चक्का जाम की गोल-मोल ख़बर और मुनव्वर फारुक़ी की ख़बर ही ‘गोल!’ 

इस आंदोलन की खबर को हिन्दुस्तान टाइम्स ने लीड बनाया है। शीर्षक है, "चक्का जाम आमतौर पर शांतिपूर्ण निपट गया"। बेशक यह एक प्रतिभाशाली शीर्षक है और दैनिक अखबार का शीर्षक कम कवि की प्रतिक्रिया ज्यादा लगता है। साफ-साफ कहने से बचते हुए। अगर आप सूचना चाहते हैं तो इससे आपको ना तो यह पता चलेगा कि आंदोलन सफल था, ना आप असफल या हिंसक या शांतिपूर्ण मान सकते हैं। अब क्या मानेंगे यह आप तय कीजिए।

वैसे तो आज का दिन निर्विवाद लीड का था और किसानों के चक्का जाम की अपील की सफलता-विफलता लीड हो सकती थी। वैसे तो किसी आंदोलन की सफलता की ही खबर लीड बनती है पर सरकार की ओर से मीडिया भी आंदोलन का मुकाबला कर रहा हो तो मीडिया जीत कर आंदोलन के फिस्स होने की खबर भी लीड बना सकता है। बना देता तो मुझे आश्चर्य नहीं होता। पर बना नहीं पाया क्योंकि आंदोलन सफल रहा और चूंकि किसानों के आंदोलन को सफल बताना ही नहीं है इसलिए आज यह देखना दिलचस्प है कि किस अखबार ने किसानों की खबर को कैसे छापा है। किसानों के आंदोलन पर सरकार और मीडिया का रवैया आप जानते हैं। आपकी अपनी राय भी होगी। पत्रकारों की भी है, मेरी तो निश्चित रूप से है। इसलिए किसी एक खबर से सच पता चलना मुश्किल है पर इसमें अखबारों की समझ और चालकी को देखना समझना दिलचस्प है। क्योंकि आपकी राय बनाने में मीडिया की भी बड़ी भूमिका होती है। 

अखबारों की खबरों पर आने से पहले आपको पत्रकार गीताश्री की कल की संबंधित पोस्ट का अंश पढ़वाता हूं जो इस प्रकार है, “दो घंटे से ज़्यादा चक्का जाम में फँसी रही। बीच हाइवे पर किसान नहीं थे। सरकार का सहयोग रहा चक्का जाम में हर टोल पर गाड़ियाँ रोक दी गईं। चालाकी ये कि जहां शुरुआती टोल चौकी है, वहाँ नहीं रोका… बढ़े चले जाओ, तीस चालीस किलोमीटर. जाओ… फ़ंसो। जाम लगाओ। हाईवे ऑथॉरिटी चक्का जाम के साथ है। आज 12 से तीन बजे तक रहा चक्का जाम। ऐसी जगह हम फँसे थे जहां न नेट, न फ़ोन पर आवाज़ साफ़। खाने पीने का कुछ नहीं। एक महिला के लिए दयनीय स्थिति। एकल यात्रा के अपने सुख और संकट हैं। ….  मुझे जल्दी पहुँचना है। मेरी बेचैनी उनके सुकून को देख कर थम जाती है। तभी … समझ में आता है कि सरकार चाहती है – आम नागरिक परेशान हो कर विद्रोह कर दें किसानों के विरुद्ध। किसान आंदोलन के ख़िलाफ़ है ये सहयोग और असहयोग दोनों। सारी चालाकी समझ में आती है। मेरे ढाई घंटे जाम के किसान आंदोलन के नाम !! जय किसान।” गीताश्री दिल्ली रहती हैं, दिल्ली को कल जाम से मुक्त रखा गया था और गीताश्री ने नहीं बताया है कि वे कहां जा रही थीं, जाम में कहां फंसी। मैं जानता हूं पर बताने की जरूरत नहीं है। वह मुद्दा नहीं है। उनकी पोस्ट बहुत स्पष्ट है। आप नहीं समझना चाहें तो बात अलग है। 

इस आंदोलन की खबर को हिन्दुस्तान टाइम्स ने लीड बनाया है। शीर्षक है, “चक्का जाम आमतौर पर शांतिपूर्ण निपट गया”। बेशक यह एक प्रतिभाशाली शीर्षक है और दैनिक अखबार का शीर्षक कम कवि की प्रतिक्रिया ज्यादा लगता है। साफ-साफ कहने से बचते हुए। अगर आप सूचना चाहते हैं तो इससे आपको ना तो यह पता चलेगा कि आंदोलन सफल था, ना आप असफल या हिंसक या शांतिपूर्ण मान सकते हैं। अब क्या मानेंगे यह आप तय कीजिए। चूंकि मेरे पास सूचनाएं कई स्रोतों से आती हैं इसलिए मैं कनफ्यूज हूं। इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर लीड नहीं है लेकिन पहले पन्ने पर तीन कॉलम में दो लाइन के शीर्षक और फोटो के साथ है। इसमें लाल रंग में फ्लैग शीर्षक है, पंजाब, हरियाणा में चक्का जाम। मुख्य शीर्षक है, तीन घंटे का चक्का जाम मुख्य रूप से दो राज्यों में, शांति बनाए रखने के लिए किसान नेता सक्रिय रहे। तस्वीर लुधियाना की है और खबर की डेटलाइन भी लुधियाना और चंडीगढ़ है। इसका मतलब कि दिल्ली और आस-पास जो भी हुआ (शीर्षक के अनुसार आंदोलन तो था ही नहीं) वह पहले पन्ने की खबर नहीं है। अखबार में आज पहले पन्ने पर आधा विज्ञापन है। 

हिन्दुस्तान टाइम्स की खबर दिल्ली और चंडीगढ़ डेटलाइन से है। इसका इंट्रो है, भारी तैनाती से सुनिश्चित हुआ कि कोई अनुचित घटना न हो। हिन्दुस्तान टाइम्स में एक फोटो भी है जिसमें किसान नेता राकेश टिकैट गाजीपुर के बैरीकेड पर चक्का जाम के दौरान सुरक्षा बलों के सामने हाथ जोड़े खड़े हैं। अब आप इंडियन एक्सप्रेस की खबर के साथ इसके तथ्यों का मिलान करेंगे तो निश्चित रूप से कनफ्यूज हो जाएंगे। इसलिए तीसरा अखबार देखता हूं। द हिन्दू में किसानों की खबर लीड है, बाकायदा चार कॉलम में दो लाइन के शीर्षक के साथ। मुख्य शीर्षक है, “कृषि कानूनों का विरोध करने के लिए किसानों ने सड़कें, टोल प्लाजा पर शांतिपूर्ण जाम लगाया”। उप शीर्षक है, “तीन घंटे के चक्का जाम से पंजाब, हरियाणा सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ। दूसरे राज्यों में छिट-पुट असर”। इसके साथ छपी तस्वीर में दिखाया गया है कि बड़ी संख्या में महिलाएं रोहतक जिले में एक टोल प्लाजा पर धरना दे रही है। 

टाइम्स ऑफ इंडिया में भी किसानों की खबर सेकेंड लीड है। चार कॉलम के लीड के साथ टॉप पर तीन कॉलम की इस खबर का शीर्षक है,  “हम यहां से नहीं जाएंगे, कानून वापस लेने के लिए सरकार के पास अक्तूबर तक का समय है : टिकैत”। इस खबर का इंट्रो है, तब तक मांग नहीं मानी गई तो आंदोलन तेज करूंगा। कल के चक्का जाम की खबर अखबार ने अपने इसी मुख्य खबर के साथ छापी है। शीर्षक है, चक्का जाम से शहर अप्रभावित रहा। इसके तहत शहर की भिन्न घटनाओं का वर्णन है। सिंगल कॉलम की एक छोटी तस्वीर गुड़गांव की है जिसमें वाहनों की लंबी कतार नजर आ रही है। द टेलीग्राफ में भी किसानों की खबर पहले पन्ने पर है। इसका शीर्षक है, “वार्ता फिर से शुरू करने के लिए दमन खत्म हो”। इस खबर के साथ एक तस्वीर में किसान एक पहाड़ी पर चढ़ते दिखाई दे रहे हैं। कैप्शन है, दिल्ली के पास चक्का जाम में भाग लेने के लिए पहाड़ पर चड़ते किसान। पहले पन्ने की खबरों के मामले में द टेलीग्राफ का अपना अंदाज और प्रयोग होता है। आज भी एक प्रयोग है जो इंटरनेट बंद करने पर है। इसमें बताया गया है कि भारत में जो पहले होता है वही म्यामार में दोहराया जाता है या बाद में होता है। भारत में 29 जनवरी को दिल्ली की भिन्न सीमा पर इंटरनेट कटा म्यामार में  6 फरवरी को हो गया (आप जानते हैं कि वहां तख्ता पलट हो चुका है)।    

आज की मुख्य खबर को अखबारों ने जैसे परोसा उसकी चर्चा इसलिए भी जरूरी है कि आंदोलन की घोषणा पहले हो जाती है। अखबारों को तैयारी करने औऱ योजना बनाने के लिए पूरा समय मिलता है और आंदोलन के महत्व के अनुसार यह सब किया जाता है, किया जाना चाहिए। इस लिहाज से सूचना यह भी है कि दिल्ली में आंदोलन पहले ही वापस ले लिया गया था। इसके बावजूद टेलीविजन पर यह दिखाया जाता रहा कि आंदोलन से निपटने की क्या तैयारियां की गई थीं। ऐसा लगा मानों 26 जनवरी की चूक के बाद (मुख्य आरोपी पर ईनाम घोषित किया गया है पर पकड़े जाने की खबर नहीं है) सिर्फ सुरक्षा बल तैनात कर देना ही सरकार चलाना होता है। अखबारों में पहले पन्ने पर यह सब नहीं है। 

अलग-अलग अखबारों में लीड उनकी अपनी प्राथमिकता और विवेक है। मैं उसकी चर्चा नहीं करता ना ही पहले पन्ने के लिए चुनी गई आम खबरों की। पर कोई खबर खास हो तो उसकी चर्चा जरूरी है और इस लिहाज से टाइम्स ऑफ इंडिया की आज की लीड निश्चित रूप से अलग है और पत्रकारिता के अर्नब गोस्वामी अगर खबरों में बाजी मार ले जाने पर खुश होते हैं तो इस खबर को पहले पन्ने पर अफसोस होना चाहिए। हुआ कि नहीं यह शायद कभी मालूम न हो। टाइम्स ऑफ इंडिया की आज की लीड का शीर्षक है, “सुप्रीम कोर्ट की कॉल ने जेल को जमानत आदेश के 36 घंटे बाद फारूकी को रिहा करने के लिए मजबूर किया”। निश्चित रूप से यह बहुत बड़ी खबर है और देर रात की है इसलिए पहले पन्ने पर ही हो सकती थी। मुझे लगता है बाकी अखबार चूक गए। पहले खबरों के लिए हमलोग देर रात दफ्तर से निकलने के पहले तक (या बाद में भी) सतर्क रहते थे। अब शायद ऐसा नहीं होता। यह खबर छोड़ी गई या छूट गई – दोनों स्थिति शर्मनाक है। देर रात की यह खबर अगर अंदर के पन्ने पर छापी गई तो हद है। 

इस खबर के अनुसार, अधिकारी कोशिश कर रहे थे कि फारुकी को उत्तर प्रदेश के अधिकारियों को सौंप दिया जाए जबकि वारंट पर स्टे था। अखबार ने पूरा घटनाक्रम दिया है और बताया है कि जेल अधीक्षक ने मुनव्वर को उत्तर प्रदेश स्थानांतरित करने का आदेश दे दिया था पर रात ग्यारह बजे के करीब उसे चुपचाप छोड़ दिया गया। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने जेल अधिकारियों को फोन कर कहा कि आदेश कोर्ट के वेबसाइट पर है। यह देश में जो चल रहा है उसका बढ़िया उदाहरण है। निश्चित रूप से यह खबर नहीं छपना उससे भी बढ़िया उदाहरण है।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।   

First Published on:
Exit mobile version