एससी- एसटी एक्ट के विरोध की राजनीति
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इसके कुछ दिन पहले एससी-एसटी एक्ट तथा आरक्षण विरोधियों द्वारा, पूरे देश में मोदी सरकार द्वारा इस एक्ट के सम्बन्ध में सुप्रीम कोर्ट द्वारा पिछले वर्ष जारी किये गये दिशा निर्देशों को निरस्त करके इसकी बहाली हेतु किये गये संशोधन के विरोध में उग्र प्रदर्शन किये गये थे। वास्तव में मायावती और मोदी सरकार द्वारा की गयी कार्यवाही कोई सीधी साधी कार्यवाही नहीं है, बल्कि यह सब इस एक्ट पर की गयी अथवा की जा रही राजनीति है।
सर्वविदित है की यह एक्ट, दलितों पर होने वाले अत्याचार को रोकने के लिए लिए एक प्रभावी कानून है परन्तु इसे शुरू से ही प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया गया जिसके फलस्वरूप दलितों पर अत्याचार बराबर बढ़ते रहे हैं और आज भी हो रहे हैं। इसका मुख्य कारण कानून की कमजोरी नहीं बल्कि इसे लागू करने हेतु राजनैतिक इच्छा शक्ति का अभाव रहा है। सभी सरकारें इसको प्रभावी ढंग से लागू करके अत्याचार करने वाले सामंत/दबंग सवर्णों को नाराज़ करने से बचती रही हैं और दलितों के साथ हमदर्दी का झूठा दिखावा भी करती रही हैं। वास्तव में इस एक्ट के साथ भी आरक्षण की तरह राजनीति की जाती रही है और आज भी हो रही है।
आइए सबसे पहले मायावती द्वारा इस एक्ट पर की गयी राजनीति तथा वर्तमान दावे की समीक्षा करें। एक तरफ मायावती दलितों की मसीहा बन कर सत्ता में चार बार आती रही हैं और दूसरी तरफ एससी-एसटी एक्ट के साथ राजनीतिक खिलवाड़ करके सवर्णों को खुश करने के इरादे से दलितों को भारी नुक्सान पहुंचाती रही है। सबसे पहले मायावती ने 22 सितम्बर,1997 को अनुसूचितजाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम,1989 का प्रभावी क्रियान्वयन एवं उसका दुरूपयोग रोकना विषयक शासनादेश जारी किया था जिसमें इस एक्ट के दुरूपयोग होने तथा उसको रोकने के लिए गहन जांच पड़ताल किये जाने के निर्देश दिए थे। इस आदेश में इसका दुरूपयोग करने वालों को दण्डित करने पर भी बल दिया गया था। इस आदेश के पीछे मायावती की दलितों की बजाये सवर्णों की अधिक चिंता दिखाई दे रही थी क्योंकि तब तक मायावती बहुजन की बजाय सर्वजन की राजनीति की तरफ कदम बढ़ा रही थी। मायावती के इस शासनादेश से पुलिस अधिकारियों में यह सन्देश गया था कि उन्हें इस एक्ट को लागू करने में बहुत सरगर्मी नहीं दिखानी है और एस एक्ट के अंतर्गत मुकदमों की संख्या भी कम रखनी है क्योंकि मायावती अपराध के आंकड़ों को कम रखने पर बहुत जोर देती रही है।
इसके बाद मायावती ने 2002 में तो एक्ट का गला ही घोंट दिया। 12 जून, 2002 को जारी किये गये शासनादेश में यह अंकित किया गया कि कतिपय लोग इस एक्ट का सहारा लेकर सरकार को बदनाम करने का प्रयास रहे हैं, अतः ऐसे मामलों में सत्यता की पुष्टि करने के बाद ही मुकदमा दर्ज किया जाये। छोटे छोटे मामलों का निस्तारण सामान्य कानून (आईपीसी आदि) तथा गंभीर मामले जैसे हत्या और बलात्कार आदि के मामलों में ही एससी-एसटी एक्ट के अंतर्गत केस दर्ज किया जाये परन्तु बलात्कार के मामलों में भी डाक्टरी परीक्षण के बाद प्रथम दृष्टया प्रमाणित होने पर ही केस दर्ज किया जाये। यह शासनादेश दलित हितों पर सीधा कुठाराघात था। इस के फलस्वरूप इस एक्ट के अंतर्गत अत्याचार के 21 अपराधों में से 19 अपराधों में यह एक्ट लगाया नहीं जाना था और शेष दो (हत्या और बलात्कार) में भी डाक्टरी परीक्षण से सत्यापन होने पर ही लगाया जाना था इस आदेश का दुष्परिणाम यह हुआ कि एक तो अत्याचार के मामलों में रिपोर्ट लिखाना ही कठिन हो गया और दूसरे दो अपराधों को छोड़ कर शेष मामलों में यह एक्ट लगाया ही नहीं गया। इससे न तो अत्याचार करने वालों को सज़ा मिली और न ही दलितों को इस एक्ट के अंतर्गत मिलने वाला मुआवज़ा ही मिला। मायावती के इस कृत्य की कानूनी स्थिति यह थी कि उनका यह आदेश पूरी तरह से असंवैधानिक था क्योंकि एससी-एसटी एक्ट केन्द्रीय अधिनियम है और इसमें राज्य सरकार को कोई भी परिवर्तन करने का अधिकार नहीं है। फिर भी मायावती ने बहुजन हित की बलि देकर सर्वजन हित की रक्षा करने का दुस्साहस किया।
यह भी बड़े आश्चर्य की बात है कि मायावती के इतने बड़े दलित विरोधी कृत्य का उदारवाद के शिकार दलितों द्वारा कोई व्यापक विरोध नहीं किया गया। केवल हम लोगों ने कुछ अन्य लोगों से मिल कर इस गैर कानूनी और दलित विरोधी आदेश को इलाहबाद उच्च न्यायालय में जनहित याचिक द्वारा चुनौती दी और इसे 2003 में रद्द करवाया। उच्च न्यायालय के इस आदेश के बाद उक्त आदेश को रद्द करते हुए जो आदेश 11 अगस्त, 2003 को जारी किया गया उसमें भी इस एक्ट के दुरूपयोग को रोकने की सख्त हिदायत की गयी जिसका इशारा पुलिस वाले बहुत अच्छी तरह से समझते थे। इसका नतीजा यह हुआ कि मायावती के शासनकाल में दलितों पर अत्याचार तो बराबर होते रहे परन्तु अपराध के आँकड़े कम दिखाने के चक्कर में उनकी एफआईआर दर्ज नहीं होती थी। 2007 में एक अध्ययन में पाया गया की दलित महिलायों से हुए बलात्कार के केवल 50% मामले ही थाने पर दर्ज किये गये जबकि इनमे से 85% मामले नाबालिग दलित लड़कियों के थे। इसके इलावा से बहुत मामले ऐसे भी थे जो थाने तक पहुँचाए ही नहीं गये। वैसे भी यह सर्वविदित है कि थाने पर एफआईआर दर्ज कराना सबसे कठिन काम होता है और गरीब और दलित वर्ग के लोगों के लिए तो और भी अधिक।
अब मायावती फिर यह दावा कर रही है यदि वर्तमान सरकारें उनकी तरह एससी-एसटी एक्ट लागू करें तो यह संविधान की भावना के अनुरूप होगा और इसका किसी भी तरह से दुरूपयोग नहीं होगा। अब मायावती के इस दावे की उपयोगिता का अंदाज़ा आप खुद लगा सकते हैं कि उसका यह कृत्य कितना दलित हित में और कितना उनपर अत्याचार करने वालों के हित में है। दरअसल मायावती का यह कृत्य पूरी तरह से राजनीतिक था क्योंकि अब उन्हें बहुजनों के समर्पण के बारे में कोई शंका नहीं थी और उनका सारा ध्यान सर्वजन को खुश रखने में लगा था। हाँ, इतना ज़रूर है कि इससे पहले भाजपा के मुख्य मंत्री रहे कल्याण सिंह तथा समाजवादी पार्टी के मुख्य मंत्री मुलायम सिंह यादव ने भी इस एक्ट के दुरूपयोग के बारे में बयान तो ज़रूर दिया था परन्तु जो कदम मायावती ने उठाया वैसा करने की हिम्मत वे नहीं जुटा पाए थे।
अब यदि इस एक्ट पर मोदी सरकार की कारगुजारी को देखा जाए तो यह भी दलितों के हित को नज़रंदाज़ करके सर्वजन (सवर्ण) को खुश करने की ही राजनीति है। यह बात और भी अधिक स्पष्ट हो जाती है जब हम इस एक्ट को सुप्रीम कोर्ट में दी गयी चुनौती के सम्मुख मोदी सरकार की कारगुजारी को देखते हैं। यह सर्वविदित है कि कोर्ट में सरकारी वकील ने अपीलकर्ता के तर्कों का विरोध न करके स्वयं यह कहा कि ‘हाँ इस एक्ट का दुरूपयोग होता है’ और इसके लिए दिशा निर्देश जारी करने की ज़रुरत है। इसका नतीजा यह हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने एक्ट के क्रियान्वयन के सम्बन्ध में जाँच उपरांत ही प्रथम सूचना लिखने, अनुमति से ही गिरफ्तारी करने एवं आरोप पत्र भेजने हेतु दिशा निर्देश पारित कर दिए जिससे उक्त एक्ट का पूरी तरह से शिथिलीकरण हो गया। सुप्रीम कोर्ट एक्ट का बचाव न करके भाजपा ने दलित हितों को दरकिनार करके सवर्ण वोटों को ही साधने की कोशिश की थी।
सुप्रीम कोर्ट में मोदी सरकार द्वारा इस एक्ट के दुरूपयोग सम्बन्धी उचित पक्ष न रखने तथा सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसको लागू करने की प्रक्रिया के सम्बन्ध मे दिशा निर्देश जारी करने से पूरा दलित वर्ग आक्रोशित हो उठा और उसकी परिणति 2 अप्रैल के भारत बंद में हुई। इस बंद के दौरान भाजपा शासित राज्यों में पुलिस की मौजूदगी में एक्ट के विरोधियों द्वारा हिंसक विरोध किया गया तथा प्रदर्शनकारियों पर गोलियाँ चलाई गईं। पुलिस द्वारा उन्हें रोकने की बजाय दलित प्रदर्शनकारियों पर ही गोली चलाई गयी तथा अत्यधिक बल प्रयोग किया गया जिसके फलस्वरूप मध्य प्रदेश में 8, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश में 2-2 दलितों की मौत हुईं। हजारों दलितों के विरुद्ध मुक़दमे दर्ज किये गये, सैंकड़ों गिरफ्तारियां की गयीं तथा थानों पर उनकी निर्मम पिटाई की गयी। उत्तर प्रदेश में दो दलितों पर रासुका लगाया गया। बहुत से दलित महीनों जेल में रह कर छूटे हैं और कुछ अभी भी जेल में हैं। इस मामले में किया गया दलित- दमन भाजपा की अपने विरोधियों के विरुद्ध दमन और आतंकित करने की राजनीति का हिस्सा है।
एससी-एसटी एक्ट के बारे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गये दिशा निर्देश तथा 2 अप्रैल को भारत बंद को लेकर दलितों के दमन से उन में भाजपा के विरुद्ध बढ़ रहे आक्रोश एवं आसन्न 2019 के चुनाव के सम्मुख मोदी सरकार को मजबूर हो कर संसद में संशोधन बिल ला कर सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गये दिशा निर्देशों को रद्द करना पड़ा और एससी-एसटी एक्ट को बहाल करना पड़ा। इसके पीछे भाजपा की मंशा दलितों के आक्रोश को कम करना था परन्तु इससे दलित अधिक प्रभावित नहीं हुए। इसके विरोध में कुछ आरक्षण विरोधियों ने भारत बंद का आह्वान किया और वे सड़क पर आये परन्तु भाजपा शासित राज्यों में उन लोगों पर कोई सख्ती नहीं दिखाई गयी जैसी कि 2 अप्रैल को दलितों के बंद पर दिखाई गयी थी। यह भी ज्ञातव्य है कि 2 अप्रैल के बंद के दौरान दलितों के शंतिपूर्ण बंद में कुछ आरक्षण विरोधी तत्वों ने घुस कर गड़बड़ी फैलाई और पुलिस को दलितों के दमन का मौका दिया। अब संसद द्वारा एक्ट के संशोधन के विरुद्ध किये जा रहे प्रदर्शन भी भाजपा की नूरा-कुश्ती है जिसके माध्यम से दलित एक्ट को बदनाम करना और दलितों को यह जताना है कि वह अपने लोगों का विरोध सह कर भी दलितों के पक्ष में खड़ी है। दूसरी तरफ भाजपा के वरिष्ठ नेता संशोधन के विरोध में बराबर बयान दे रहे हैं। बीजेपी नेता सुमित्रा महाजन (स्पीकर लोकसभा) ने तो यहाँ तक कह दिया कि हम लोगों ने गलती से दलितों को पूरा लालीपाप दे दिया और अब उसे एकदम छीनेंगे तो दलित नाराज़ होंगे। आगे उसे धीरे धीरे छीनेंगे तो कोई बड़ा हल्ला-गुल्ला नहीं होगा। इससे भी आप भाजपा के दलित प्रेम और एससी-एसटी एक्ट के बारे में नजरिये का अंदाज़ा लगा सकते हैं।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि अब तक सभी राजनितिक पार्टियाँ, चाहे वह भाजपा, बसपा और सपा हो, सभी एससी-एसटी एक्ट पर राजनीति करती रही हैं और किसी पार्टी ने भी इसे ईमानदारी से लागू करने तथा इसके लिए वांछित स्तर की राजनीतिक इच्छा शक्ति का परिचय नहीं दिया है। एक तरफ दलितों पर अत्याचार के मामले लगातार बढ़ रहे हैं और दूसरी तरफ इस एक्ट के बारे में भ्रान्तियां फैला कर इसे बदनाम किया जा रहा है ताकि इसे सख्ती से लागू न किया जाये. एक तरफ पुलिस का दलित विरोधी रुख सर्वविदित है और दूसरी तरफ सभी पार्टियाँ दलितों को नज़रंदाज़ करके सवर्णों के वोट को साधने की राजनीति कर रही हैं. वास्तव में एससी-एसटी एक्ट सभी राजनीतिक पार्टियों के विरोध तथा सवर्ण वर्ग को संतुष्ट रखने की राजनीति का शिकार हो कर रह गया है।
2019 का चुनाव दलितों को सभी राजनीतिक पार्टियों की करनी और कथनी में अंतर के मूल्यांकन का अवसर देता है जिसका उपयोग बहुत अकलमंदी से करना चाहिए।
आईपीएस रहे एस.आर.दारापुरी यूपी में पुलिस महानिरीक्षक पद से सेवानिवृत्त हुए। फिलहाल जन मंच उत्तर प्रदेश के संयोजक थे।