इस कोरोंटाइन समय में आपको दुनिया की बेहतरीन फ़िल्मों से परिचय संजय जोशी करवा रहे हैं. यह मीडिया विजिल के लिए लिखे जा रहे उनके साप्ताहिक स्तम्भ सिनेमा-सिनेमा की तीसरी कड़ी है। मक़सद यह है कि हिन्दुस्तानी सिनेमा के साथ–साथ पूरी दुनिया के सिनेमा जगत की पड़ताल हो सके और इसी बहाने हम दूसरे समाजों को भी ठीक से समझ सकें. यह स्तम्भ हर सोमवार को प्रकाशित हो रहा है।
एक अमरीकी दस्तावेज़ी फ़िल्म की सीख
आज जब पूरी दुनिया किसी न किसी रूप में कोरोना महामारी की चपेट में है, राज्य और स्वास्थ्य की जवाबदेही का सवाल धीरे–धीरे केंद्र में आता जा रहा है तो एक बार फिर क्यूबा के स्वास्थ्य-तंत्र और वहां के डाक्टरों की चर्चा लोगों की जुबान पर है. पूंजीवादी आर्थिक सामाजिक ढांचा बनाम समाजवादी आर्थिक सामाजिक ढांचा की बहस चल निकली है. कई देशों में स्वास्थ्य बजट बनाम रक्षा बजट की जरुरी बहस ने भी गति पकड़ी है. ऐसे समय में लोकप्रिय अमरीकी फ़िल्मकार माइकल मूर की दस्तावेज़ी फ़िल्म ‘सीको’ को फिर से देखना लाज़िमी हो चला है. ये वही मूर हैं जिनकी एक दूसरी लोकप्रिय फ़िल्म ‘फारेनहाईट 9/11’ ने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर 11 सितम्बर 2001 को हुए हमले को एकदम दूसरी तरफ से देखते हुए आतंकवाद पर चली बहस में उन्माद पर ब्रेक लगाकर ज्यादा विविध सन्दर्भों के साथ देखने पर मजबूर किया और इस तरह बहस को एक महत्वपूर्ण दिशा भी प्रदान की.
दूसरे दस्तावेज़ी फ़िल्मकारों की तुलना में माइकल मूर एक अनोखे अंदाज़ में अपने विषय को पेश करते हैं. यह अंदाज़ एक लोकप्रिय किस्सागो जैसा रहता है जिसमे कई लोगों की कहानियां शामिल रहती हैं. इस कारण उनकी फ़िल्म को आप आँख मूंदकर सुन भी सकते हैं. कहानियों के मकड़जाल को मूर इस तरह बुनते हैं कि उनका तर्क हमें बहुत विश्वसनीय लगने लगता है और हमें बड़ी से बड़ी सत्ता की तरफ सवाल उठाने का साहस देता है. बड़ी सत्ता की तरफ़ साहस से सवाल उठाने की कूबत पैदा करना ही मूर की फ़िल्मों की सबसे बड़ी ताक़त और ख़ासियत है.
अंग्रेज़ी शब्दकोष में Sicko नाम का एक शब्द है जिसका आशय बीमार से है यानि पूरी फ़िल्म बीमार हुई चीजों के बारे में है. अच्छी बात यह है कि मूर Sicko फ़िल्म बनाते हुए सिर्फ़ अमरीका के स्वास्थ्य तंत्र के बीमार होने तक ही अपने को सीमित नहीं रखते बल्कि पूरे समाज के बीमार होने को भी इससे जोड़ते हैं.
120 मिनट लम्बी फ़िल्म Sicko कई अमरीकी, कनाडाई, अंग्रेज़ी, फ्रेंच और क्यूबाई लोगो की कहानियों से मिलकर बुनी गयी है जिसके साथ राज्य, राजनीतिज्ञ, राष्ट्रीय गौरव, बदनाम इंशोरेंस कंपनियों के बदनाम कारनामे यह सब जुड़कर पूरे दुष्चक्र को अच्छी तरह से दर्शकों को समझा पाते हैं और अपने –अपने देश में कायम व्यवस्थाओं पर सवाल करने का शऊर भी प्रदान करते हैं.
माइकल मूर छोटे –छोटे किस्सों से एक बड़ा नैरेटिव बनाते हैं जिसकी वजह से उनकी फ़िल्म में कथा फ़िल्म जैसा प्रवाह रहता है. वो आम दस्तावेज़ी फ़िल्मों की तरह कोई बड़ा कमेन्ट करने की बजाय किस्सों के प्रवाह में ही कोई बात अपनी तरफ़ से भी जोड़ देते हैं और ऐसी छोटी –छोटी बातों से फ़िल्म का बड़ा नैरेटिव तैयार होता है. यह फ़िल्म भी ऊपरी तौर पर अपनी सरंचना में अमरीकी इंश्योरेंस कंपनियों की बखिया उघेड़ने का काम करती हुई दिखाई देती है लेकिन कई किस्सों को एकसाथ रखने पर राज्य की अपने लोगो के प्रति मूलभूत जवाबदेही यानि उनके स्वस्थ रहने की गारंटी के सवाल को केंद्र में ले आती है और फिर इस तर्क को और पुख्ता बनाने के लिए उदाहरण देने की खातिर वे अमरीका के साथ –साथ कनाडा, ब्रिटेन, फ्रांस और क्यूबा की कहानियों को भी फ़िल्म में ख़ूबसूरती से शामिल कर लेते हैं. वो एक अच्छे पाठ की तरह से अलग –अलग बिन्दुओं के लिए ढेर सारे उदाहरण खोजकर रखते हैं और बहुत सहज तरीके से उन सबको आपस में गूंथ देते हैं.
अमरीका में स्वास्थ्य इंश्योरेंस का मकड़जाल
एक तरह से इसे आप फ़िल्म का पहला भाग कह सकते हैं. इस अध्याय का भी एक पूर्व अध्याय है जब वो फ़िल्म की शुरुआत रिक से करते हैं जिसकी अंगुलियाँ काम करते कट गयीं हैं. चूंकि रिक के पास हेल्थ इंश्योरेंस नहीं है इसलिए उसे बताया जाता है कि बड़ी अंगुली और उसके बगल वाली अंगुली के लिए 50,000 डालर लगेंगे तब हार कर उसे 12000 डालर में अपनी कानी अंगुली बचाकर संतोष करना पड़ता है और उसकी कटी हुई अंगुलियाँ ओरेगांव के कूड़ेघर में पक्षियों का भोजन बनती हैं. मूर कहते हैं कि उनकी फ़िल्म रिक जैसे उन अभागे 5 करोड़ अमरीकी नागरिकों के बारे में नहीं बल्कि उन 25 करोड़ सौभाग्यशाली अमरीकियों के बारे में है जो अमरीकी सपना देखते हैं.
फिर मूर उन लोगों के उदहारण एक –एक करके हमारे सामने रखते हैं जिन्होंने अपने स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए भारी कीमत वाली इंश्योरेंस बीमा पालिसी ले रखीं थीं. पहली कहानी लैरी और डाना की जिन्होंने अपने तीन बच्चों को अच्छे से पाला पोसा लेकिन बढ़ती उम्र में डाना को कैंसर हुआ और लैरी को दिल का दौरा पड़ा. दोनों के पास इंश्योरेंस होने के बावजूद इलाज कराने के अपना घर बेचना पड़ा और मजबूरी में अपनी बेटी के स्टोर रूम में गृहस्थी जमाने की कोशिश में हैं.
दूसरी कहानी फ्रैंक की है जिनकी उम्र 79 साल की है लेकिन इतना भारी इंश्योरेंस नहीं कि खुद और अपनी पत्नी के लिए दवाइयों का इंतज़ाम कर सकें , मजबूरी में ऐसी जगह नौकरी करते हैं जहाँ दवाइयाँ मुफ्त मिलती हैं. भारी मन से कहते हैं कि मरते दम तक नौकरी करूँगा. और फिर एक बूढ़ा आपके सामने महान अमरीकी साम्राज्य में भारी काम करता हुआ दिखाई देता है. तीसरी चरित्र लौरा का एक्सीडेंट हुआ है लेकिन इंश्योरेंस कंपनी कहती है कि एम्बुलेंस का पैसा नहीं देंगे क्योंकि पहले से अनुमति नहीं ली थी. अद्भुत ब्लैक ह्यूमर है. इंश्योरेंस कंपनी से पैसे लेने के लिए अपने एक्सीडेंट को पहले से तय कर लो.
मूर बतौर दस्तावेजी फ़िल्मकार अपने तर्क को लोगों को जोड़कर ही करते हैं. यह उनकी निर्माण प्रक्रिया का एक बेहद ओरगेनिक और बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय होता है. इस फ़िल्म में भी वे सोशल मीडिया के जरिये लोगों से पूछते हैं कि क्या आपको अपनी इंश्योरेंस कंपनी से कोई शिकायत है. पहले दिन कुछ सौ लोगों के जवाब आते हैं और एक सप्ताह में उनका इनबॉक्स 25000 शिकायतों से भर जाता है. अब मूर को अपनी कहानी बढ़ाने के लिए भरपूर सूत्र मिल जाते हैं जिस वजह से यह फ़िल्म इंश्योरेंस कंपनी के घपले से शुरू होकर राज्य के कई जरुरी सवालों को तसल्ली से घेर पाती है.
इंश्योरेंस कंपनी यानि अविश्वास और झूठ का पहाड़
मूर मारिया, डाईने, लौरेल और कैरोलीन से मिलते हैं जिनके पास क्रमश अमरीका की बड़ी इंश्योरेंस कंपनियों ब्लूशील्ड, होराइजन ब्लू क्रॉस ,BCS इंश्योरेंस और सिग्ना से लिए गए पूरे इंश्योरेंस कवर थे. इन चारों को बड़ी बीमारियाँ हैं जिसके इलाज के लिए इनके डाक्टरों ने इन्हें सलाह दी थी लेकिन उनकी इंश्योरेंस कम्पनियाँ का जाँच परख करने वाला विभाग उन्हें इलाज किसी न किसी बहाने से टालता रहा जिसके कारण डाईने की बढ़े हुए ट्यूमर से मौत हो गयी, लौरेल का कैंसर अब उसके पूरे शरीर में फ़ैल गया, कैरोलीन को कीमो की जरुरत पड़ी और मारिया जापान में छुट्टी मनाते हुए बीमार पड़ी जिसके कारण उसे MRI करवाना पड़ा, जिसकी जरुरत को उसकी इंशोरेंस कंपनी ब्लुशील्ड ने नकार दिया था.
इन चारों के जरुरी आवेदनों को ख़ारिज करने के तंत्र का खुलासा फ़िल्म में एक दूसरी बड़ी इंश्योरेंस कंपनी हुमाना में बतौर मेडिकल रिव्युअर काम कर चुकी डॉ.लिंडा पीनो करती हैं. वे कहती हैं इन कंपनियों में निदेशक का काम ही यही है कि ज्यादा से ज्यादा दावों को खारिज कर सको. वो कहती हैं कि जितने ज्यादा दावे खारिज करोगे उतना ज्यादा बोनस मिलेगा. आपने कभी सोचा है कि आपके मोहल्ले के डाक्टर की गाड़ी हर तीसरे महीने बदलकर और महंगी वाली कैसे हो जाती है. जरुर सोचियेगा क्योंकि इंश्योरेंस का हल्ला हमारे घरों में भी बहुत चलन में है.
मूर अपने प्रमाण को पुख्ता करने के लिए किसी जासूस की तरह कोई भी सूत्र नहीं छोड़ते हैं. वे आगे एक मेडिकल हिटमैन से बात करते हैं जिसका काम यही था कि अगर किसी तरह से इंश्योरेंस कंपनी को इलाज का पैसा देना भी पड़े तो यह आदमी मरीज के आवेदन की ऐसी चीरफाड़ करे कि दावे के नकार का कोई न कोई बिंदु मिल ही जाए. ली नाम के हिटमैन से बात का दृश्य किसी जासूसी फ़िल्म के हिस्से जैसा लगता है.
एक महत्वपूर्ण साक्ष्य के बतौर मूर अमरीकी राजनीति के उस अहम पल को फ़िल्म में पिरोते हैं जब बिल क्लिंटन के शासनकाल में पहली बार अमरीका में स्वास्थ्य के मुद्दे को प्राथमिकता दी गयी और हिलेरी क्लिंटन को बकायदा को इस बाबत ज़िम्मेवारी सौंपी गयी लेकिन इंश्योरेंस कंपनियों ने गिरोहबंदी कर बड़े पैमाने पर घूस खिला पक्ष- विपक्ष दोनों के राजनीतिज्ञों को खरीद कर अंतत एक नया बिल अपने पक्ष में पास करवा लिया. मूर एक मजेदार दृश्य रचते हुए राजनीतिज्ञों के समूह में हर किसी के शरीर के ऊपर उसकी ख़रीदी कीमत का टैग लगा देते हैं . फलाने 15 लाख डालर अलाने 10 लाख डालर ….!
क्या आपको मध्यप्रदेश में हुए व्यापम घोटाले की याद आ रही है ? कैसे एक–एक करके साक्ष्य मिटाए गए , हत्याएँ हुई और मामला ठन्डे बस्ते में. क्रोनोलोजी समझने की कोशिश करिए. जब आप यही खरीद लेंगे कि कौन डाक्टरी की पढ़ाई करेगा तो स्वास्थ्य के मुद्दे को झटकना तो कितना आसान है.
मोटी घूस खिला अपने पक्ष में लाये बिल को लाकर अब इंश्योरेंस कंपनियों के हौसले और बढ़ चुके हैं. 22 साल की ऐडरिन को कैंसर होता है और इंशोरेंस कम्पनी यह कहकर उसके दावे को ख़ारिज कर देती है कि तुम्हारी उम्र कैंसर के लिए बहुत कम है.
अमरीका से बाहर दुनिया की ख़बर
कनाडा का असली हीरो टॉमी डगलस
मूर आशावादी फ़िल्मकार हैं. इस कारण वो अपने दर्शकों के हौसले पस्त करने की बजाय थोड़ा दायें-बायें खोज करते हैं. वो एक गोल्फ़र का पीछा करते हैं जो अपनी चोट के इलाज के लिए अमरीका में 24000 हजार डालर खर्च करने की बजाय कनाडा की तरफ़ रुख करते हैं और फ्री में इलाज पा जाते हैं. मूर का बच्चों की तरह से कनाडा में स्वास्थ्य सेवाओं की जानकारी लेना बहुत आश्वस्त करने वाला होता है जब पता चलता है कि वहां किसी भी तरह के इंशोरेंस या पैसे की जरुरत नहीं है. स्वास्थ्य सबके लिए है. शायद इसी वजह से एक कनाडाई से यह पूछने पर कि आपके सबसे ज्यादा प्रसिद्ध कौन है बार–बार एक ही नाम का जवाब मिलता है – टॉमी डगलस . टॉमी डगलस इसलिए क्योंकि उन्होंने कनाडा में स्वास्थ्य को सबके लिए सुलभ बनाया.
अमरीकी स्वास्थ्य तंत्र की आलोचना की कोई कसर मूर नहीं छोड़ना चाहते हैं. इसी कारण वे एक ऐसे अमरीकी को खोज लाते हैं जिसे संगीत समूह बीटल्स की तरह लन्दन की एबी रोड को पार करना था और ऐसा करते हुए वो चोट खा जाता है और अमरीका में खर्च होने वाले हजारों डालर की तुलना में सिर्फ़ 10 पौंड में उसका इलाज हो जाता है.
ब्रिटेन में 1948 से ही सबको मुफ्त स्वास्थ्य गारंटी
फ़िल्म अब इंग्लैंड में तसल्ली से आगे बढ़ती है. इंग्लैण्ड की नेशनल हेल्थ सर्विस पर वो विस्तार से प्रकाश डालते हैं जिसे 1948 में ही लागू कर दिया गया था. यह बताते हुए वो दर्शकों को बताना नहीं भूलते कि 1948 तक इंग्लैंड द्वितीय विश्व युद्ध के कारण बुरी तरह तबाह हो चुका था लेकिन फिर भी इंग्लैंड ने सबको स्वास्थ्य को प्राथमिकता दी और अपने नागरिकों को ख़ुशहाल बनाने में अहम पहल ली. इसी दृश्य सीक्वेंस में ब्रिटेन के पूर्व सांसद टोनी बेन के इंटरव्यू को फ़िल्म के तर्क के साथ जोड़ते हैं. उनका वक्तव्य का अंतिम सूत्र वाक्य इस तरह था : “If you can find money to kill people you can find money to help people also. अगर आप लोगों की हत्या करने के लिए रूपये जुटा सकते हैं तो उनकी मदद के लिए क्यों नही.”
सवाल लेकिन यही है न कि आप असल में अपने लोगों को बचाना चाहते हैं या उन्हें उनके हाल पर मरने के लिए छोड़ देते हैं. 10 अगस्त 2017 को गोरखपुर में कुछ लाख रुपयों के कारण मरे 34 बच्चों की दर्दनाक खबर की याद है न ? अगर यह याद होगा तो यह भी याद होगा कि कैसे उसी सरकार ने अयोध्या में करोड़ो रुपयों का तेल दीवाली दीयों में डालने के लिए में फूंक दिया.
फ़्रांस में रहना ऐश है
फ़्रांस की कहानी शुरू करने से पहले मूर आम अमरीकी के त्रासद जीवन पर अपनी टिप्पणी करते हैं जिसे पहले पढ़ने के लिए कर्ज लेना होता है फिर इस कर्ज को चुकाने के लिए नौकरी और फिर मेडिकल इंश्योरेंस का मोटा बिल. अगर नौकरी में सोने का समय नहीं तो दवाई के खर्चे का बिल. मतलब सारा जीवन कर्जे पाटने में ही निपट जाएगा. इसके उलट करेना की कहानी जो तीन दिन अस्पताल में रही और एक पैसा खर्च नहीं हुआ क्योकि वो फ़्रांस की नागरिक है. इसी हिस्से में एक फ्रांसीसी डाक्टर यह कहना कि यहाँ रहना ऐश है. आप अपनी औकात के हिसाब से टैक्स देते हैं लेकिन बीमारी का इलाज आपकी जरुरत के लिहाज से होता है. एक फ्रांसीसी परिवार के साथ मूर की बातचीत हर किसी को यह फ़िल्म देखने के बाद फ़्रांस का नागरिक बनने के लिए प्रेरित करेगी. यह एक पांच कमरों वाला अच्छा खासा घर है जिनके दोनों बच्चों के अपने अलग-अलग कमरे हैं, पति पत्नी का अपना कमरा, चाय पीने की अलग जगह और मेहमान से मिलने की अलग. पति इंजिनियर है और पत्नी सहायक की नौकरी पर. घर की कुल आय 8000 डालर के खर्च का विवरण भी हम भारतीयों को ईर्ष्या में डाल देगा. 1575 डालर मकान की क़िस्त, स्वास्थ्य का खर्च जीरो, बच्चों की पढ़ाई का जीरो, सबसे ज्यादा खर्च सब्जियों, फल, मांस और घूमने पर. इसी कारण पत्नी फ़क्र से अपनी आलमारी से श्रीलंका, केनिया , साऊथ अफ्रीका और यूनान से लाई रेत का संग्रह दिखाई देती. सोचिये पिछली बार आप कब सपरिवार कहीं घूमने गए थे ?
मूर फ़्रांस का सीक्वेंस ख़त्म करने से पहले आम जीवन का एक दृश्य बंध बनाते हैं. उसमे मारकाट, लम्बी कतार की बजाय प्रेम होने के अलग- अलग दृश्यों की सघन छवियाँ हैं. फिर वो जो कहते हैं वो और भी महत्वपूर्ण है – “कोई कारण है जो अमरीका और उसका मीडिया फ़्रांस से घृणा करता है.” वे फिर दुहराते हैं –“ मेरी अमरीकी स्वतंत्रता के दावे हिलने लगते हैं.”
एक नदी से जुड़े देश से इतनी घृणा क्यों ?
मूर बहुत चालाक फ़िल्मकार हैं. वे अपने तर्कों की श्रंखला का सबसे आख़िरी तीर अब तक छुपाकर रखे हैं. जी हाँ, आप सोच ही रहे होंगे कि क्यूबा इस स्वास्थ्य विमर्श से बाहर क्यों हैं. वे क्यूबा जाने से पहले अमरीकी स्वास्थ्य तंत्र के एक और घिनौने पक्ष को दिखाते हैं . यह एक दृश्य है जिससे पता चलता है कि हॉस्पिटल की गाड़ी ने कैरोल नाम की एक बेसहारा बुढ़िया को सड़क पर छोड़ दिया क्योंकि उसके पास इंश्योरेंस नहीं और न ही इलाज के लिए पैसे हैं. इस दृश्य की समाप्ति पर मूर की स्वीकरोक्ति हमारे ही दिल पर चलती मालूम देती है. मूर कहते हैं – “ हम कौन हैं ? ऐसा देश जो अपने ही नागरिकों को कूड़े की तरह फेंक देता है जो अपने बिल नहीं चुका पा रहे।” अभी लाकडाउन में अपनी फ़ेसबुक वाल पर खाने के व्यंजन की तस्वीरें साझा करते हुए हम भी तो अपने नागरिकों को कूड़े के ढेर में तब्दील कर रहे थे.
फ़िल्म का आखिरी हिस्सा उन चार स्वयंसेवियों की कहानी है जिन्होंने 9/11 के आतंकवादी हमले के बाद खुद को देश की सेवा के लिए प्रस्तुत किया था और फिर वे चारों एक–एक करके बीमार पड़े. यहाँ तक तो सामान्य बात थी. असामान्य तब हुआ जब उनको इलाज नहीं मिला क्योंकि सरकार के अनुसार वे उसके पे रोल पर नहीं बल्कि अपनी मर्जी से सेवा करने आये थे. मूर फ़िल्म को अति नाटकीय बनाते हुए ग्वांताना की खाड़ी में इन सबको ले जाते हैं. इस खाड़ी में अल कायदा के आतंकियों को रखा गया. मूर का तर्क है कि जब 9/11 के आतंकियों को अच्छा खाना और अस्पताल की सुविधा मिल सकती है तब इन्हें क्यों नहीं. जाहिर है मूर की कोई नहीं सुनता और नदी पार कर वो क्यूबा पहुँच जाते हैं जहां इनका आसानी से अच्छा इलाज होता है. एक मरीज रोने लगती है जब उसे पता चलता है कि अमरीका में 120 डालर वाली दवाई यहाँ सिर्फ 5 सेंट में मिल रही है. वह इसलिए भी रोती है क्योंकि पिछले बीस सालों से अपने 1000 डालर के बजट में से हर महीने दवाई की दो खुराक के लिए 240 डालर खर्च करती रही है. मूर अपनी चिर परिचित शैली में कई अस्पतालों का दौरा करते हैं जिससे पता चलता है कि इस छोटे से गरीब देश की सबसे प्राथमिक ज़िम्मेवारी अपने लोगों के स्वास्थ्य की गारंटी करना है. मूर यह कहते हुए भावुक होते हैं कि हम दोनों देशों के बीच एक नदी को पार करनी जितनी दूरी है लेकिन कितनी घृणा हमने अपने पड़ोसी के लिए पाल ली है.
मूर का यह निष्कर्ष आने वाले दिनों में क्यूबाई स्वास्थ्य तंत्र के साथ उस विचार के बारे भी सोचेगा जिसकी वजह से वे अपने लोगों को कूड़े में फेंकने की बजाय सहेज कर रखने को प्राथमिकता देते हैं. फ़िल्म के एकदम आखिरी में मूर कहते हैं – “अगर हम कभी भी मेडिकल बिल की घुटन से बच सके, डे केयर के खर्चे से बच सके, कालेज लोन से बच सके तो वह दिन अमरीका में एक नया दिन होगा.” असल में यह बात अमरीका के लिए नहीं बल्कि सभी देशों के लिए लागू होती है.
माइकल मूर की यह फ़िल्म आज एक जरुरी पाठ की तरह साबित हो रही है जब कोरोना महामारी से बचने के लिए हमारी सरकार के पास लॉकडाउन सिवाय कोई विकल्प नहीं. क्योंकि इतने वर्षों में स्वास्थ्य पर बजट बढ़ाने की बजाय हम क्षेत्रीय शक्ति बनने के चक्कर में हथियारों की आमद बढ़ाते रहे और नए-नए शोध संस्थान शुरू करने की बजाय युद्ध की पिपहरी बजाते रहे. हम इसके उलट तभी कुछ हासिल कर पाएंगे जब सबकुछ को उलट कर कुछ लोगों की बजाय सबके लिए सोचेंगे. हमारे लिए उलट सोचना इसलिए भी जरुरी है क्योंकि अमरीकी इंश्योरेंस कंपनियों का माडल हमारे यहाँ भी तेजी से लागू किया जा रहा है. अपनी अंगुली को कूड़े के ढेर में पक्षियों को खिलाने से अच्छा है किसी को अंगुली दिखाना.
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2. नया हिन्दुस्तानी सिनेमा : हमारे समय की कहानियाँ
1. ईरानी औरतों की कहानियाँ : मेरे बालिग़ होने में थोड़ा वक्त है
इस शृंखला में वर्णित अधिकाँश फ़िल्में यू ट्यूब पर उपलब्ध हैं और जो आसानी से नहीं मिलेंगी उनका इंतज़ाम संजय आपके लिए करेंगे. दुनियाभर के जरुरी सिनेमा को आम लोगों तक पहुचाने का काम संजय जोशी पिछले 15 वर्षो से लगातार ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ अभियान के जरिये कर रहे हैं. उनसे thegroup.jsm@gmail.com या 9811577426 पर संपर्क किया जा सकता है .-संपादक