इंडिया जानता है कि कश्मीर में क्या चाहता है?

‘कश्मीरनामा:इतिास और समकाल’ हाल में प्रकाशित हिंदी के सबसे चर्चित किताब मानी गई है। कश्मीर के बारे में हिंदी में ऐसा दस्तावेज़ी प्रयास पहले नहीं हुआ था। यह किताब लिखी है कवि -लेखक अशोक कुमार पाण्डेय ने। वे इन दिनों कश्मीर में हैं। घूमने से ज़्यादा ब़ड़ा मक़सद शायद कश्मीर पर एक और किताब की तैयारी है। मीडिया विजिल ने उनसे अनुरोध किया कि वे अपने अनुभव को लिखते जाएँ ताकि हिंदीभाषी लोग  ज़मीन की वह तस्वीर भी देख पाएँ जो कथित मुख्यधारा मीडिया में कश्मीर के नाम पर होने वाली दैनिक गोलाबारी में ग़ायब है। यानी कश्मीर की ग्राउंड रिपोर्ट। अभारी हैं कि वे मान गए, गोकि लिखने के लिए मोबाइल ही है, और यह तक़लीफ़देह होगा। तस्वीरें भी उन्होंने ही भेजी हैं। ऊपर मुख्य तस्वीर में बकरवालों के घर दिख रहे हैं। पेश है, इस सिलसिले की पहली किस्त-संपादक

 

अशोक कुमार पाण्डेय

 

“आप ही लोग हमारी रोजी रोटी हो। कश्मीर में न खेती बाड़ी है न इंडस्ट्री। आप लोग से नहीं कमाएंगे तो क्या पाकिस्तान से कमाएंगे?”

इन दो वाक्यों में तनमर्ग बस स्टैंड पर गुलमर्ग के लिए गम बूट और जैकेट लेने का इसरार करता युवा कश्मीर की तमाम विडंबनाओं को समेट लेता है जैसे। हमें गुलमर्ग रुकना भी था और इस इलाके से ख़ूब परिचित होने की वजह से यह भी पता था कि यह सब गुलमर्ग में भी इसी रेट पर मिल जाता है तो उसे मना कर दिया। थोड़ी देर और इसरार करने के बाद उसका गुस्सा फूटा, ‘अगले साल आओ तो वीजा लगना चाहिए आपका। पाकिस्तान से ही कमाएंगे हम।’  यह एक दूसरी विडंबना है।

परसेप्शन का खेल मज़ेदार होता है – शनिवार को श्रीनगर के लाल चौक पर पीक व्यू रेस्तरां में भाई निदा नवाज़ के साथ आये कश्मीरी पत्रकार मोहनलाल ललगामी ने यह हज़ार बार सुनी सुनाई बात कुछ अलग अंदाज में कही। रिस्ता चावल खाने के बीच में अचानक वह बोले-” देखिए अन्याय का तो यह है कि आपने मान लिया कि फ़ैसला करने वाला दुश्मन है तो रेड लाइट लगवाना भी आपको दुश्मनी निभाना लगेगा और दोस्त माना तो आपका घर भी तुड़वा दे थोड़ा तो आपको बहुत दर्द नहीं होगा।” घाटी में बच गए कश्मीरी पंडितों की भाषा वैसे भी मुझे हर बार परतदार लगी है, वैसे तो शायद हर कश्मीरी की।

तो वह परशेप्शन ही है जिसके चलते वह युवा जूते किराए पर न लेने को भी अन्याय की तरह देखता है। मैने हँसते हुए ही कहा, ‘भाई कश्मीर से मुहब्बत है तो वीज़ा लेके भी आएँगे लेकिन जो बिना वीजा के पाकिस्तानी टूरिस्ट आएँगे फिर उन्हें क्या धमकाओगे? कश्मीर में खेती या इंडस्ट्री तो तब भी नहीं लगने वाली और वे टूरिस्ट भी जेबें तो नहीं पलट देंगे तुम्हारे इसरार पर। और ऊपर जहाँ से जूते लेंगे हम किराए पर वह कौन सा जापानी होगा भाई?’ जवाब देने की जगह बड़बड़ाता हुआ चला गया वह, समझने समझाने की गुंजाइश भी कितनी बची है अब।

हालाँकि थोड़ा आश्चर्यजनक था मेरे लिए। टूरिस्ट्स के साथ यह व्यवहार अब तक की यात्राओं में नहीं देखा था मैने। यह नया फिनॉमिना है, हालिया घटनाओं में बाद लोग थोड़े अधिक वोकल हो गए हैं। ऊपर स्लेज खींचते हुए एक युवा ने अचानक पूछा – ‘साहब कैसा लगा हमारा कश्मीर?’ मेरे किसी जवाब के पहले ही उसने कहा, ‘सुन्दर है न? देखो कितना खूबसूरत है। कैसे चमक रही है शीन (बर्फ़)। स्विट्जरलैंड से भी खूबसूरत।’ स्विट्जरलैंड न मैं गया हूँ कभी न वह, तो उसके हां में हां मिलाया मैने। फिर उसकी आवाज़ बदल गई, ‘फिर इंडिया के लोग स्विट्जरलैंड क्यों जाते हैं? कश्मीर में इतने कम टूरिस्ट क्यों आ रहे हैं।’ जवाब भी था उसके पास -इंडिया का मीडिया कश्मीर पर सब ग़लत-सलत दिखाता है। जी न्यूज पर जो डीएनए दिखाता है वो तो मिल जाये तो ठोक दूँ उसको।’ मुझे हँसी आई, ‘ उसे हम छी न्यूज़ कहते हैं। सुधीर चौधरी की बात कर रहे हो न?’ वह भी हँसा। जितना रेपो बन चुका था उसके सहारे छूट ली, यार प्रॉब्लम तो यहाँ भी है न बहुत। डरता है टूरिस्ट।’ उसका प्रतिवाद सामने था – ‘बताओ आप टूरिस्ट को कहाँ हुई कोई प्रॉब्लम अभी? सब मीडिया गड़बड़ दिखाता है।’ मैने कहा, ‘एनडीटीवी देखा करो। रवीश तो अच्छा दिखाता है न।’ लेकिन जवाब था उसके पास – ‘रवीश कश्मीर पर कहाँ करता है प्रॉग्राम? सारे इंडिया की बेरोज़गारी दिखी उसे, कश्मीर का नाम लिया?’ मेरे पास कोई जवाब नहीं था। कुछ अंग्रेज़ी अखबार और मैगज़ीन्स का नाम याद आया लेकिन इकॉनमिक एंड पोलिटिकल वीकली या टेलीग्राफ का नाम कैसे लेता! जिस गाँव ध्रुरू में कल रात रुका था, वहाँ एक युवा ने यों ही बतियाते हुए कहा था- ठीक है हम नहीं जानते कि हम क्या चाहते हैं, इंडिया जानता है कि हम क्या चाहते हैं? ये जो टीवी पर बहस करते हैं, वे जानते हैं कुछ हमारे बारे में?’

सुबह निकले तो लड़कियों का झुण्ड था गुलमर्ग के टूर पर। एक टीचर उन्हें फूलों पौधों के बारे में बता रही थी। सर ढंके, लेकिन लगातार बोलती चहचहाती। श्रीनगर में हमारे होस्ट इदरीस भाई का कहा याद आया – ‘महीने साल के अखबार पलट लीजिये, हमारे कश्मीर में रेप नहीं होता।’

अभी जब रात के पौने दस बजे यह लिख रहा हूँ तो बगल में प्राइमरी हेल्थ सेंटर खुला है। गया तो पता चला डॉक्टर पूरे समय वहाँ रहता है। एक छोटी सी दवा की दुकान जहाँ सब मिलता है। यह एक और हक़ीक़त है कश्मीर की…मामला परसेप्शन का है असल में बाक़ी तो जो है सो है ही।

 

(लालचौक पर मोहनलाल ललगामी, अशोक कुमार पाण्डेय और निदा नवाज़)

 

 

 



 

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