पहला पन्ना: टीकों का अंतराल आप बढ़ा रहे हैं तो स्वास्थ्य मंत्रालय क्या कर रहा है ‘सरकार’?

आज इंडियन एक्सप्रेस और द टेलीग्राफ को छोड़कर बाकी के अखबारों में कोविशील्ड की दो खुराक के बीच अंतर बढ़ाने के केंद्र सरकार के निर्णय या आदेश की खबर लीड है। इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर लीड नहीं है पर लीड के बराबर में टॉप पर है। सिर्फ टेलीग्राफ में यह खबर सिंगल कॉलम में है। मुझे लगता है कि यह इतनी बड़ी सूचना नहीं है कि इसे इतनी प्रमुखता से छापा जाए। आमतौर पर लोग व्हाट्सऐप्प की सूचना फॉर्वार्ड करते हुए समझते हैं कि हर जरूरतमंद सूचना के लिए उन्हीं के भरोसे है। फलां जगह कैंसर का इलाज मुफ्त होता है, फलां संस्था गरीब बच्चों को छात्रवृत्ति देती है और तो और फलां सज्जन अपने करीबी के अंग दान करना चाहते हैं।

आम लोग नहीं जानते हैं कि व्हाट्सआप का उपयोग करने वाला हर व्यक्ति ना कैंसर का मरीज होता है और ना बच्चे के लिए छात्रवृत्ति तलाश रहा होता है। वैसे भी, अधिकत्तम ढाई सौ लोगों के समूह में किसी को कैंसर हो, किसी गरीब का बच्चा मेधावी हो तो आपको पता होना चाहिए। पर आप उसकी सहायता की जगह सूचना फॉर्वार्ड करके अपना काम पूरा समझ रहे हैं। अंगदान के मामले में भी जबकि यह एक मुश्किल प्रक्रिया है और जरूरतमंदों की लाइन लगी है। सूचना पहुंचाने की उनकी अपनी व्यवस्था है और अंगदान करने की इच्छा भर से अंगदान संभव नहीं है। उसे निकालने की प्रक्रिया होती है, निश्चित समय में पूरी की जानी होती है तब यह संभव होता है। इसके लिए खास योग्यता वाले लोगों की जरूरत होती है। ऐसी सूचना ऐसे लोगों के समूह में तो ठीक है व्हाट्सऐप्प पर कौन इंतजार कर रहा होगा कि कोई अंग दान करने की सूचना आए तो मैं अस्पताल जाऊं। फिर भी ऐसा होता है और आम लोग करते हैं। लेकिन अखबार भी वही करें तो? प्रचार।

टीके की खुराक के बीच अंतराल बढ़ाने की सूचना उन्हीं लोगों के लिए है जो पहली खुराक लगवा चुके हैं या कुछ दिन में लगवाने वाले हैं। और यह सूचना टीका लगाने वाले अस्पतालों, केंद्रों, कर्मचारियों के जरिए जरूरतमंद लोगों को दी जा सकती है। इसके लिए अखबार की जरूरत ही नहीं है। इस सूचना को जरूरतमंदों की बजाय हर आम और खास लोगों तक पहुंचाने का मकसद सरकार का प्रचार करना भी है। बेशक टीके का पूरा मामला इलाज से ज्यादा प्रचार के रूप में चल रहा है। सरकार काम कर रही है तो प्रचार करे, उम्मीद भी करे लेकिन अखबार क्यों सहयोग कर रहे हैं?

वैसे भी, टीके या दवाई से संबंधित कोई फैसला दवाई बनाने वाले का होगा, इलाज करने वालों का होगा, चिकित्सा अनुसंधान से जुड़ी किसी संस्था का होगा या फिर स्वास्थ्य मंत्रालय का होगा। अगर यह बताया जाए कि कुछ लोगों को टीका लगने के बाद अब बीच में अंतराल बढ़ाने की जरूरत क्यों पड़ी तो यह खबर सबके या ज्यादा लोगों के मतलब की हो सकती है और इसमें बताने वाले का भी महत्व है। लेकिन हर काम ‘सरकार’ ही करे यह जरूरी नहीं है। और करे तो सरकार को प्रचार (या श्रेय) देने की क्या जरूरत? वह तो अपना काम कर रही है। मेरे ख्याल से कई लोगों को टीका लगने के बाद अब अंतराल बढ़ाना सामान्य मामला नहीं है।

और बात इतनी ही नहीं है। भारत में मुख्य रूप से दो कंपनियों के टीके लग रहे हैं। शुरू में इनमें कोई अंतर नहीं बताया गया। अब खुराक लेने के अंतराल में अंतर अलग रखने की जरूरत महसूस हुई तो क्यों इसका कारण भी बताया जाना चाहिए। यह काम स्वास्थ्य मंत्री, जो डॉक्टर भी हैं, से बेहतर कौन कर सकता है। यह सूचना स्वास्थ्यमंत्री देते तो टीका लगवाने वालों के अलावा उनके लिए भी काम की होती जो अभी तक तय नहीं कर पाए हैं कि टीका लगवाना है या नहीं और उन लोगों के लिए तो है ही जो नहीं लगवाना चाहते हैं या जिन्हें टीका लगवाने की हिम्मत नहीं है। पर खबरों में ऐसी कोई सूचना नहीं है। आम तौर पर खबर क्या है वह शीर्षक से तय होता है। लीड के उपशीर्षक,  फ्लैग, इंट्रो, बॉक्स आदि होते हैं उनमें दूसरी प्रमुख बातें होती हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया के लीड के साथ बॉक्स में बहुत सारी सूचनाएं होती हैं। आइए देखें कौन क्या बता रहा है। इससे आप समझ जाएंगे कि ऊपर मैंने जा जानना चाहा है वह कोई बता रहा है कि नहीं। पहले तो शीर्षक

  1. हिन्दुस्तान टाइम्स

कोविशील्ड टीके की खुराक का अंतर बढ़ाकर 6-8 सप्ताह किया जाए : केंद्र

इसके साथ एक खबर है, वायरस को आस्था के भरोसे छोड़ने के बाद रावत कोविड संक्रमित हुए। इसे हिन्दुस्तान टाइम्स के ही शीर्षक, “मुख्यमंत्री का दावा, कुम्भ में आस्था कोविड-19 के डर को हरा देगी” के साथ पढ़िए। आज मुख्य खबर के साथ प्रकाशित विवरणों में कोविशील्ड को बुजुर्गों के लिए अच्छा बताया गया है।

  1. इंडियन एक्सप्रेस

कोविशील्ड की दो खुराक के बीच अंतर बढ़ाकर 4-8 सप्ताह किया गया (यह शीर्षक हिन्दुस्तान टाइम्स से अलग है पर ऐसे ही है)। शीर्षक में यह नहीं बताया गया है कि अंतर किसने बढ़ाया या बढ़ाने के लिए कहा। लेकिन खबर शुरू ही होती है, सेंट्रल गवरन्मेंट यानी केंद्र सरकार से। आज ही खबर है कि लोकसभा में उस विधेयक को मंजूरी मिली जिसके अनुसार दिल्ली सरकार का मतलब एलजी होता है। केंद्र सरकार का मतलब क्या होता है यह आप जानते हैं।

  1. टाइम्स ऑफ इंडिया

कोविशील्ड के टीकों के बीच सरकार ने अंतराल बढ़ाकर 4-8 सप्ताह किया। इस खबर के साथ इंट्रो में इसका कारण बताया गया है, दूसरी खुराक 6-8 हफ्ते बाद ली जाए तो बचाव बेहतर होता है। टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर कहती है, स्वास्थ्य मंत्रालय ने कोविशील्ड वैक्सीन की दो खुराक के बीच अंतराल को संशोधित कर दिया।

  1. द हिन्दू

कोविशील्ड की दो खुराक के बीच अंतर बढ़ाएं, केंद्र ने कहा

उपशीर्षक – केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने राज्यों, केंद्र शासित प्रदेशों को लिखा, 6-8 सप्ताह के अंतराल पर टीका ज्यादा प्रभावी है।

अगर पहले से तय अंतराल कम था तो अंतराल बढ़ाना प्रभावी होगा, कैसे पता चला? अगर यह किसी प्रयोग के बाद पता चला तो क्या दवाई देना शुरू करने से पहले यह सब प्रयोग नहीं हो जाना चाहिए था?

  1. द टेलीग्राफ

कोविशील्ड की खुराक के बीच अंतर बढ़ाया गया (मुझे लगता है कि तमाम सवालों का जवाब दिए बिना अगर यह खबर है तो इसी शीर्षक के लायक)। वैसे भी यह खबर इतनी बड़ी नहीं है कि केंद्र सरकार को इतना प्रचार दिया जाए। अगर बनानी थी तो स्वास्थ्य मंत्री (या कम से कम मंत्रालय की प्रेस कांफ्रेंस होनी चाहिए थी। पर इन सवालों के जवाब कैसे मिलते?

हिन्दुस्तान टाइम्स में इस खबर का  पहला  वाक्य है, “…. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक बयान में कहा।” बेशक, केंद्र सरकार के लिए केंद्र या सेंटर लिखा जा सकता है लेकिन जब केंद्र सरकार कह रही है कि दिल्ली सरकार मतलब एलजी होता है तो क्या केंद्र से केंद्र के एलजी यानी देश के प्रधानसेवक का बोध नहीं होता है?

इस खबर के साथ जो खबर कम छप रही है वह है, देश में महामारी का दूसरा दौर चल रहा है। संक्रमितों की संख्या दूनी होने के लिहाज से यह दौर पिछले के मुकाबले दूना है। यानी आधे समय में मरीज की संख्या दूनी हो रही है। पिछले साल इससे कमजोर या बेहतर हालत में अस्पतालों के ओपीडी बंद थे। अब टीके लगाए जा रहे हैं जिसकी दूसरी खुराक आठ हफ्ते बाद लगेगी यानी पहली खुराक लगवाने के बाद दूसरी खुराक लगने तक आम आदमी कितना असुरक्षित रहेगा इसका कोई आकलन है कि नहीं – यह नहीं पता है और क्या यह स्थिति खराब नहीं है? खासकर तब जब पिछली बार बचाव की कोशिश में बंद के कारण लोगों के डायलिसिस नहीं हो पाए। थैलेसीमिया के मरीजों को खून चढ़ाने का जरूरी काम नहीं हो पाया। मेरी चिन्ता यह है कि पिछले साल के मुकाबले इस साल की यह छूट (साथ में टीका लगवाने अस्पताल जाना) घातक नहीं है? अगर इस साल संक्रमण की रफ्तार दूनी होने पर भी सब ठीक है तो क्या पिछले साल की पाबंदियां बेमतलब थीं? हमने एक साल में क्या कुछ जाना, सीखा समझा या वैसे ही हैं?


लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

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