इस इंग्लिश जुमले का हिंदी तर्जुमा क्या होगा? न्याय अगर देर से मिले तो वो न्याय नहीं होता..अब ये कहिए कि किसी व्यक्ति की हत्या, ग़ैर इरादतन हत्या के मामले में 34 साल बाद न्याय अगर मिले – चाहे थोड़ा ही हो, तो क्या वो न्याय कहलाएगा? यहां ये भी कहा जा सकता है कि ‘भई, हिंदुस्तानी अदालती कैलेंडर में 34 साल कोई बड़ी चीज़ नहीं होते, यहां तो अदालती फैसले में तीन से चार पीढ़ियां खप जाती हैं’। सही बात है! बिल्कुल सही बात है, जहां न्याय मिलने की उम्मीद ही ना हो, वहां अगर थोड़ा-बहुत मिल जाए तो अच्छा लगता है, सुखद अहसास होता है। लेकिन फिर क्या उसे न्याय मिलना कहें?
कहानी न्याय(?) की…नवजोत सिंह सिद्धू और स्वर्गीय गुरनाम सिंह की..
1988 में ताज़ा-ताज़ा जवान नवजोत सिंह सिद्धू, नये – नये क्रिकेटर, कहीं पार्किंग में झगड़ा हुआ…और 65 साल के एक बुर्जुग गुरनाम सिंह नाम के एक सज्जन के साथ इस झगड़े में सिद्धू ने जो हाथ-पांव चलाए, उनमें गुरनाम सिंह जी घायल हुए और बाद में अस्पताल जाते हुए रास्ते में उन्होने दम तोड़ दिया। मामला पुलिस और कोर्ट में पहुंचा, पटियाला की कोर्ट में जहां नवजोत सिंह सिद्धू और रुपिंदर सिंह संधू पर भारतीय दंड संहिता की धारा 302, 323 के साथ धारा 34 ”काॅमन इंटेशन” के तहत मुकदमा चला। जहां 1999 में पटिलया कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया।
पंजाब सरकार की अपील पर साल 2006 में मामला फिर खुला और इस सरकारी अपील पर हाई कोर्ट ने जो सुनवाई की, उस पर 2007 में नवजोत सिंह सिद्धू और सह-अभियुक्त को को धारा 304 – 2 के तहत दोषी मानते हुए तीन साल की कड़ी जेल की सजा और एक-एक लाख रुपये जुर्माने की सजा सुनाई गई। साल 2007 में सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट की इस सजा को निलम्बित कर दिया और अब ग्यारह साल बाद, यानी 2022 में उसी सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता के तहत नवजोत सिंह सिद्धू को 1 साल की सश्रम कारावास की सज़ा और 1000 रुपये जुर्माना लगाया है।
न्याय देते हुए, अदालत ने क्या कहा?
ये सज़ा सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बहुत ही दिलचस्प बातें कहीं, जिनका जिक्र यहां किया जाना चाहिए, जैसे ये कि, मानवीय हाथ एक हथियार की तरह इस्तेमाल हो सकते हैं, खासतौर पर तब, जबकि वो किसी बहुत ही तंदरुस्त व्यक्ति के, जैसे किसी क्रिकेटर या रेसलर के हों। इसलिए जब कोई 25 साल का, अंर्तराष्ट्रीय क्रिकेटर अपने से दोगुनी उम्र के व्यक्ति को अपने नंगे हाथों से भी मारता है और पीड़ित व्यक्ति के सिर पर गहरी चोट आती है, फिर चाहे उसकी मंशा ना रही हो, इस चोट के इरादतन नतीजे की जिम्मेदारी उसकी ही मानी जाएगी, क्योंकि इस नतीजे को वो पहले से जानता था। इसी मामले में 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने सिद्धु को 1000 रुपये जुर्माने की सजा सुनाई गई थी, लेकिन सश्रम कारावास से उन्हे मुक्त कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले पर टिप्पणी करते हुए इस बार सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 323 के मामले में सिद्धु को सिर्फ 1000 रुपये जुर्माने पर छोड़ देने में बहुत दयालुता दिखाई। ”जो सही नहीं था” यहां जोर मेरा है। लेकिन यहां भी जस्टिस एम खानविलकर और जस्टिस संजय के कौल ने इसमें धारा 304-2 को जोड़ने से मना कर दिया।
गिरफ्तारी को तैयार सिद्धू की तबीयत नासाज़ हुई
सुना ये जा रहा है कि सिद्धु की तबीयत खराब हो गई है, और वे कुछ देर गिरफ्तारी से बचे रहेंगे। हो सकता है कि इस कुछ देर में कुछ न्यायिक राहत का जुगाड़ हो जाए। वैसे भी हमारे देश में जब भी कोई नेता, अभिनेता, पूंजीपति, किसी भी तरह की सजा होने पर बीमार हो जाता है, और तब तक बीमार ही रहता है, जब तक कोई न्यायिक राहत पाने की गुंजाइश बनी रहती है। लेकिन दूसरी तरफ, इस तरह के गवाह, सबूत ना भी हों, और तथाकथित अभियुक्त बहुत बड़ी उम्र का हो, भयानक बीमार हो, व्हील चेयर पर हो, बदन हिला भी ना पाता हो, तो न्यायिक दयालुता, कड़े कानूनी राज, कानून के अनुसार कार्य में बदलते देर नहीं लगती। जस्टिस जे चेलमेश्वर ने जो अत्यंत दयालुता अंर्तराष्ट्रीय क्रिकेटर, बड़े नेता, कुशल दलबदलू राजनीतिज्ञ नवजोत सिंह सिद्धू के लिए दिखाई, अफसोस की ऐसी कोई दयालुता फादर स्टेन स्वामी के नसीब में नहीं थी, हालांकि वे बीमार भी थे, बूढ़े भी थे। बस क्रिकेटर नहीं थे, ना ही राजनेता था। अभी प्रो. सांई बाबा, जो व्हील चेयर पर हैं, और बदनाम अंडा सेल में बंद हैं, उन पर भी किसी जस्टिस की कोई दयालुतापूर्ण दृष्टि पड़ने वाली नहीं लगती।
न्याय का तराज़ू किधर झुकता है?
भारतीय न्याय व्यवस्था का यही सार-संक्षेप समझ में आता है कि जिस पर प्रभु जस्टिस की कृपा हो गई, वो उनकी दयालुता के अनुदान में मज़े करेगा, 304-2 का मामला 323 बन जाएगा, और जिस पर प्रभु जस्टिस की कृपा नहीं हुई, वो बिना कोई अपराध साबित हुए भी जेल की चक्की पीसेंगे, उन्हे पानी पीने के लिए स्ट्रा तक मुहैया नहीं कराई जाएगी, और अगर ज्यादा चूं-चपड़ की तो अवमानना का केस भी ठोंक दिया जा सकता है। कुल मिलाकर इस देश में न्याय देर से नहीं मिलता, न्याय मिलने की कुछ अर्हताएं हैं, जो पूरी करने पर हो सकता है कि आपको मिल जाए, और न्याय भी मुहं देख कर मिलता है। सलमान खान को मिला, काले हिरण को नहीं मिला। गुरनाम सिंह बिचारे परलोक सिधारे लेकिन सिद्धु को न्याय मिला। अब बताइए, किसी को ग़ैर इरादतन मार देने के बाद भी सिर्फ 1000 रुपये जुर्माना हो, और बहुत लिहाज करके सिर्फ 1 साल की कैद बामशक्कत मिले, तो ये तो न्याय ही हुआ ना। अब समझने वाली बात ये है कि ये न्याय जो सिद्धु के मामले में हुआ है, वो किसको मिला है। गुरनाम सिंह को, जो सिद्धू के हाथों मारे गए। उनके बेटे को, जो शायद पहले ही हताश हो चुके थे, क्योंकि जिस तरह ये मुकद्मा चला, और जिस तरह सिद्धू के कैरियर ने करवट ली थी, बल्कि हाल में तो लग रहा था कि अगर पंजाब इलैक्षन कांग्रेस जीतती तो वो मुख्यमंत्री या उपमुख्यमंत्री तो बन ही जाते। ऐसे में उन्हें किसी भी तरह की सज़ा दे सकना तो बहुत मुश्किल होता। हो सकता है कि ऐसे में उन्हे पूरी तरह दोषमुक्त बता दिया जाता, जिसे इंग्लिश में क्लीनचिट देना कहते हैं। ये नहीं हुआ तो भी क्या, बड़े नेता तो वो अब भी हैं, सुना हाथी पर चढ़कर प्रदर्षन करते हैं, ये भी उनका अपना तरीका है।
इस मामले में सजा के फैसले पर सिद्धू की पहली प्रतिक्रिया यही थी कि वो इस मामले में न्यायपालिका का पूरा सम्मान करते हुए सजा को सर-माथे लेते हैं। वैसे भी उनके पास और चारा क्या था? एक रास्ता था कि वो बीमार हो जाएं, और किसी अस्पताल में बुक होकर, हर तरह की न्यायिक राहत की तलाश करें, जो वो कर ही रहे हैं। अब जस्टिस डिलेड है या डिनाइड है ये या तो न्यायिक व्यवस्था को तय करना है, या फिर देश की जनता को तय करना है।