सनातन धर्म के सच्‍चे सिपाही को ग्‍यारह राउंड चवन्‍नी सलाम

राम उजागर

प्रकृति परिवर्तनशील है। समाज परिवर्तनशील है। मनुष्‍य एक सामाजिक प्राणी है और परिवर्तन उसका स्‍वभाव है- ऐसा हम प्राथमिक के हर निबंध की पहली पंक्ति में लिखते थे। मनुष्‍य परिवर्तनशील है तो उसके संबंध भी परिवर्तनों से नहीं बचे रह सकते। आइंस्‍टीन जाने कितना पहले कह गए कि कुछ भी निरपेक्ष नहीं। सापेक्षिकता की इकलौती निरपेक्ष बात है। सब बदलता है। अब तो तिरानबे साल का बूढ़ा आरएसएस भी बदल रहा है। मोहनजी भागवत कह रहे हैं कि गुरुजी की ‘बन्‍च ऑफ थॉट्स’ के कुछ हिस्‍से प्रासंगिक नहीं रह गए, उसे दोबारा काट-छांट कर छपवाना पड़ेगा। कम्‍युनिस्‍ट पार्टियां परिवर्तित होकर एनजीओ बन गईं। डेढ़ सौ साल पुरानी कांग्रेस परिवर्तित होते-होते विलुप्ति के कगार पर आ गई। यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी जो इन सब से ज्‍यादा जवान है, बदल कर कांग्रेस बनती जा रही है। क्‍या नहीं बदला है समय की मार से? कवि लिख गया है- ये समय बड़ा हरजाई, समय से कौन लड़ा मेरे भाई। कवि बिज़नेस अख़बार नहीं पढ़ते हैं, वरना वे इतने जाहिल नहीं होते।

केवल एक शख्‍स है जो परिवर्तन के इस उमड़ते-घुमड़ते तूफ़ान में मनु की तरह अपनी नाव टिकाए हुए सनातन के गीत गा रहा है। उसके लिए धरती ने घूमना कब का बंद कर दिया है। उसकी जिंदगी सुनहरी शाम पर आकर अटक गई है। उसके दालान में चिनार के नारंगी पत्‍ते मोहब्‍बतें फिल्‍म के स्टिल की तरह हवा में तैरते हैं। वह इक्‍कीसवीं सदी की महान मंदी के पहले जैसा था, आज साढ़े आठ सौ अंक सेंसेक्‍स डूबने पर भी वैसा ही दिखता है। निराकार, निरपेक्ष, निर्वेद, निर्विवाद। मुकेशभाई । परिचय नहीं दूंगा। फोर्ब्‍स का ताज़ा अंक पढ़ लीजिए।

मुकेशभाई लगातार ग्‍याहवें साल भारत के सबसे अमीर शख्‍स बनकर उभरे हैं। बात को पीछे जाकर थोड़ा गहराई में समझिए। ग्‍यारह साल का मतलब हुआ 2007 से लेकर 2018 तक। 2008-09 में अमेरिका के बैंकों से लेकर बीमा कंपनियों तक सब कुछ मंदी की मार से तबाह हो गया था। मुकेशभाई की नाव उस वक्‍त हौले-हौले डोल रही थी और उसके ऊपर सोने की परत दर परत च़ढ़ती जा रही थी। मुकेशभाई के सहोदरों ने 2009 के परम संकटग्रस्‍त दौर में अपनी सामूहिक धन दौलत को 19 फीसदी बढ़ा लिया। धन के इस ताप में लिंच होने से बचने के लिए हिंदी के कवियों को मेरिल लिंच और केपजेमिनी की संयुक्‍त रिपोर्ट पढ़नी चाहिए, जो बताती है कि जब दुनिया में आग लगी हुई थी तब कुछ हजार लोग कैसे कम्‍बल ओढ़कर अमृत पी रहे थे।

2009 की मंदी में सबसे ज्‍यादा पैसा बनाया भारत, चीन और ब्राजील ने। उस बीच एशिया में करोड़पतियों की संख्‍या तीस लाख तक पहुंच गई और इनकी सामूहिक धन दौलत 31 फीसद बढ़ गई। सबकी स्थिति में परिवर्तन आया, लेकिन तीस लाख में केवल एक शख्‍स इन सब के सिर पर अपनी नाव लेकर बैठा रहा। मुकेशभाई ने इसके बाद शाहरुख खान की तरह कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्‍हें पलट कहने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। उन्‍हें देखकर बदकिस्‍मती पलट गई। उनके लिए वैश्विक संकट ने अपने पांव वापस खींच लिए। कोई डूबा, कोई उतराया। मुकेश भाई को कोई पार नहीं कर पाया। वे फाफरा खाते रहे और सनातन के गीत गाते रहे।

आज 2018 के अक्‍टूबर में फोर्ब्‍स पत्रिका के मुताबिक मुकेशभाई वहीं एकदम बने हुए हैं जहां 2008 में थे- नंबर एक पर। इस साल उन्‍होंने अपने पूंजी के गोदाम में सबसे ज्‍यादा इजाफा किया है- 9.3 अरब अमेरिकी डॉलर का। मुकेशभाई इतने भी बुरे नही हैं कि खुद तो सबसे ऊपर बने रहें और सहोदरों को डूब जाने दें। उनने भीतर करुणा है। अपने बाप की सौम्‍य विरासत है। इसी करुणाभाव का नतीजा उनकी अगली पीढ़ी की गिरती सेहत में आप देख सकते हैं। सो, उन्‍होंने अपनी जगह वहीं बनाए रखते हुए सर्वे भवन्‍तु सुखिन: के वसुधैव कुटुम्‍बकीय धर्म का पालन किया और अपने अलावा इस देश के सौ मोटा भाइयों को कोई नुकसान नहीं होने दिया। लोग गलत आरोप लगाते हैं कि यह सरकार अकेले अम्‍बानी और अडानी के लिए काम करती है। यह सरासर गलत है। दुष्‍प्रचार है।

फोर्ब्‍स की सूची कहती है कि लख्ड़खड़ाते हुए रुपये के बीच इस देश के 100 सबसे रईस लोगों ने किसी तरह अपनी पूंजी को मिलजुल कर बचा लिया। इतना ही नहीं, उनके अलावा कुछ नए अरबपति भी पैदा हो गए। सबके ऊपर हमेशा की तरह मुकेशभाई, फिर अजीम प्रेमजी और तीसरे स्‍थान से प्रकृति में परिवर्तनशीलता का नियम लागू। अपने-अपने टुच्‍चे स्‍वार्थों के चलते 100 में सबसे गरीब 98 अमीरों ने अपनी-अपनी जगह में अदलाबदली कर ली, बस अपने दो मोटा भाइयों की उम्र और विरासत और करुणा और सामाजिकता का समुचित सम्‍मान करते हुए उनकी कुर्सी नहीं हिलने दी।

फासीवाद के दौर में यथास्थिति ही प्रगतिशीलता का बायस होती है। इस बात को न केवल मुकेशभाई जानते हैं बल्कि उनका चेतक घोड़ा भी जानता है, जिसकी मां गुजरात की थी। मुकेशभाई चेतक पर दांव लगाकर चार साल पहले ही स्थितप्रज्ञ हो गए थे। वे जानते थे कि मूस मोटाएगा तो लोढ़ा होगा, उससे उनकी सेहत पर कोई आंच नहीं आने वाली। सो, सबका साथ, सबका विकास। अर्थशास्‍त्र की भाषा में इसे कहते हैं पिरामिड अप्रोच। संघ की भाषा में इसे कहते हैं एकै चालकानुवर्तिता। मने चालक एक हो, बाकी सब कंडक्‍टर, खलासी या सवारी। सबकी भूमिका में परस्‍पर बदलाव चलेगा। ड्राइवर वही रहेगा। ईसाइयत में इसे कहते हैं ‘लॉर्ड इज़ माइ शेफर्ड’ यानी हम सब भेड़ें हैं और ईश्‍वर हमारा चरवाहा। चरवाहे को क्‍या चाहिए, एक बांसुरी और ढेर सारी भेडें, जिन्‍हें जब चाहे हुर्र किया जा सके। तो मुकेशभाई ने दुनिया के सबसे पुराने दो धर्मों की एक ही सीख को अपने जीवन में उतारा और उसके बाद से धरती ने घूमना बंद कर दिया। वे आर्यावर्त को को निस्‍वार्थ भाव से खे रहे हैं ग्‍यारह साल से। वाहन का मॉडल पुराना पड़ता है तो नई ले लेते हैं। जैसा उन्‍होंने 2014 में किया था। चेतक पर दांव लगाया था।

ये सब हालांकि क्षणभंगुर किस्‍म के बदलाव हैं। वाहन बदलना भी कोई परिवर्तन हुआ भला। ये सब तो नाश्‍ते के मेन्‍यू बदलने जैसा काम है। मुकेशभाई इस मामले में ज्‍यादा महत्‍वाकांक्षी नहीं हैं। वे तो अपनी बुश शर्ट तक नहीं बदलते। उनके पास जितना है, उससे संतोष करते हैं। सोचिए, कोई आदमी ग्‍यारह साल पहले जहां था आज भी वहीं हैं। सनातन तत्‍वों का इससे बड़ा उदाहरण और कहां खोजे मिलेगा। दुनिया बदल गई इन ग्‍यारह वर्षों में, लेकिन मुकेशभाई नहीं बदले। वे अपने धर्म पर कायम हैं। आज भी जियो और जीने दो के फलसफे पर यकीन करते हैं। किसी को मारने की चाह नहीं रखते। सबसे कहते हैं- जियो गुरु।

सुना है मुकेशभाई ने एक नया वाहन ऑर्डर किया है इधर बीच। उनका घोड़ा दरअसल बहुत हिनहिनाता है। मुकेश भाई को पहले पता होता तो वे उसे मंगवाते ही नहीं। खैर, करते भी क्‍या। पहला वाला घोड़ा कुछ बोलता ही नहीं था। उन्‍हें लगा कुछ तो बोले। मुंह खोले। अपने गृहराज्‍य से उन्‍होंने ऑर्डर दे दिया। नतीजा, चार साल में कान पक गए। शायर ने कहा था- तुम नहीं और सही, और नहीं और सही। वे कल, आज और कल अपनी सर्वोच्‍च स्थिति में ही कायम रहेंगे, सवारी चाहे जो गांठनी पड़े। सवारी को भी पता है कि इस देश में जीने के लिए किसकी पृष्‍ठभूमि के तले दबकर बैठना है। यह बैलेंस न हो तो समाज टूट ही जाए।

लगातार ग्‍यारह साल तक समभाव में सबसे ऊपर बने रहने वाले सनातन धर्म पारायण भाई मुकेशजी को इस देश में वर्ग संघर्ष निलंबित रखने के लिए भूखे, नंगे, गरीब, वंचित मजलूमों का ग्‍यारह राउंड चवन्‍नी सलाम।


लेखक उत्‍तराखण्‍ड के एक सुदूर कस्‍बे में रहने वाले कथावाचक हैं    

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