हाशिया: मोदी की कॉरपोरेटपरस्ती डॉ.आंबेडकर के विचारों और आरक्षण की हत्या है!

आप मानेंगे ही कि संविधान निर्माता डा. अंबेडकर नरेंद्र मोदी से ज्यादा समझदार अर्थशास्त्री थे! उन्होंने राज्य और अल्पसंख्यक नामक ज्ञापन जो उन्होंने संविधान सभा मे प्रस्तुत किया था में साफ साफ कहा है कि प्राइवेट सेक्टर कभी भी देश का भला नहीं कर सकता न ही लोगों का भला कर सकता है। उन्होंने कहा -" भारत का तेजी से औद्योगीकरण के लिए राजकीय समाजवाद जरूरी है। निजी उद्यम ऐसा नहीं कर सकता और यदि करेगा तो वह संपदा की विषमताओं को जन्म देगा, जो निजी  पूंजीवाद ने यूरोप में पैदा की है और जो भारतियों के लिए एक चेतावनी होगी। "

आर.राम

किसानों और कॉर्पोरेट के बीच चल रही लडाई के बीच संसद मे प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति के अभिभाषण के बाद बोलते हुए खुल कर कॉर्पोरेट और निजीकरण का समर्थन किया। कहा कि निजी क्षेत्र को गाली देना अस्वीकार्य है, निजी क्षेत्र की आलोचना बंद होनी चाहिए और देश के विकास में इनका भी उतना ही योगदान है जितना सार्वजनिक क्षेत्र का। अव्वल तो निजी क्षेत्र को कोई गाली नहीं देता बल्कि उनकी मुनाफ़ाखोरी और क्रोनी पूंजीवाद की आलोचना होती है, और सरकार से उम्मीद यह की जाती है कि वह अपने चहेते पूंजीपतियों को देश की संम्पति बेचने के बजाय देश के सार्वजनिक क्षेत्र को सुदृढ़ करे और लोकतंत्र के जन कल्याणकारी रूप को संरक्षित करे।

लेकिन हमारे प्रधानमंत्री बात का बतंगड़ बनाने और मुद्दे को किसी अंधी गली में भटका देने में माहिर हैं जहाँ जाकर बात का मूल सिरा ही गायब हो जाता है। वे कह रहे थे कि नौजवानों की प्रतिभा पर भरोसा करें, प्रधानमंत्री की बात मानें तो ऐसा लगेगा मानो देश के सारे नौजवान निजीकरण का झंडा बुलंद करते हुए  अपना अपना स्टार्ट अप खोल कर मुनाफ़ा पीटते हुए सरकारी खजाना भर रहे हैं। और जो बेरोजगार युवा बैंक, रेलवे ,सेना, और तमाम सरकारी नौकरियों के लिए दर दर की ठोकरें खा रहे हैं वे तो किसी और ग्रह से आये हैं।

जहाँ तक निजी क्षेत्र की देश भक्ति और जिम्मेदारी का सवाल है तो उसे लॉकडाउन के दौरान पूरा देश देख चुका है। निजी अस्पतालों, निजी उद्योगों और सेवाओं ने संकट की घडी में सरकार और जनता का कितना साथ दिया है या अब कोई छिपी हुई बात नहीं है। कोरोना महामारी से भी देश ने अपने लुँज पुंज सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के भरोसे ही लडाई लड़ी गई। उस समय निजी क्षेत्र भाग खड़ा हुआ था। प्रधानमंत्री कोरोना वैक्सीन को लेकर बोल रहे थे कि निजी क्षेत्र की वजह से ही यह संभव हो पाया लेकिन वे यह नहीं बोले कि वैक्सीन के मामले में कॉर्पोरेट के तेजी दिखाने के पीछे मुनाफे का कितना योगदान है?

बहरहाल मोदी जी द्वारा निजी क्षेत्र की हिमायत का रहस्य छुपा हुआ नहीं है, पर हमारे स्वप्नदर्शी नेताओं और आज़ादी के बाद राष्ट्र निर्माताओं ने निजी क्षेत्र की बजाय पब्लिक सेक्टर पर जोर दिया था इसके पीछे उनकी दूर दृष्टि और लोक कल्याणकारी राज्य का स्पष्ट नक्शा था। यह तो आप मानेंगे ही कि संविधान निर्माता डा. अंबेडकर नरेंद्र मोदी से ज्यादा समझदार अर्थशास्त्री थे! उन्होंने राज्य और अल्पसंख्यक नामक ज्ञापन जो उन्होंने संविधान सभा मे प्रस्तुत किया था में साफ साफ कहा है कि प्राइवेट सेक्टर कभी भी देश का भला नहीं कर सकता न ही लोगों का भला कर सकता है। उन्होंने कहा -“भारत का तेजी से औद्योगीकरण के लिए राजकीय समाजवाद जरूरी है। निजी उद्यम ऐसा नहीं कर सकता और यदि करेगा तो वह संपदा की विषमताओं को जन्म देगा, जो निजी  पूंजीवाद ने यूरोप में पैदा की है और जो भारतियों के लिए एक चेतावनी होगी। ” उनका मानना था कि निजी उद्यम लोकतंत्र को भी कमजोर करता है। वे लिखते हैं – “जो लोग निजी उद्यम पर आधारित सामाजिक अर्थव्यवस्था और निजी लाभ की कार्यप्रणाली का अध्ययन करते हैं वे जानते होंगे कि यह लोकतंत्र के अंतिम दो आधार स्तंभों को यदि वस्तुतः भंग नहीं करती है तो दुर्बल अवश्य बना देती है। अपनी आजीविका पाने के लिए कितनों को अपने संवैधानिक अधिकार छोड़ने पड़ेंगे? कितने लोगों को प्राइवेट नियोजकों से शासित होना पड़ेगा? ”

भारत जैसे अविकसित पूंजीवादी देश जहाँ पर सामंती जातिवाद की जड़ें बहुत गहरी हैं वहाँ पर निजीकरण की व्यवस्था सामाजिक अन्याय को और अधिक गहरा करती है। आज इसका सबसे बड़ा प्रमाण है आरक्षण का खात्मा! सार्वजनिक क्षेत्र के खत्म होने का सबसे बड़ा दुष्परिणाम वंचित और दलित तबकों के आरक्षण पर पड़ रहा है। इन वर्गों की भागीदारी निरंतर घटती जा रही है और मोदी सरकार की जातिगत पेशों पर आधारित कौशल विकास की परियोजना के कारण वर्ण व्यसस्था नये संदर्भ में पुनर्गठित हो रही है। इसका परिणाम यह होने जा रहा है कि निचली जातियाँ धीरे धीरे ऊँचे स्तर की ‘ व्हाइट कॉलर ‘ नौकरियों से बेदखल होकर जातिगत पेशों को अपनाने पर मजबूर होन्गे या फिर मजदूर बने रहने पर विवश होंगे।

आज जिस तरह सरकार सभी उद्योग- कृषि, रेलवे, बैंक- बीमा इत्यादि को निजी हाथों में सौंप कर राज्य के हस्तक्षेप और नियंत्रण से मुक्त होना चाहती है उसका परिणाम क्या होगा इसके बारे में डा. अंबेडकर ने लिखा था – “यह सच है कि जहाँ राज्य हस्तक्षेप से विमुख रहता है, वहाँ जो शेष रहता है वह है स्वाधीनता। किंतु बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती है। एक और प्रश्न का उत्तर दिया जाना शेष है। यह स्वाधीनता किसे और किसके लिए? प्रकटतः यह स्वाधीनता जमींदारों को लगान बढ़ाने, पूंजीपतियों को कार्य के घंटे बढ़ाने और मजदूरी घटाने की स्वाधीनता है… दूसरे शब्दों में जिसे राज्य के नियंत्रण से मुक्ति कहते हैं वही प्राइवेट नियोजक के एकाधिकार का दूसरा नाम है। ”

कृषि कानूनों में राज्य द्वारा अहस्तक्षेप के प्रावधान के पीछे के निहितार्थ को इस बात से समझ सकते हैं। साफ है कि वर्तमान सरकार की मंशा कॉर्पोरेट के हाथ एकाधिकार सौंपने की है। इसलिए यह लडाई आम जनता  और कॉर्पोरेट की है, सरकार ने अपना पक्ष चुन लिया है।


लेखक सामाजिक प्रश्नों पर सजग-सक्रिय लेखक हैं।

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