#MeToo: हिंदी अख़बारों के कामातुर लपकहे, जो यौन उत्पीड़न करते-करते स्टेट हेड हो गए!

राघवेंद्र दुबे


जिस किसी ने ‘गंदे प्रस्तव’ से या किसी ‘समझौते’ से इनकार किया, उसे नौकरी से हाथ तो धोना ही पड़ा, आवारा करार दे दी गयी। ये 1980 के भी पहले की बात होगी। जब एक औरत जार-जार रोयी , लेकिन बाद में उसने इन स्थितियों को अपनी खुशी बना ली। आज के दौर में तो यह कुछ के
लिये ‘फन है। जरूर सलाम लायक हैं वे, जो अपनी शर्त पर काम कर रही हैं।

संपादकों द्वारा तो कहीं-कहीं लेकिन मैनेजरों द्वारा अधिकतर, जो तत्वतः आत्महत्या ( मैटाफिजिकल स्यूसाइड ) के लिए मजबूर की गयीं , कई को मैं जानता हूं। आजकल यह सिलसिला खासा तेज है ।

अगर औरत -मर्द का स्वाभाविक रिश्ता, पूरी समझदारी, एक दूसरे के सम्मान, मोहब्बत की तलाश या बराबर पहल का नतीजा हो तो अनैतिक नहीं होता। यहां तो उस विशेषाधिकार के तहत सब कुछ चलता है कि चोरी खुद करो और दूसरे को चोर कहो। वे ताकतवर हैं इसलिए ऐसा ही करेंगे । ये वो घृणित लोग हैं जो औरत को बस मांस के लोदें, कूल्हे, नितम्ब और छातियों में ही रिड्यूस करके देखते हैं।

कुछ अखबारों को ऐसे ही संपादकीय कर्मी ज्यादा पसंद हैं और यही तरक्की की कसौटी है। एक संपादक ने अपने ही अखबार के एक कर्मचारी जिसका देहावसान हो चुका था, की पत्नी को कंप्यूटर आपरेटर के पद पर नौकरी दी। बाद में उसे उप सम्पादक बना दिया। वह रात में उसके घर भी जाने लगे । एक बार गांव वालों ने घेर लिया। किसी तरह जान बचाकर भाग सके। वह स्टेट हेड बना दिये गये। पर्वतों की छांव में की ऐयाशी की तस्वीरें देख लेने के बाद, उच्च प्रबंधन ने एक छोटी यूनिट के संपादक को खासी बड़ी यूनिट सौंप दी ।

एक यूनिट के संपादक तो सार्वजनिक स्थल पर पीटे गये। उनके खिलाफ एक महिला ने यौन उत्पीड़न की प्राथमिकी दर्ज करायी थी। इन्हें तो और बड़ी और बेहद महत्वपूर्ण यूनिट मिल गयी। वह संपादक जो यौन उत्पीड़न के मामले में, तफ्तीश के लिये दारोग़ा के आने पर, अपने कैबिन के पीछे से निकल कर मोटरसाइकिल से भाग जाता था, सबसे लकी निकला। वह भी स्टेट हेड हो गया। यह वह अखबार है जहां औरत को देखकर हिंस्र हो जाने वालों को खूब पुरस्कृत किया जाता है ।

ये संपादक अखबारों में नयी संस्कृति (दरअसल कुसंस्कृति) के नये साहूकार हैं। बीते दो दशकों में परवान चढ़ी चलन के ये, या तो डॉन हैं या कामातुर लपकहे। जो किसी को रातों-रात स्टार बना सकते हैं। बाजार की तूती वाले इस दौर में उनकी मर्द दबंगई और बेझिझक हुई है, कभी मालिक के लिये और कभी अपने लिये। पहले अपने लिये। पद के लिये ऊपर चढ़ते जाने की यह भी एक सीढ़ी है। पत्रकारीय कौशल, उसके लिये जरूरी संवेदना या नागरिक- सामाजिक हैसियत से ज्यादा, इनकी निगाह किसी की आंख, देह रचना, खुले रंग और गोगेल्स पर होती है। खास बात यह कि ऐसी चीजें चटख कानाफूसी बनती हैं और अंततः महिला पत्रकार के खिलाफ ही जाती हैं। वे बाद में गड़बड़ औरत करार देकर निकाल भी दी जाती हैं।

— उसमें स्पार्क है , उसकी मदद करो
— डाउन द लाइन कुछ अच्छे लोग तैयार करना तुम्हारी भी की – रोल जिम्मेदारी है । लगता है तुमने कुछ पढ़ना – लिखना कम कर दिया है ।
— जी …

और मैं यह कह कर ठंडे कमरे से बाहर चला आया था । उस कमरे की ठंड हालांकि किसी घिन की तरह मेरी देह से बहुत देर तक चिपकी रही ।
एक अंग्रेजी अखबार के संपादक आज तक नहीं भूले हैं। मेरे खासे परिचित हैं । वह जब -तब, एक महिला पत्रकार को बुला कर, उसे सामने बैठने को कह कर वक्ष की घाटी (क्लीवेज) और गोलाईयां देर तक निहारते रहते थे। उस महिला को भी इसका भान था लेकिन, कई सहूलियतों की वजह से वह यह जस्ट फन, अफोर्ड कर सकती थी। उसमें पेशेवराना दक्षता थी। पत्रकारिता को अब ऐसे ही प्रोफेशनल्स चाहिये।

स्पॉट रिपोर्टिंग के दौरान धधकती धूप में जले और धुरियाये रिपोर्टर की देह से संपादक को प्याज और लहसुन की बदबू आती थी ।
— जाओ मिश्र जी ( चीफ रिपोर्टर या ब्यूरो हेड ) को दे दो ( खबर या रिपोर्ट की कॉपी )
— जी…
— और सुनो थोड़ा प्रजेन्टेबुल बनो , इस तरह नहीं चलेगा । अखबार का हर कर्मचारी उसका ब्रांड दूत होता है ।
— जी …
उस निहायत कम तनख्वाह पाने वाले रिपोर्टर ने सब्जी और नून – तेल से कटौती कर अपने लिए एक ब्रांडेड शर्ट खरीदी ।

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राजनीति में भी औरत की साझेदारी या हैसियत, मर्दवादी व्यवस्था से दान में ही मिली या तय की गयी । नतीजतन स्त्री की सत्तासीनता में उसकी उम्र ( कमसिन होना ) या देह ही महत्वपूर्ण होती गयी। इसीलिए कमसिन और खूबसरत औरतें तो राजनीति में जगह पा जाती हैं लेकिन 50 पार की थकी मान ली जाती हैं। तमाम राजनीतिक दलों में ( वाम दल छोड़ ) औरत की वह पृष्ठभूमि किनारे कर दी गयी है ,जो उसके मुकम्मल जनतांत्रिक नागरिक अधिकार का निर्धारक हो सकती थी  कम से कम पूरी गाय पट्टी का तो यही रवैया है।

राजनीतिक दलों में किसी महिला की नागरिक-सामाजिक हैसियत से ज्यादा, उसकी आंख, कमर, छाती, अलग- अलग तरह के बाथ से खूब खुली कांतिवान खाल ही चर्चा होती है। जिम और ब्यूटी पार्लर का राजनीतिकरण हुआ है और राजनीति स्लिम होती जा रही है। औरत की यही उपयोगिता मल्टी नेशनल कम्पनियों और आवारा पूंजी ने तय की है। कुछ राजनेता तो ख़ूबसूरतियों से ही हाथ मिलाते हैं, अपने इर्द – गिर्द उन्हें ही रखते हैं  जाहिर है वे कारपोरेट कल्चर और वर्चस्व के हिमायती हैं , उनकी पार्टी भी अब बड़ी कारपोरेट हो गयी है।

नयी पीढ़ी का कोई गांधी कारपोरेट के खिलाफ लगातार चिल्ला रहा है, लोग उसकी सुनने भी लगे हैं शायद ।

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(भाऊ नाम से मशहूर वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र दुबे ने लखनऊ,गोरखपुर, दिल्ली से लेकर कोलकाता तक में लंबे समय तक पत्रकारिता की है। भाऊ अपनी बेबाक बयानी और भाषा के लालित्य के लिए ख़ासतौर पर मशहूर हैं।)

 



 

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