशिशों और इसपर भाजपा की पुरानी घोषणाओं के बारे में मैंने मंगलवार 16 मार्च को लिखा था। कल मैं यह कॉलम नहीं लिख पाया और कल की खास बात यह थी कि दिल्ली में राज करने के लिए भारी मतों से निर्वाचित आम आदमी पार्टी की सरकार ने केंद्र सरकार के इस विधेयक के खिलाफ जंतर मंतर पर प्रदर्शन रखा था। देश की राजधानी दिल्ली, दिल्ली की सरकार, भाजपा की राजनीति और दिल्ली के साथ-साथ देश की जनता के लिए महत्वपूर्ण इस मुद्दे पर अगर दिल्ली की सरकार ने प्रदर्शन रखा था तो वह निश्चित रूप से बड़ी खबर थी। लेकिन यह खबर कल मुझे हिन्दुस्तान टाइम्स में जितनी प्रमुखता से दिखी उतनी प्रमुखता से अंग्रेजी के मेरे पांच अखबारों में नहीं थी। अगर बहुमत राज करने की कुंजी है तो बहुमत के लिए मीडिया या प्रचार जरूरी है। पर प्रचार तो छोड़िए अखबार अगर जनता को मुद्दा ही नहीं बताएंगे तो राय कैसे बनेगी? दिल्ली सरकार अगर सरकारी पैसे से अपने मुद्दे का प्रचार करे या चुनाव जीतने, काम करने लायक अधिकार पाने के लिए जरूरी काम छोड़कर प्रचार करने लग जाए तो निश्चित रूप से वह भी गलत होगा। लेकिन क्या वह हार मान ले। हाथ पर हाथ रखकर बैठी रहे? मेरा मानना था कि आज इस रैली के कवरेज से अंदाजा लग जाएगा कि दिल्ली के मुद्दे पर दिल्ली के अखबार किसी पार्टी के साथ हैं या जनता को इसपर राय बनाने का मौका दे रहे हैं कि नहीं?

आज के अखबारों में यह खबर हिन्दुस्तान टाइम्स में पहले पन्ने पर है। अरिवन्द केजरीवाल की अकेली बड़ी सी खबर के साथ शीर्षक है, “अगर सरकार का मतलब एलजी है तो चुनाव क्यों कराना”। बेशक, यह सवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री का है और यह सवाल जायज है। पर आपने अखबारों में, टीवी पर सुना? इसपर चर्चा हुई? मुझे नहीं पता। मैं टेलीविजिन नहीं देखता हूं लेकिन अखबारों से नहीं लग रहा है कि उनकी राय में यह कोई मुद्दा है। इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है। जो है उनकी चर्चा आगे करूंगा फिर आप सोचिएगा कि जो खबरें पहले पन्ने पर हैं उनके मुकाबले दिल्ली सरकार के विरोध की यह खबर पहले पन्ने पर क्यों नहीं हो सकती थी। टाइम्स ऑफ इंडिया में भी यह खबर पहले पन्ने पर या उससे पहले के अधपन्ने पर नहीं है। दिल्ली के अखबारों में पहले पन्ने पर नहीं है तो कोलकाता के द टेलीग्राफ में पहले पन्ने पर क्या होगा। दिल्ली के चार अखबारों में चौथे बचे, द हिन्दू में कल के विरोध प्रदर्शन की तस्वीर है। चार कॉलम की इस तस्वीर का शीर्षक है, सेंटर स्टेज यानी केंद्र में। कैप्शन का उपशीर्षक है, कैपिटल क्राइसिस। इसके गूढ़ अर्थ में नहीं जाया जाए तो सीधा अर्थ राजधानी का संकट तो है ही।

मामले को समझने के लिए आपको बताऊं कि केंद्र की भाजपा सरकार के खिलाफ लिख सकने वाले गिनती के अखबारों, पत्रकारों ने इस मुद्दे पर क्या लिखा है। नया इंडिया में अजीत द्विवेदी ने, “दिल्ली में भाजपा ने हार मान ली!” शीर्षक से कल लिखा था, “इसे क्या समझा जाए? क्या नरेंद्र मोदी ने मान लिया कि वे दिल्ली नहीं जीत सकते हैं या यह कि भाजपा दिल्ली में लड़ कर थक गई और इसलिए पिछले दरवाजे से दिल्ली की सत्ता अपने हाथ में ले रही है? दिल्ली के उप राज्यपाल को ‘दिल्ली सरकार’ बनाने का जो विधेयक केंद्र सरकार ने लोकसभा में पेश किया है वह इस बात का सबूत है कि भाजपा और नरेंद्र मोदी ने मान लिया है कि वे चुनाव लड़ कर दिल्ली में नहीं जीत सकते। यह इस बात का भी सबूत है कि भाजपा के मौजूदा नेतृत्व को एक ही जगह एक बार से ज्यादा बार हार पसंद नहीं है। एक बार हारने के बाद भी भाजपा नेता नतीजों को बदलने का प्रयास करने लगते हैं जबकि दिल्ली में मौजूदा नेतृत्व में दो बार और कुल मिला कर छह बार लगातार विधानसभा चुनाव हार गए। आगे भी जीतने की संभावना नहीं दिख रही है। सो, वहां अलग रास्ता अख्तियार किया गया है।“ निश्चित रूप से यह टिप्पणी विधायक खरीदकर सरकार बनाने और विशिष्ट योग्यता वाले को सांसद बनाने के बाद विधानसभा चुनाव लड़वाने की राजनीति पर भी है। आज टाइम्स ऑफ इंडिया में खबर है, भाजपा सांसद का शव मिला। आत्महत्या का मामला लगता है। वैसे तो सांसद की मौत और वह भी संदिग्ध, लुटियन की दिल्ली में बड़ी खबर है – लेकिन इसे महत्व नहीं मिला है। लंबी चिट्ठी लिखकर मरने वाले नेताओं के मुकाबले निश्चित रूप से अब यह सामान्य मामला हो चला है।

डॉ. वेद प्रताप वैदिक ने भी कल ही, “दिल्ली की जनता का अपमान” शीर्षक से लिखा था,  दिल्ली की जनता का इससे बड़ा अपमान क्या होगा ? यह तो वैसा ही हुआ, जैसा कि ब्रिटिश राज में होता था। लंदन में थोपे गए वायसराय को ही सरकार माना जाता था और तथाकथित मंत्रिमंडल तो सिर्फ हाथी के दांत की तरह होता था। अपने आप को राष्ट्रवादी पार्टी कहने वाली भाजपा यह अराष्ट्रीय काम क्यों कर रही है, समझ में नहीं आता। उसके दिल में यह डर तो नहीं बैठ गया है कि अरविंद केजरीवाल कहीं मोदी का तंबू उखाड़ न दे।… दिल्ली प्रांत छोटा है, केंद्र-प्रशासित क्षेत्र है, फिर भी दिल्ली दिल्ली है। इसके मुख्यमंत्री को देश में ज्यादा प्रचार मिलता है। केजरीवाल ने अभी-अभी हुए उप-चुनाव और स्थानीय चुनाव में भी भाजपा को पटकनी मार दी है। केजरीवाल की बढ़ती हुई लोकप्रियता से घबरा कर केंद्र सरकार यह जो नया कानून ला रही है, वह भाजपा की प्रतिष्ठा को पैंदे में बिठा देगा। पुदुचेरी में किरन बेदी और दिल्ली में उप-राज्यपालों ने स्थानीय सरकारों के साथ जैसा बर्ताव किया है, वह किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अशोभनीय है। अब तक दिल्ली की विधानसभा सिर्फ तीन मामलों में कानून नहीं बना सकती थी— पुलिस, शांति-व्यवस्था और भूमि लेकिन अब हर कानून के लिए उसे उप-राज्यपाल से सहमति लेनी होगी। वह किसी भी विधेयक को कानून बनने से रोक सकता है।

आज दिल्ली के चारो अखबारों में एक ही खबर लीड है। कोरोना के मामले बढ़ने पर प्रधानमंत्री की चिन्ता को प्रचार देने में अखबारों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है पर किसी ने ना पूछा है और ना सलाह दी है कि अरबों की संपत्ति बेच रही सरकार कोरोना पीड़ितों, गरीबों, बेरोजगारों को कुछ नकद सहायता क्यों नहीं दे रही है। और तो और, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा है वे लोगों की बुनियादी आय सुनिश्चित करेंगी, मासिक नकद योजना शुरू करेंगी तो वह खबर द टेलीग्राफ के अलावा दि हिन्दू और हिन्दुस्तान टाइम्स में है। उसमें नहीं, जहां हमला, नाटक का विवाद चल रहा था। मुंबई के पुलिस आयुक्त को हटाए जाने की खबर भी प्रमुखता से है। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, “अगर तीन करोड़ राशन कार्ड रद्द कर दिए गए थे तो यह गंभीर मुद्दा है” (दि हिन्दू) दूसरे अखबारों को लिए इतना गंभीर नहीं है। द हिन्दू में आज एक और खबर महत्वपूर्ण है, “हरियाणा कोर्ट ने पूछा, पुलिस को पुलिस कौन करेगा”। मुंबई में एक पुलिस अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई को खूब महत्व देने वाले अखबार पुलिस से संबंधित बुनियादी मामले को महत्व नहीं देते हैं। पुलिस सरकार की निजी सेना की तरह काम कर रही है और सरकारें इसका ऐसा ही उपयोग करती हैं पर अखबारों में राजनीति ज्यादा होती है, जनहित कम। यह सवाल नहीं है कि वाजे के खिलाफ इतनी ‘अच्छी’ जांच करने वाली एनआईए ने पुलवामा मामले में क्या किया है? या क्यों नहीं कुछ कर पाई? कायदे से उन्हें अभी तक जवाब बता देना चाहिए था।

इंडियन एक्सप्रेस में आज कर्नाटक के एक गंभीर मामले की खबर पहले पन्ने पर है। आप जानते हैं कि वहां दल बदल के कारण सरकार गिर गई थी और फिर उपचुनाव के बाद सरकार बदल गई। पिछले दिनों एक मंत्री की सेक्स सीडी आने के बाद मंत्री जी ने इस्तीफा दे दिया पर आरोप लगा कि यह सब उन्हें ब्लैकमेल करने के लिए था। बाद में शिकायतकर्ता ने शिकायत वापस ले ली। सीडी में मौजूद महिला पर भी पैसे लेने का आरोप लगा और यह सब अखबारों में छपा (मैं ऐसी खबरें पढ़ता नहीं हूं, सिर्फ शीर्षक देखा था)। आज खबर है कि वह महिला लापता है। यह घिसी पिटी कहानी है और स्क्रिप्ट के अनुसार चल रही लगती है। पुलिस क्या कर रही है राम जाने। यहां मुद्दा यह था कि ब्लैकमेल करने के लिए भी किसी ने मंत्री को महिला उपलब्ध कराया या महिला स्वयं उपलब्ध हुई। मंत्री जी ने उसका उपयोग किया। यही अपराध है, यही आरोप है। यह सब उन्हें ब्लैकमेल करने के लिए भी किया गया हो तो क्या वे महिला का उपयोग करने के दोषी नहीं हैं, पैसे उन्होंने दिए तो वेश्यावृत्ति की और नहीं दिए तो जो आरोप है वह है। इसमें इस तर्क का कोई मतलब नहीं है कि उन्हें ब्लैकमेल करने के लिए सीडी बनाई गई थी। हो भी तो मंत्री जी फंसे, जनसेवक मंत्री हैं और उनका अपराध साबित हो चुका। लेकिन सत्ता के दुरुपयोग से कार्रवाई शिकायतकर्ता के खिलाफ होगी तो वह शिकायत वापस लेगा ही और इतने भर से उसके खिलाफ कार्रवाई नहीं होने का मतलब ब्लैकमेल करने वाले को बख्श दिया जाना भी है। अखबारों को इस मामले में स्पष्ट रहना चाहिए लेकिन प्रचारकों की बात अलग है। नेता और अखबार दोनों प्रचारक की भूमिका में हों तो पाठकों का बुरा हाल होना तय है। सही सूचना का संकट तो है ही।


लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

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