अख़बारनामा: गौ-गुंडों ने मारा इंस्पेक्टर को,अख़बार लगे सफ़ाई देने! ख़बर देना है या भड़काना है!

संजय कुमार सिंह


आज के अखबारों में कल बुलंदशहर में हिंसा और पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह तथा एक ग्रामीण युवक की मौत की खबर ही सबसे प्रमुख होनी थी। अखबारों ने इस खबर को जो प्रमुखता दी है उससे भी मानना पड़ेगा कि सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली खबर यही है। मेंने कई अखबारों की खबरें पढ़कर करीब पौने चार सौ शब्दों में यह खबर लिखी है और मेरा मानना है कि इससे ज्यादा की जरूरत नहीं थी। अखबारों में फोटो भी खूब छपी है और यह भी लिखा है कि लोगों ने वीडियो बनाए। पर मेरे ख्याल से यह सब खबर नहीं है और मारे गए पुलिस इंस्पेक्टर की फोटो के अलावा आज किसी और फोटो की जरूरत नहीं थी।

लेकिन अखबारों का क्या है। उन्होंने तो भाजपा नेता और बुलंदशहर के सांसद का बयान भी छापा है जो हत्याकंड और हिंसा को सही बताने जैसा है। उनके लिए यह सही भी होगा। इससे लोग सांप्रदायिक आधार पर वोट देंगे और उनकी जीत सुनिश्चित होगी। अखबारों का काम आपको यह सब बताना है पर ये सब न हो तो आप अखबार में क्या पढ़ेंगे? समझना पाठकों और मतदाताओं को है कि गोकशी की शिकायत पर पुलिस कार्रवाई नहीं करे तो आप कानून हाथ में लेगें? पुलिस ने 27 लोगों के खिलाफ नामजद और 67 अज्ञात लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया है। अब ये लोग गिरफ्तारी से बचने के लिए इधर-उधर छिपेंगे। कुछेक रिश्तेदारों को भी फंसाएंगे और मुकदमा लड़ने के लिए खेत जमीन भी बेचेंगे। सबका काम चलता रहेगा। आप अपना सोचिए। मुझे नहीं लगता कि कोई नेता किसी को पुलिस कार्रवाई से बचा लेगा कम से कम बिना पैसे खर्च किए।

दादरी के दंगाई तो नहीं बचे, उन्हें ठेके की नौकरी दिलाने की खबर जरूर आई थी। अब मामले की जांच करने वाले अफसर को मार दिए जाने के बाद अब करीब 80 अन्य लोग मुकदमों में फंसेंगे। कुछ और जेल जाएंगे कुल मिलाकर माहौल बच्चों और युवाओं को दंगाई बनाने का है। आप जितनी जल्दी समझें उतना ही अच्छा है। वरना नौकरियां हैं नहीं, ज्यादातर लोगों को इसमें फायदा है या कहिए उनका काम ही यही है। आप अपने बच्चों को कैसे बचाएं, खुद कैसे बचें यह सोचना आपका काम है। तय कीजिए कि गायों की रक्षा जरूरी है या अपनी। और गायों की रक्षा की आड़ में आप नेताजी की रक्षा तो नहीं कर रहे हैं। देखिए, आपका अखबार आपको भड़का तो नहीं रहा है। टेलीविजन पर तो यही होता है।

मेरी खबर इस प्रकार होती :

गौ गुंडों ने दादरी हत्याकांड की जांच से जुड़े अफसर की हत्या की
गोकशी पर कार्रवाई न होने से लोग पुलिस से नाराज थे : भाजपा सासंद 
बदमाशों ने पुलिस चौकी में आग लगाई, 20 वाहन फूंके

हिन्दी पट्टी में चल रहे चुनावों और भाजपा की कथित खराब हालत तथा ईवीएम से छेड़छाड़ की कोशिशें पकड़े जाने की खबरों के बीच भाजपा शासित एक और हिन्दी राज्य, दिल्ली से कोई 130 किलोमीटर दूर, उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में गोहत्या की अफवाह पर भड़की भीड़ ने पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह के सिर में गोली मारकर हत्या कर दी। एक और युवक सुमित कुमार सिंह की गोली लगने से मौत हो गई। सुबोध कुमार सिंह 2015 में दिल्ली के पास दादरी में गोकशी के शक में मारे गए अखलाक की हत्या की जांच से जुड़े थे। इस हिंसा में कुल 15 लोग घायल हुए हैं। इनमें सीओ समेत आठ पुलिस वाले हैं। पुलिस ने 27 लोगों के खिलाफ नामजद और 60 अज्ञात लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया है।

गोहत्या की सूचना मिलने पर पुलिस मौके पर पहुंच कर कार्रवाई कर रही थी पर हिन्दू संगठनों के कार्यकर्ताओं के साथ ग्रामीण अवशेष को लेकर ट्रैक्टर-ट्रॉलियों में अवशेष भर जाम लगाने पहुंच गए। इनलोगों ने बुलंदशहर-गढ़ हाईवे जाम कर दिया। पुलिस पर तबलीगी इज्तमा से लौट रहे लोगों के लिए रास्ता खुलवाने का दबाव था। डर था कि सड़क जाम होने से सांप्रदायिक तनाव न फैल जाए। इसलिए लाठी चार्ज किया गया पर फोर्स कम थी और ग्रामीण पुलिस पर हावी हो गए। गोलियां भी चलाई। यहां तक कि गोली लगने से गिर जाने के बाद भी भी इंपेक्टर सुबोध कुमार सिंह को पीटती रही। तबलीगी इज्तमा से लौट रहे लोगों को रास्ते में रोक कर शाम तक जाने दिया गया।

करीब 400 लोगों की यह भीड़ कुछ भी सुनने समझने को तैयार नहीं थी। दूसरी ओर अतिरिक्त पुलिस बल की मांग की गई लेकिन उसमें समय लगा। इस बीच बुलंदशहर के भाजपा सांसद ने कहा है कि गोकशी पर कार्रवाई न होने से लोग पुलिस से नाराज हैं। सांसद डॉ भोला सिंह ने कहा है कि इलाके में गोकशी की कई घटनाएं सामने आ चुकी हैं। लेकिन शिकायतों के बावजूद पुलिस कोई कार्रवाई नहीं कर रही है। इस वजह से लोगों में पुलिस के प्रति नाराजगी है।

(जांच के आदेश, अफसरों के नाम की कोई जरूरत नहीं है)।
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खबर यह भी है कि शहीद इंस्पेक्टर सुबोध की पत्नी को 40 लाख रुपए, माता-पिता को 10 लाख रुपए की आर्थिक सहायता देने की घोषणा की गई है। इंस्पेक्टर के परिवार को आसाधारण पेंशन तथा परिवार के एक सदस्य को मृतक आश्रित के तौर पर सरकारी नौकरी देने की भी घोषणा की गई है। पर इसी हिंसा में मरे युवक के बारे में कोई सूचना नहीं है ना इसपर कोई सवाल है। उसकी फोटो भी कुछ ही अखबारों में है। क्या अखबारों में यह सवाल नहीं होना चाहिए। अभी तक मुआवजा परिवार के लिए होता था अब माता-पिता के लिए अलग है। क्या यह असामान्य नहीं है। रेखांकित नहीं किया जाना चाहिए?

ऐसे मौकों पर फोटो की कोई कमी नहीं होती है और फोटो का चयन हिंसा दिखाने और बताने के लिए भले हो डरावना नहीं होना चाहिए। कई अखबारों ने इंस्पेक्टर के उल्टे लटके शरीर की फोटो छापी है जो बहुत ही वीभत्स है और मुझे समझ नहीं आता कि ऐसी फोटो छापने का क्या मकसद होता है। इस लिहाज से इंडियन एक्सप्रेस की यह फोटो घटना की भयानकता तो बताती है पर अलग और अनूठी है। इंडियन एक्सप्रेस ने मुख्य खबर के साथ प्रकाशित चार कॉलम की एक अलग खबर में अलग से बताया है कि सुबोध पुलिस वाले के बेटे थे और दादरी मामले की जांच की थी। यह महत्वपूर्ण सूचना है और टेलीग्राफ ने दादरी की जांच से जुड़ा होना शीर्षक में ही बताया है। हिन्दी अखबारों में ये बातें छोटी खबर से छोटे फौन्ट में या नहीं भी बताई गई है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
# तस्वीर आज के इंडियन एक्सप्रेस से साभार।


 

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