कश्मीरनामा:इतिास और समकाल’ हाल में प्रकाशित हिंदी के सबसे चर्चित किताब मानी गई है। कश्मीर के बारे में हिंदी में ऐसा दस्तावेज़ी प्रयास पहले नहीं हुआ था। इस किताब को लिखा हैं कवि-लेखक अशोक कुमार पाण्डेय ने। वे इन दिनों कश्मीर में हैं। घूमने से ज़्यादा ब़ड़ा मक़सद शायद कश्मीर पर एक और किताब की तैयारी है। मीडिया विजिल ने उनसे अनुरोध किया कि वे अपने अनुभव को लिखते जाएँ ताकि हिंदीभाषी लोग ज़मीन की वह तस्वीर भी देख पाएँ जो कथित मुख्यधारा मीडिया में कश्मीर के नाम पर होने वाली दैनिक गोलाबारी में ग़ायब है। यानी कश्मीर की ग्राउंड रिपोर्ट। अभारी हैं कि वे मान गए, गोकि लिखने के लिए मोबाइल ही है, और यह तक़लीफ़देह होगा। तस्वीरें भी उन्होंने ही भेजी हैं। पेश है,इस सिलसिले की तीसरी किस्त-संपादक
अशोक कुमार पाण्डेय
ख़ैर, हुर्रियत ने कल बन्द का कॉल दिया था तो हमने श्रीनगर लौटने की जगह आसपास के गाँवों में घूमना तय किया। कुछ लोगों से बातचीत करते पता चला कि पास के वलरहामा गाँव में पंडितों के कई घर हैं। हम पहुँचे रतनलाल तलाशी के घर।
आम मध्यवर्गीय घर। नीचे दो दुकानें जिनमें वह किराने की दुकान चलाते हैं। आज बंद के आह्वान के कारण दुकान बन्द थी तो मियाँ बीबी खेतों में काम कर रहे थे। घर से लगा किचन गार्डन जैसा खेत जिसमें सेब के कुछ पेड़ और स्ट्रॉबेरी के अलावा साग सब्जियां लगी थीं। ख़बर मिलते ही उत्साह से भागे हुए आये। हाथ मिलाया और बैठक में ले गए। पारंपरिक कश्मीरी घरों की बैठकों में फर्नीचर की कोई जगह नहीं होती। एक खूबसूरत सी दरी और दीवारों से टिकने के लिए कुशन। टीवी पर कोई सास-बहू सीरियल चल रहा था। उनकी पत्नी शशि पानी का ट्रे ले आईं और बातचीत शुरू हुई।
(घर की बैठक में रतनलाल और शशि)
रतनलाल वोकल हैं। सीधे मुद्दे पर आते हैं – समस्या 1986 से शुरू हुई। राममंदिर का दरवाज़ा खोला गया तो यहाँ पहले कम्युनल दंगे हुए। उसी समय मंदिर जलाए गए, कुछ घर भी। कुछ कश्मीरी पंडितों की भी हत्या हुई।
मैने रोककर पूछा कि उन दंगों का आरोप तो मुफ़्ती मोहम्मद सईद पर लगा था। एक फीकी हँसी के साथ शशि कहती हैं अब हमें क्या पता किसने कराया था लेकिन हुए तो थे।
रतनलाल बताते हैं, 1989 में माहौल ख़राब हो गया था। फिर भी लोग जाने के बारे में नहीं सोच रहे थे। लेकिन पास के गाँव में ग़ुलाम नबी कोलर की हत्या के बाद डर का माहौल बन गया। ग़ुलाम नबी कांग्रेस के बड़े नेता थे, इंदिरा गाँधी के क़रीबी रहे थे । उनके रहते हम सुरक्षित महसूस करते थे। उनकी हत्या के बाद लगा किसी को भी मारा जा सकता है। जगमोहन ने एक-एक हज़ार रुपये दिए और जम्मू में बसाने की बात की तो लोग निकलने को तैयार हो गए। इस गाँव में 32 पंडित परिवार थे। अब केवल 4 रह गए हैं। ज़्यादातर टीचर थे, कुछ बिजनेस करते थे और खेती भी थी।
मैने फिर टोका, सिर्फ़ एक हज़ार के लिए ऐसे लोग तो घर नहीं छोड़ेंगे।
रतनलाल फीकी हँसी हंसते हैं, 1989 में एक हज़ार मामूली रकम नहीं थी। फिर डर था ही।
आप नहीं डरे?
मैं तो बच्चा था। मेरे अंकल ने कहा जियेंगे तो यहीं मरना होगा तो यहीं मर जायेंगे। गाँव में किसी पंडित को नहीं मारा गया था न कोई और घटना। वह नहीं गए। इतने सालों में हम भी सुरक्षित हैं। एक बेटा है वह बारहवीं करके अहमदाबाद चला गया इंजीनियरिंग करने। बेटी जम्मू से कॉलेज कर रही है।
मैं फिर से पूछता हूँ – जम्मू और दीगर जगहों पर जो पंडित रह रहे हैं वे तो बहुत तरह की बातें करते हैं। देश भर में फैलाया जाता है कि कश्मीर में एक भी मंदिर नहीं बचा है। सब जला दिए गए।
वह थोड़ा उत्तेजित से हो उठते हैं – जम्मू वालों का तो काम है यह। वे तो कहेंगें ही। आपको बताऊं कि बाहर से जो मिलिटेंट आते हैं उन्हें भी यही कहकर भेजा जाता है कि कश्मीर में मुसलमान को अजान नहीं पढ़ने दी जाती। जब वह यहाँ आता है तो देखता है सब झूठ है। 1986 के बाद यहाँ तो कोई मंदिर नहीं जलाया गया। आप हमारे गाँव में जाकर देख लो। पुराना मंदिर है। अब भी पूजा पाठ होती है।
हम मंदिर के लिए निकल पड़ते हैं। रास्ते में एक बड़ा सा घर है ख़ाली। पुराने तरीके का तीन मंज़िला घर। शशि बताती हैं कि यह त्रैलोक्य नाथ जी का घर था। वह टीचर थे। 1989 में चले गए वह। मैने पूछा लौटकर कभी नहीं आये? जवाब उनके एक मुस्लिम पड़ोसी ने दिया जो हमारे साथ हो लिए थे, ‘त्रैलोक्य नाथ जी आते हैं कभी कभी। पिछले साल खीर भवानी के मेले में आये थे तो यहाँ भी आये थे। हमने किसी घर को नहीं छुआ। देखिए अखरोट के दरख़्त भी साबुत हैं सब। ताला भी उन्हीं का लगाया हुआ है।’
(त्रैलोक्यनाथ का बंद तिमंजला मकान)
मैं शशि से मुख़ातिब होता हूँ, ‘आपको लगता है ये लोग लौटकर आएंगे?’ वह मुस्कुराती हैं। वही फीकी मुस्कुराहट, ‘जो गए वे बूढ़े हो गए हैं। बच्चे सब जम्मू, दिल्ली, अहमदाबाद में सेटल हो गए। यहाँ के लड़के ही रोज़गार के लिए बाहर जा रहे हैं। वहाँ से कौन लौटेगा अब? बहुत से लोगों ने खेत मक़ान सब बेच दिया। जिनके हैं वे आते हैं कभी कभार। कब्ज़े नहीं हुए यहाँ। सब सुरक्षित है। लेकिन यहाँ आकर करेंगे क्या?’
(गाँव का मंदिर)
गाँव के बीच में एक छोटा सा मंदिर है। सामने एक मज़बूत दरख़्त। भीतर शिवलिंग के अगल बगल हनुमान और दुर्गा सहित अनेक तस्वीरें। शशि बताती हैं कि वही यहाँ साफ़ सफाई वगैरह कर जाती हैं। थोड़ी दूर पर एक घर है। पक्का और बड़ा। सामने गाय बंधी है और चावल के बोरे रखे हैं। बाउंड्री पर लकड़ी की बाड़ है और उसी का दरवाज़ा जिसे खोलकर हम भीतर चले जाते हैं। यह चाँद रैना का घर है। उनसे भी थोड़ी सी बात होती है। बताते हैं कि 1989 में नहीं जाने का निर्णय लिया था और उसका कोई पछतावा नहीं। ठीकठाक खेतिहर हैं और बेटा राज्य सरकार में नौकर।
लौटकर आये हम तो कहवे के साथ बातचीत शुरू हुई। रतनलाल कहते हैं, सरकार ने हमारी कोई मदद नहीं की। जो बाहर गए उनको मुआवज़ा मिला नौकरी मिली। सब उनकी बात करते हैं। लेकिन जो यहीं रह गए उनकी कोई बात नहीं करता। यहाँ कोई रोज़गार नहीं। इंडस्ट्री नहीं। लोग क्या करेंगे? बच्चे बाहर जा रहे हैं।
मुझे अचानक सरयू के किनारे का अपना गाँव याद आता है। मेरी पीढ़ी का कोई नहीं जो वहाँ रहता हो। रोज़गार वहाँ भी नहीं। घर तो हमने भी छोड़ा, बस यह कि कोई राजनैतिक वजह नहीं थी। कह सकते हैं अपने मन से छोड़ा। पर रोज़गार का मामला अखिल भारतीय है।
विकास के शहर केंद्रित मॉडल में गाँवों और पिछड़े इलाक़ों से पलायन वैसे तो सामान्य सी अवधारणा है लेकिन कश्मीर की राजनीति से मिलकर यह विकट होती जाती है। यहाँ एक सवाल और महत्त्वपूर्ण है कि 200 किलोमीटर पार जम्मू पहुँचते ही कश्मीरी पंडित शेष भारत के साथ आसानी से घुलमिल जाता है। जगह है उसके पास जाने को, लेकिन कश्मीरी मुस्लिम कश्मीर के बाहर संदिग्ध है। कहीं भी उस पर हमला हो सकता है।
रास्ते में हमारे होस्ट समीर लगातार हमें बताते रहते हैं कि यहाँ जो हिन्दू रह गए उनसे कोई भेदभाव नहीं होता। शशि की आँखें कभी इसकी गवाही देती हैं कभी नहीं। कश्मीरी मुसलमान के यहाँ पंडितों के पलायन का गिल्ट लगातार उपस्थित है। उनका पूरा आंदोलन इस एक परिघटना से सवालों के घेरे में आ गया। अचानक शशि इशारा करती हैं, इस घर को जला दिया गया था। सामने एक अधजला घर है। ताला उस पर भी है। सामने अखरोट का दरख़्त भी। सब अचानक शांत हो जाते हैं।
लौटते हुए रास्ते में हम कोलर गाँव मे रुकते हैं। ग़ुलाम नबी का बेटा कांग्रेस का नेता है। मन था मिलने का लेकिन वह आज कहीं बाहर हैं। गाड़ी ऊपर महाराजा हट की ओर मोड़ ली जाती है। एक पहाड़ी पर औरा गांव में महाराजा हरि सिंह का बनवाया लकड़ी का सुंदर सा स्ट्रक्चर जिसके बगल से झरना बहता है। अब यह वाइल्डलाइफ डिपार्टमेंट का रेस्ट हाउस है। समीर हमें भुर्ज पत्र लाकर देते हैं और बताते है कि पहले इसी पर लिखना होता था।
फिर देर रात लिद्दर के किनारे एक ऊँचे पत्थर पर बैठे समीर जैसे ख़ुद से बात कर रहे हैं, इधर पत्थर चलता है उधर से गोली। सड़क बंद। स्कूल बंद। व्यापार बंद। आम आदमी क्या करे! आज बड़ा दिन है दस दिन बाद रोज़े शुरू हो जाएंगे और आधे कश्मीर में कर्फ्यू जैसे हालात हैं। मेरा जीजा था। पुलिस उसे अपनी मदद के लिए ले गई। अंदर माइन रखने भेजा, फट गया और मारा गया। उसका बाप हज करने गया था। लौटा तो बताया नहीं गया। क़ब्र पर दुआ पढ़ने गया तो अनजाने में ही बेटे की कब्र पर भी दुआ पढ़ आया। हर तरफ़ ऐसे किस्से हैं। सब है बस सुकून नहीं है। किसी को सुकून नहीं। न हिन्दू को न मुसलमान को न सिख को। हमें न पाकिस्तान चाहिए न हिंदुस्तान न कुछ और बस सुकून चाहिए अब। बहुत हो गया।
(लिद्दर किनारे समीर और अशोक)
लिद्दर की राफ्ट्स को निहारता अचानक ऊपर देखता हूँ तो हर दृश्य हिलता हुआ लगता है, हर परसेप्शन भी।
पिछली कड़ियाँ–
2. “पॉलिटिक्स ने बर्बाद कर दिया वरना कश्मीर में हिन्दू-मुसलमान का फ़र्क़ नहीं होता!”
1. इंडिया जानता है कि कश्मीर में क्या चाहता है?