‘समय और चित्रकला ‘शीर्षक से प्रख्यात चित्रकार अशोक भौमिक की लेख शृंखला की यह दूसरी कड़ी पहली बार 26 अप्रैल 2020 को मीडिया विजिल में प्रकाशित हुई थी। कोरोना की पहली लहर के दौरान चित्रकला पर महामारियों के प्रभाव की ऐतिहासिक पड़ताल करते हुए अशोक दा ने दस कड़ियों की यह साप्ताहिक शृंखला लिखी थी। साल भर बाद भारत दूसरी लहर से मुक़ाबिल है तो हम इसे पुनर्प्रकाशित कर रहे हैं। इस बार लगातार दस दिन तक छापेंगे- संपादक।
मध्य युग के यूरोप में, जहाँ एक ओर भवन निर्माण कला के उत्कृष्ट उदाहरण हमें गिरजों और राजमहलों में देखने को मिलते हैं वहीं इन्हीं भवनों की दीवारों पर फ्रेस्को या भित्तिचित्र के रूप में चित्रकला के विकास को हम देख सकते हैं। ऐसे चित्र (फ्रेस्को) दीवार पर चढ़े नम पलस्तर पर रंगों द्वारा बनाये जाते थे , जो मुख्य रूप से धार्मिक कथाओं पर ही आधारित होते थे। इन चित्रों में ,एक ओर विषय के विवरणों पर (डिटेलिंग) में विशेष ध्यान दिया जाता था साथ ही मनुष्य एवं पशुपक्षियों की आकृतियों को, लंबायमान या एलोंगटेड बनाया जाता था। चौदहवीं शताब्दी के यूरोप में ‘ मृत्यु की विजय’ शीर्षक चित्र बनाने के चलन,आम था। किसी व्यक्ति के स्वाभाविक मृत्यु पर अनेक दिलचस्प चित्र मिलते हैं जो प्रायः पुस्तकों में चित्रणों के रूप में छोटे आकार के होते थे। इन चित्रों में मृत्यु के रूपक के तौर पर नर-कंकाल को हाथ में भाला लिए दिखाया जाता था। ऐसे असंख्य छोटे आकार के चित्रों में हमें अभिनेता, लेखक, व्यापारी, संगीतज्ञ , नेता आदि को मृत्यु से हारते हुए दिखाया जाता था, जो कई बार हास्यपूर्ण (कॉमिकल) भी होते थे।
महामारियों के दौरान, इस शीर्षक के अनेक चित्र, गिरजा घरों और मठों की दीवारों पर देखने को मिलते हैं और हर चित्र में मरते हुए लोग, एक समूह में दिखाई देते हैं। कहना न होगा, महामारी के बाद, चित्रों के माध्यम से पाप-पुण्य-मृत्यु के प्रति आम जनता के मन में एक भय का संचार कर ईश्वर के प्रति आस्था बढ़ाने के उद्देश्य से ही ये ऐसे चित्र बनाये जाते थे। इन चित्रों को गौर से देखने से हम पाते हैं कि इन चित्रों में आम आदमी से लेकर राजाओं, लेखकों, पादरियों को बच्चे, बूढ़ी औरतों को मौत की चपेट में जाते दिखाया गया है। इस प्रकार इन चित्रों के ज़रिये यह सन्देश भी दिया गया है कि ‘मृत्यु किसी को नहीं बख़्शती है।”
ऐसे ही एक ‘मृत्यु की विजय’ शीर्षक का चित्र, दक्षिण इटली के पालेर्मो शहर के रीजनल गैलेरी में है (देखें चित्र 1)। पहले यह भित्तिचित्र पालेर्मो के ही राजमहल की दीवार पर बना हुआ था जिसे बीसवीं सदी में, चार खण्डों में विभाजित कर, संग्रहालय( रीजनल गैलरी ) की दीवार पर चिपकाया गया है। 1446 में बने इस फ्रेस्को का एक और ख़ास महत्व भी है। पन्द्रहवीं सदी तक इटली में बने चित्रों में मृत्यु को भयावह और विचलित कर देनेवाले रूपकों के जरिये चित्रित करने का चलन नहीं था। पर इस भित्तिचित्र में हम न केवल मृत्यु को, तीर चलाते हुए डरावने शक्ल के घोड़े पर सवार एक नरकंकाल के रूप में ही पाते हैं (देखें चित्र 2), चित्र के निचले हिस्से में तीर बिंधे मृत लोगों के चेहरों में मृत्यु के पूर्व, दर्द के गहरे निशान मौजूद दिखते हैं (देखें चित्र 3)। इस चित्र में एक ओर जहाँ मौत से डरे लोगों का दल ,अपनी जिंदगी की भीख मांग रहा है वहीं दाहिनी कुछ लोग और हैं,जो महामारी से अप्रभावित दिख रहे है।
यूरोप में 1250 से लेकर 1500 के बीच के समय को इतिहासकार ‘उत्तर मध्य युग’ कहते है। इस दौर में कई महामारियां हुई, पर 1347 में ‘ब्यूबोनिक’ प्लेग की महामारी सबसे भयानक थी, जिसने यूरोप की एक तिहाई आबादी को मिटा दिया। इस महामारी में हुई व्यापक मौतों ने चित्रकारों को गहरे प्रभावित किया । चित्रकारों की रचनाशीलता पर पड़े इस असर को, उत्तर मध्य युग में बने चित्रों की संरचनाओं में हम विशेष रूप से चिन्हित कर पाते हैं, जहाँ ‘मृत्यु की जीत’ ( (ट्राइंफ ऑफ़ डेथ), ‘मौत का नाच ‘ (डांस मकाब्र) जैसे चित्रों में चित्रकारों द्वारा मृत्यु की विचलित कर देने वाली कल्पनाओं का चित्रण हैं।
प्लेग की महामारी के बाद ‘मृत्यु-नृत्य’ या ‘मौत का नाच ‘ जैसे विषयों पर, यूरोप में लम्बे समय तक बनते रहे। इन चित्रों में महामारी के स्मृतियाँ थीं और मृत्यु को एक सत्य के रूप में स्थापित करने का प्रयास भी था । पर इन सब से ज्यादा दिलचस्प हैं इन चित्रों की समानताएं, जो कई दशकों के अंतराल में बने चित्रों में आश्चर्यजनक रूप से विद्यमान रहें। क्रोशिया के बेरम शहर के सेंट मेरी ऑफ़ रॉक्स गिरजे की दीवार में 1474 में ‘मौत का नाच’ (डांस ऑफ़ डेथ ) शीर्षक से बने फ्रेस्को में, हम एक कतार में चलते हुए लोगों को देखते हैं जहाँ हर एक व्यक्ति के पीछे कंकाल रूपी मृत्यु परछाई जैसे उपस्थित है ( देखें चित्र 4) ।
(चित्र-4)
इस चित्र के साथ साथ यदि हम क्रोशिया से दूर , एक दशक बाद (1484-1485) इटली के क्लूज़ोन शहर के एक गायनकक्ष की दीवार पर बने, एक दूसरे भित्तिचित्र ( देखें चित्र 5 ) को देखें तो हम सहज ही ऐसे धार्मिक चित्रों के उद्देश्य और स्वरुप की समानताओं को समझ पाते हैं। इस चित्र में भी, क्रोशया के चित्र के सामान ही लोगों की कतार है, जहाँ हर व्यक्ति के पीछे मृत्यु-रुपी कंकाल खड़ा है (6)
(चित्र 5)
(चित्र 6)
इन दोनों चित्रों के सामान ही, 1490 में स्लोवाकिया के हरस्तोविलेय गाँव के होली ट्रिनिटी चर्च की दीवार पर बने फ्रेस्को में भी हमें कतार में खड़े लोग दिखते हैं और जिनके पीछे हम मृत्यु को नाचते पाते हैं ( देखें चित्र 7 )
(चित्र 7)
उपरोक्त सभी चित्रों में जीवन के तमाम सुन्दर और सकारात्मक पक्षों के विरुद्ध एक भय को संचार करने की, धर्म की कोशिश दिखती है। महामारी के बाद जीवन के प्रति मोह की कमी के कारण , मनुष्य में मृत्यु का डर कम होने लगा था और स्वाभाविक रूप से धर्म के प्रति भी आस्था कम होने लगी थी । यूरोप के उत्तर मध्य युग के ऐसे चित्रों के माध्यम से,उस मृत्यु-भय के साथ साथ नियतिवाद को पुनर्स्थापित करने का प्रयास स्पष्ट दिखाई देता है।
धर्म का इतिहास – मनुष्य को डरा कर, उनमें दूसरों के प्रति नफरत पैदा कर, अपने धर्म को दूसरों के धर्म से श्रेष्ठ प्रमाणित करने का रहा है और इस प्रयास में धर्म द्वारा चित्रकला के इस्तेमाल का यह एक अनूठी मिसाल है, जो आज भी बदस्तूर जारी है।
“To terrify children with the image of hell, to consider women an inferior creation—is that good for the world?”
― Christopher Hitchens
पहली कड़ी- धर्म, महामारी और चित्रकला !