नवभारत टाइम्स
एकजुटता और बिखराव
पूर्वोत्तर में बीजेपी की जीत के बाद विपक्षी खेमे में खलबली मच गई है। बीजेपी से निपटने के लिए कुछ दलों ने तीसरा मोर्चा बनाने की वकालत शुरू कर दी है। उनकी कोशिश गैर-कांग्रेस, गैर- बीजेपी मोर्चा बनाने की है, जिसकी अंदरूनी दलील यह है कि कांग्रेस से नाराजगी के कारण जनता बीजेपी को चुन रही है। इन दलों के रवैये से यह भी जाहिर है कि कांग्रेस के साथ-साथ ये लेफ्ट से भी बचकर चलना चाहेंगे। त्रिपुरा के नतीजे आते ही तेलंगाना के सीएम के. चंद्रशेखर राव ने तीसरे मोर्चे के गठन की बात जोर-शोर से कही, जिस पर उन्हें पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और एआईएमआईएम के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी का समर्थन मिला। राव के अनुसार झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री जेएमएम के हेमंत सोरेन ने भी उनके बयान का स्वागत किया है। उधर यूपी में गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीट के लिए हो रहे उपचुनाव में बीएसपी ने समाजवादी पार्टी को समर्थन देने का ऐलान किया है। यूपी के लिए यह बड़ी सियासी घटना है, लेकिन इसे किसी नए गठबंधन के संकेत की तरह नहीं लिया जा सकता, क्योंकि मायावती ने साफ किया है कि यह कोई गठजोड़ नहीं बल्कि ‘इस हाथ ले और उस हाथ दे’ का मामला है। यूपी में जल्द ही राज्यसभा और विधान परिषद के चुनाव भी होंगे, जिसमें एसपी की ओर से बीएसपी की मदद की जाएगी। कुछ समय से कई पार्टियां खासकर संसद में बीजेपी विरोधी मोर्चा बनाने की कोशिशें करती रही हैं, लेकिन बाहर उनके अंतर्विरोध हावी हो जाते रहे हैं। मायावती का स्टैंड इसका सबसे ताजा उदाहरण है। यही हाल ममता बनर्जी का है। बीजेपी विरोध के नाम पर वह अलग-अलग दलों से संपर्क करती रही हैं, पर ऐसे किसी गठबंधन का हिस्सा नहीं बनना चाहतीं जिसमें लेफ्ट पार्टियां हों। कांग्रेस को लेकर भी इन सभी के मन में दुविधा है। एसपी और बीएसपी को लगता है कि कांग्रेस के मजबूत होने पर कहीं उनका जनाधार न बिखरने लग जाए। दरअसल, काफी कुछ कांग्रेस के चुनावी प्रदर्शन पर निर्भर करता है। मई में होने वाले कर्नाटक विधानसभा चुनाव में अगर वह अच्छे नतीजे न ला सकी तो 2019 के आम चुनाव में अप्रासंगिक हो जाने का खतरा भी उसके सामने मौजूद रहेगा। रही बात गैर-कांग्रेस, गैर-बीजेपी मोर्चे की, तो यह उन्हीं राज्यों में चल सकता है जहां कांग्रेस नंबर तीन या इससे पीछे की हालत में है। बाकी राज्यों में और राष्ट्रीय स्तर पर यह संघर्ष को तिकोना बना देगा, जिसका फायदा सिर्फ बीजेपी को मिलेगा। अगले आम चुनाव में बीजेपी को कोई टक्कर तभी दी जा सकेगी, जब उसके खिलाफ सारी या ज्यादातर राजनीतिक ताकतें एकजुट हों और उनका नेतृत्व कांग्रेस कर रही हो। वक्त की इस नजाकत को समझकर कांग्रेस को भी अपना रवैया लचीला रखना होगा और सोनिया गांधी को पहल करके विपक्ष का बिखराव रोकना होगा।
जनसत्ता
आतंक के खिलाफ
सोमवार को सुरक्षा बलों को एक अहम कामयाबी मिली, जब जैश-ए-मोहम्मद का ऑपरेशनल कमांडर मुफ्ती वकास एक कार्रवाई में मार गिराया गया। वकास ही सुंजवां सैन्य शिविर में हुए आतंकी हमले और दक्षिण कश्मीर के लेथपुरा में सीआरपीएफ के एक शिविर पर हुए आत्मघाती हमले का मुख्य षड्यंत्रकारी था। जाहिर है, वकास के मारे जाने से जैश को जबर्दस्त झटका लगा है। इससे पहले, जैश को ऐसा ही झटका तब भी लगा था जब दिसंबर में उसके एक और कमांडर नूर मोहम्मद तांत्रेय को सुरक्षा बलों ने मार गिराया था। इसके अलावा, मेजर आदित्य कुमार के खिलाफ किसी भी तरह की जांच पर रोक लगाने के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से भी सेना ने राहत की सांस ली होगी। गौरतलब है कि सत्ताईस जनवरी को शोपियां में पथराव कर रही भीड़ पर सैन्यकर्मियों की गोलीबारी में तीन व्यक्तियों की मौत हो गई थी। इसके बाद मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने घटना की जांच के आदेश दिए और धारा 302 व धारा 307 के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई। इस प्राथमिकी ने केंद्र सरकार और मुख्यमंत्री को आमने-सामने कर दिया। भाजपा और पीडीपी के गठबंधन का अंतर्विरोध एक बार फिर खुलकर सामने आ गया।
केंद्र सरकार जहां मेजर आदित्य और सत्ताईस जनवरी की कार्रवाई में शामिल रहे अन्य सैनिकों के बचाव में खड़ी रही है, वहीं पीडीपी का कहना था कि अफस्पा के तहत मिले विशेष अधिकारों से सैन्य अधिकारियों को किसी को जान से मारने का लाइसेंस नहीं मिल जाता। जबकि केंद्र ने अफस्पा यानी सशस्त्र बल विशेषाधिकर अधिनियम की धारा-सात के तहत सेना को मिली छूट को जायज ठहराते हुए और उसका हवाला देते हुए कहा कि सैन्य अधिकारी के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज नहीं की जा सकती। इस मामले में अंतिम सुनवाई चौबीस अप्रैल को होगी, पर सर्वोच्च न्यायालय के रुख का थोड़ा-बहुत अंदाजा उसकी इस टिप्पणी से लगाया जा सकता है कि मेजर आदित्य सैन्य अफसर हैं, उनके साथ अपराधी जैसा बर्ताव नहीं किया जा सकता। इस प्रकरण से जाहिर है कि जम्मू-कश्मीर में सेना की आतंकवाद विरोधी कार्रवाइयों को कानूनी और राजनीतिक विवादों का भी सामना करना पड़ रहा है। सत्ताईस जनवरी की घटना को लेकर चला आ रहा विवाद ठंडा भी नहीं हुआ कि रविवार को शोपियां जिले के पहनू इलाके में सेना और आतंकियों के बीच हुई मुठभेड़ को लेकर भी विवाद शुरू हो गया है। शोपियां गोलीबारी में मरने वालों की संख्या छह तक पहुंच गई है।
सेना का दावा है कि मारे गए सभी छह व्यक्ति आतंकवाद से जुड़े थे, जबकि जम्मू-कश्मीर के विपक्षी दलों ने ही नहीं, मुख्यमंत्री ने भी इस मुठभेड़ में नागरिकों के मारे जाने का आरोप लगाया है। इस मसले पर राज्य में पैदा हुए तनाव और सियासी तापमान चढ़ जाने का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि जम्मू-कश्मीर सरकार ने घाटी के सभी शिक्षण संस्थानों को बुधवार तक बंद रखने का आदेश दिया है। यही नहीं, एहतियात के तौर पर स्टेट बोर्ड ऑफ स्कूल एजुकेशन ने छह और सात मार्च को होने वाली सभी परीक्षाएं स्थगित कर दी हैं। पीडीपी के अलावा घाटी में आधार रखने वाले अन्य दलों ने भी रविवार को हुई कार्रवाई पर सवाल उठाए हैं। खबरों के मुताबिक स्थानीय लोगों का आरोप है कि सेना ने दो आतंकियों के अलावा चार आम नागरिकों को भी मार डाला। ‘संयुक्त प्रतिरोध इकाई’ ने सात मार्च को कश्मीर बंद का आह्वान किया है। केंद्र सरकार स्वाभाविक ही सेना के साथ खड़ी है, पर उसे विवादों के राजनीतिक समाधान की भी विश्वसनीय पहल करनी चाहिए।
हिंदुस्तान
मूर्ति तोड़ने का अर्थ
कहते हैं कुछ मूर्तियां मुहब्बत का नतीजा होती हैं। कुछ मूर्तियां आस्था और श्रद्धा के चलते बनाई जाती हैं। कुछ के निर्माण के पीछे वैचारिक प्रतिबद्धता होती है। कुछ मूर्तियों से यह उम्मीद की जाती है कि वे लोगों को प्रेरणा देने का काम करेंगी। कुछ लोग अपनी जीत को यादगार बनाए रखने के लिए भी मूर्ति बनवाते हैं। पर ऐसा भी नहीं है कि सभी मूर्तियों के निर्माण के पीछे की भावना हमेशा महान ही होती हो। कुछ मूर्तियां चापलूसी में भी बनवाई जाती हैं और कुछ मूर्तियां ऐसी भी होती हैं, जो अवाम पर सत्ता की तरफ से थोप दी जाती हैं। मूर्तियों को बनवाने के कारण अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन किसी भी मूर्ति को तोड़ने का कारण एक ही होता है- कुंठा। यहां पर यह सब याद करने का कारण है त्रिपुरा में चुनाव नतीजे आने के तीन दिन बाद ही रूस की साम्यवादी क्रांति के नायक कहे जाने वाले व्लादीमीर लेनिन की मूर्ति का तोड़ दिया जाना। कुछ लोग इसकी तुलना उस वाकये से कर रहे हैं, जब इराक में अमेरिकी आक्रमण के बाद सद्दाम हुसैन की एक चौराहे पर लगी मूर्ति तोड़ी गई, तो उसका सीधा प्रसारण दुनिया भर में हुआ था। वहीं कुछ लोग इसकी तुलना अफगानिस्तान के बामियान प्रांत में सदियों से खड़ी महात्मा बुद्ध की उस मूर्ति को ढहा दिए जाने से भी कर रहे हैं, जिन्हें तालिबान ने सत्ता में आते ही अपना पहला निशाना बनाया था। उस विश्व धरोहर को किन कलाकारों ने बनाया, इतिहास में उनका नाम कहीं नहीं है। जिन्होंने गोलाबारी करके इसे ढहाया था, उनका नाम इतिहास में सदा के लिए दर्ज हो चुका है।
जो लोग सत्ता हासिल होते ही मूर्तियों और स्मारकों के निर्माण का अभियान चलाते हैं, वे कोई बड़ा तीर नहीं मारते। इतिहास किसी भी शासक को उसके कामकाज से याद रखता है, उसके स्मारक और उसकी मूर्तियों से नहीं। इसके विपरीत जो लोग सत्ता हासिल करते ही मूर्तियां तोड़ने के अभियान पर निकल पड़ते हैं, उन्हें इतिहास शायद ही कभी अच्छी नजर से देखता हो। इस तरह से मूर्तियां तोड़े जाने का कई बार कितना उल्टा असर पड़ता है, इसे हम भारतीयों से ज्यादा अच्छी तरह कोई नहीं समझ सकता। इस देश में हमलावरों द्वारा तोड़ी गई ऐसी न जाने कितनी मूर्तियां हैं, जो स्मारक का दर्जा हासिल कर चुकी हैं। लेनिन एक ऐसी परंपरा के नायक हैं, जो अब पूरी दुनिया से लगातार विदा हो रही है, जहां है, वहां भी रस्मी तौर पर ही है। अतीत के तहखाने में पहुुंच चुकी इस शख्सीयत की मूर्ति तोड़ने वाले यह भूल रहे हैं कि ऐसा करके वे उसे अपने वर्तमान में एक बेवजह प्रासंगिकता दे रहे हैं।
दुनिया में कई जगह सत्ता परिवर्तन के साथ मूर्तियां तोड़ी गई हैं। सत्ता परिवर्तन के साथ ही मूर्तियां न तोड़ी जाएं, इसका अच्छा उदाहरण भारत ही है। अगर आप लखनऊ में राजकीय संग्रहालय के पिछले हिस्से में जाएं या फिर दिल्ली के कोरोनेशन पार्क में, तो वहां आपको रानी विक्टोरिया से लेकर कई वायसराय और तमाम बड़े अंग्रेज अफसरों की मूर्तियां खड़ी दिखाई देंगी। आजादी के बाद ब्रिटिश साम्राज्य की इन निशानियों को तोड़ा नहीं गया, बल्कि शहर के सुरक्षित इलाके में पहुंचा दिया गया। इसके विपरीत लाहौर में जिस तरह से सर गंगाराम की मूर्ति को तोड़ा गया, उस पर प्रसिद्ध कहानीकार मंटो ने बाकायदा एक कहानी लिखी थी। यही है, भारत और पाकिस्तान का फर्क। सत्ता बदलने के बाद इतिहास को सहेजने और उसे तोड़ने का फर्क।
अमर उजाला
महबूबा सरकार की चूक
सर्वोच्च न्यायालय में जम्मू-कश्मीर के शोपियां में 27 जनवरी को सेना की गोली से मारे गए तीन नागरिकों से संबंधित मामले में मेजर आदित्य कुमार के खिलाफ की गई राज्य सरकार की मुकदमे की कार्रवाई पर रोक लगा दी है। इस घटना में प्रथम दृष्टया ही राज्य सरकार की चूक नजर आती है। उस दिन सेना के काफिले पर पत्थरबाजों ने हमला किया था, जवाब में सेना ने गोलीबारी की थी, जिनमें तीन लोगों की मौत हो गई थी। इसके बाद महबूबा मुफ्ती की अगुवाई वाली राज्य सरकार ने सेना के खिलाफ एक एफआईआर दर्ज की थी, जिससे अपनी स्थिति निर्मित हो गई जम्मू-कश्मीर में सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम यानी अस्फ्फा लागू है, जिसके तहत राज्य सरकार किसी सैन्य अधिकारी के खिलाफ केंद्र की मंजूरी के बिना मुकदमा नहीं कर सकती। सुनवाई के दौरान राज्य सरकार के वकील का तर्क था कि एफआईआर में आरोपी के रूप में मेजर आदित्य का नाम दर्ज नहीं किया गया, लेकिन उसमें यह तो दर्ज था ही कि वह उस सैन्य टुकड़ी के कमांडिंग ऑफिसर थे। हैरत इस बात की है कि केंद्र और राज्य दोनों जगह ही एनडीए की सरकारें हैं, इसके बावजूद इतनी बड़ी चूक कैसे हो गई! इससे भी दुखद यह है कि मेजर आदित्य के बचाव में उनके पिता लेफ्टिनेंट कर्नल करमवीर को आगे आना पड़ा है। सर्वोच्च अदालत ने मेजर आदित्य के खिलाफ आपराधिक मामले में कार्रवाई पर रोक लगाते हुए स्पष्ट किया है कि सेवारत किसी सैन्य अधिकारी के साथ किसी अपराधी जैसा सलूक नहीं किया जा सकता। यह भी समझने की जरूरत है कि जम्मू-कश्मीर में सैन्य बल की विषम परिस्थितियों में काम करते हैं। पत्थरबाजी की घटनाओं में सेना और पुलिस बल ही उपद्रवियों के निशाने पर होते हैं। महबूबा सरकार ने राज्य के भटके हुए युवाओं को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए उन पर मुकदमा वापस लेने की अच्छी पहल की थी, लेकिन इसके साथ यह भी देखना होगा कि इसका प्रतिकूल असर वहां तैनात सेना के जवानों के मनोबल पर न पड़े। यह नहीं भूलना चाहिए कि आतंकवाद वहां बाह्य खतरा है, तो बेरोजगारी आंतरिक चुनौती, जिसका समुचित समाधान किए बिना युवाओं को अलगाववादियों और आतंकियों के पाले में जाने से नहीं रोका जा सकता। और इस सब के साथ यह भरोसा पैदा करने की भी जरूरत है कि वहां सेना राज्य और देश की हिफाजत के लिए मौजूद है।
दैनिक भास्कर
चीन को देखते हुए तिब्बत पर भारत की व्यावहारिक रणनीति
अंतरराष्ट्रीय स्थितियों के मद्देनज़र भारत चीन से किसी तरह का टकराव नहीं चाहता। यही कारण है कि तिब्बत सरकार के दिल्ली में होने वाले एक कार्यक्रम को रद्द कर दिया गया है और दूसरे को धर्मशाला ले जाया गया है। इस साल 31 मार्च को दलाई लामा के तिब्बत से भारत आने के 60 साल पूरे हो रहे हैं और तिब्बत सरकार ने उस आगमन को स्मरणीय बनाने के लिए 31 मार्च और 1 अप्रैल को दिल्ली में दो कार्यक्रम निर्धारित किए थे। इनमें अंतर-आस्था का कार्यक्रम राजघाट स्थित गांधी समाधि पर और भारत को आभार जताने वाला दूसरा कार्यक्रम त्यागराज स्टेडियम में होना था। इस बीच सरकार की तरफ से जब अपने पदाधिकारियों को कार्यक्रम में भाग लेने से मना किया गया तो पहला रद्द कर दिया गया और दूसरा धर्मशाला में करने का फैसला लिया गया। हालांकि, भारत सरकार ने इस फैसले के पीछे कोई कारण नहीं बताया है लेकिन, पिछले दिनों हुए भारत के विदेश सचिव विजय गोखले के चीन दौरे और जून में शंघाई सहयोग संगठन में होने वाली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भागीदारी के मद्देनज़र इस स्थिति को समझा जा सकता है। भारत सरकार नहीं चाहती कि चीन भारत की सीमा पर डोकलाम जैसी स्थिति फिर उत्पन्न करे। निश्चित तौर पर तिब्बत की समस्या जटिल है और भारत मानवीय आधार पर तिब्बत की निर्वासित सरकार और परम पावन दलाईलामा के साथ पूरी सहानुभूति रखता है। इसीलिए उसने उन्हें अपने देश में पनाह दे रखी है। इसके बावजूद चीन की आक्रामक नीति और तिब्बत के लिए विशेष संवेदनशीलता को देखते हुए भारत इस स्थिति में नहीं है कि वह इस मुद्दे का कोई राजनयिक लाभ उठाए। भारत को चीन के साथ न सिर्फ व्यापारिक रिश्तों का निर्माण करना है बल्कि पाकिस्तान के संदर्भ में उसे उदासीन भी करना है। चीन ने हाल में यूरोपीय देशों द्वारा पाकिस्तान को निगरानी सूची में डाले जाने पर कोई आपत्ति नहीं की थी, जो सहयोग का संकेत था। दूसरी ओर, भारत ने भी चीन का ध्यान रखते हुए मालदीव में किसी तरह का सैन्य हस्तक्षेप नहीं किया है। अमेरिकी राष्ट्रपति की आयात विरोधी नीतियों के कारण भारत और चीन को एक साझा मुद्दा मिल सकता है, जिस पर जून के सम्मेलन में दोनों में नज़दीकी बढ़ने की गुंजाइश है। चीन से सहयोग और विश्वास निर्माण की इन स्थितियों के बीच तिब्बत पर भारत का निर्णय व्यावहारिक है।
राजस्थान पत्रिका
त्रिपुरा में संयम बरतें
नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के सर्वाधिक लोकप्रिय और मजबूत नेता बेशक होंगे लेकिन लगता है कि पार्टी के लोग हैं उनकी बात नहीं बात नहीं उनकी बात नहीं सुन रहे।। सुन रहे होते तो त्रिपुरा त्रिपुरा होते तो त्रिपुरा त्रिपुरा तो त्रिपुरा त्रिपुरा में आज वह देखने को नहीं होता, जो हो रहा है। त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में 25 साल बाद भाजपा ने वामपंथी दलों का सफाया क्या किया, उसके कार्यकर्ता हिंसा पर उतर आए। भाजपा सरकार के शपथ लेने के पहले ही उनके समर्थकों ने वामपंथी दलों के कार्यालयों को निशाना बनाना शुरू कर दिया। दो दिनों से त्रिपुरा हिंसा की आग में झुलस रहा है। वामपंथी दलों की राजनीतिक हिंसा का विरोध करने वाले लोग खुद हिंसा में लिप्त। हैं अपने भाषण में मोदी कार्यकर्ताओं से विनम्र रहने का अनुरोध करते हैं। कार्यकर्ताओं को समझाते हैं कि पार्टी जितनी बड़ी बन रही है, कार्यकर्ताओं को उतना ही विनम्र बनने की जरूरत है। कार्यकर्ता यदि मोदी को अपना आदर्श मानते हैं तो उन्हें उनकी बात सुननी भी चाहिए और उसका अनुसरण भी करना चाहिए। त्रिपुरा में भाजपा ने बड़ी जीत दर्ज की है। भाजपा की सफलता को राजनीतिक विश्लेषक भी आश्चर्यजनक मान रहे हैं। पिछले चुनाव में एक भी सीट नहीं जीत पाने वाली भाजपा इस चुनाव में वहां सहयोगी दल के साथ मिलकर 43 सीटें जीतने में कामयाब रही। भाजपा की जीत के मायने साफ हैं। मतदाताओं ने 25 साल पुरानी वामपंथी सरकार को उखाड़ फेंका। शायद इसलिए क्योंकि वे सरकार की कार्यशैली से नाराज थे। सत्तारूढ़ वामपंथी दलों के कार्यकर्ताओं पर विरोधी कार्यकर्ताओं की हत्या के आरोप लगते थे। त्रिपुरा में सरकार बदलने के बावजूद यदि राजनीतिक हिंसा नहीं रुकती है तो बदलाव का अर्थ क्या रह जाता है? लोकतंत्र में हिंसा के लिए न कभी कोई जगह थी और न हो सकती है। भाजपा नेता त्रिपुरा में अपनी जीत को विचारधारा की जीत बता रहे हैं। जाहिर है सरकार बनाने के बाद भाजपा को उन वायदों को पूरा करने में जुट जाना चाहिए जो उसने मतदाताओं से किए थे। चुनाव में हार-जीत सिक्के के दो पहलू हैं। आज जो जीता वह कल हार भी सकता है। राजनीति में विरोधी को विरोधी हीं समझना चाहिए, शत्रु नहीं। त्रिपुरा में जो हो रहा है उसे रोकने के लिए सरकार के साथ सभी राजनीतिक दलों को आगे आना चाहिए। लोकतंत्र की जीत तभी मानी जाएगी।
दैनिक जागरण
नया संसदीय रिवाज
संसद के दोनों सदनों में जिस तरह लगातार दूसरे दिन भी हंगामा देखने को मिला उससे इस नतीजे पर पहुंचने के अलावा और कोई उपाय नहीं कि अधिसंख्य विपक्षी दल बहस के बजाय नारेबाजी में अधिक दिलचस्पी दिखा रहे हैं। इसकी पुष्टि इससे भी होती है कि वे सदन में किस्म-किस्म के नारे लिखी तख्तियां लिए हुए भी दिखते हैं और नारेबाजी करते हुए भी। यह कितना उचित है कि सांसद नारे लिखी तख्तियां टीवी कैमरे के सामने लहराने की कोशिश करें? क्या यह वह आचरण नहीं जो सड़कों और चौराहों पर होता है या फिर एक समय धरना-प्रदर्शन के लिए चर्चित जंतर-मंतर पर देखने को मिलता था? आखिर हमारे सांसद संसद में सवाल पूछने या बहस करने के लिए जाते हैं या फिर यह जताने कि वे कैसे-कैसे नारे लिखने में माहिर हैं? क्या यह वह काम है जिससे संसद की गरिमा बढ़ती है? क्या इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि जिस संसद के कामकाज को सुनियोजित तरीके से बाधित किया जाए उसे ही पवित्र सदन या फिर जन आकांक्षाओं के सर्वोच्च मंच के तौर पर परिभाषित किया जाए? आखिर आम जनता ने यह अपेक्षा कब की कि सांसदों को संसद में नारेबाजी भी करनी चाहिए? समझना कठिन है कि जब सरकार यह कह रही है कि वह विपक्ष की ओर से उठाए गए सभी मुद्दों और खास तौर पर पंजाब नेशनल बैंक में घोटाले पर भी चर्चा के लिए तैयार है तब फिर विपक्ष संसद के कामकाज को बाधित करने के लिए क्यों आतुर है?1यह पहली बार नहीं जब विपक्ष जिस मसले को लेकर कथित तौर पर चिंतित या फिर नाराज दिख रहा है उस पर बहस करने के बजाय हंगामा कर रहा है। दरअसल अब यह नया संसदीय रिवाज बन गया है कि किसी ज्वलंत मसले पर सार्थक बहस के बजाय वहां हल्ला-हंगामा किया जाए-कभी संसद के भीतर और कभी बाहर। कभी-कभी तो भीतर-बाहर, दोनों जगह। इस प्रवृत्ति के चलते संसद में पहले भी कई-कई दिन तक काम नहीं हुआ है। इस बार भी ऐसे ही आसार दिख रहे हैं और वह भी तब जब आम बजट को मंजूरी देने के साथ ही कई महत्वपूर्ण विधेयकों पर चर्चा अपेक्षित है। नि:संदेह अन्य मसलों के साथ पीएनबी घोटाले पर चर्चा ही नहीं होनी चाहिए, बल्कि इससे जुड़े हर उस सवाल का जवाब भी मिलना चाहिए जो इन दिनों सतह पर है। आखिर विपक्ष इस बड़े घोटाले पर सरकार को घेरने या उससे सवाल पूछने का अवसर क्यों गंवा रहा है? क्या उसके रवैये से जनता को यह संदेश नहीं जा रहा कि उसकी दिलचस्पी इसमें है ही नहीं कि इस मसले पर ढंग से चर्चा हो? कहीं विपक्ष हल्ला-हंगामा करके पूवरेत्तर के तीन राज्यों में अपनी हार की खीझ तो नहीं निकाल रहा है? अगर नहीं तो फिर कृपा करके देश को बताया जाए कि संसद में काम होने के बजाय हंगामा क्यों बरपा है? यह एक त्रसदी ही है कि जब राजनीतिक दलों को इसके लिए कोशिश करनी चाहिए कि संसदीय कामकाज को कैसे और सार्थक एवं सकारात्मक बनाया जाए तब वे अपने आचार-व्यवहार से संसद की छवि से खेलने का काम रहे हैं।
प्रभात खबर
चिंताजनक ट्रेड वार
सीमा पर हथियारों से लड़े जानेवाले युद्ध अब बीसवीं सदी की बात हुए सदी की बात हुए, मौजूदा सदी के सबसे बड़े और कठिन युद्ध का मैदान कारोबार है. इसमें मतलब है अपनी वस्तुओं और सेवाओं के लिए वैश्विक स्तर पर फायदेमंद शर्तों के साथ बाजार बाजार तैयार करना और तमाम उपलब्ध विकल्पों (जिसमें परंपरागत युद्ध भी शामिल है) के सहारे उसे बनाये रखना. फिलहाल दो आर्थिक और सामरिक महाशक्तियों (अमेरिका और चीन) के बीच यही होता दिख रहा है. चीन की बढ़त से अपने बाजार को बचाने के लिए अमेरिका संरक्षणवादी नीतियां अपना अपना रहा है, जिसका असर वैश्विक ताने-बाने का अहम हिस्सा बन चुके भारत पर पड़ना लाजिमी है. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल में इस्पात और एल्युमीनियम के आयात पर क्रमशः 25 और 10 फीसदी शुल्क का इजाफा किया है. अमेरिका ने जनवरी में सोलर पैनल तथा वाशिंग मशीन के आयात पर भी 20 से 50 प्रतिशत तक शुल्क में बढ़ोत्तरी की थी. इन फैसलों का मुख्य निशाना चीन है, जो अमेरिका के दस बड़े व्यापारिक साझीदार देशों में एक है. वर्ष 2017 में चीन के साथ अमेरिका का व्यापार घाटा 375 बिलियन डॉलर तक पहुंच चुका था. चूंकि अभी आर्थिक और राजनीतिक तौर पर दमदार स्थिति में है, सो बहुत संभावना है कि अमेरिका को सबक सिखाने के लिए चीन पलटवार करे. चीन मकई, मांस और सोयाबीन का बड़े पैमाने पर आयात अमेरिका से करता है और अगर वह इन चीजों को किसी और देश से मंगाने लगे, तो अमेरिकी खेतिहर उत्पादों की ताकतवर लॉबी को जोरदार झटका लगेगा. दो महाशक्तियों के बीच पैदा होते आर्थिक युद्ध की पृष्ठभूमि में भारत के लिए जरूरत अपनी रणनीति नये सिरे से गढ़ने की बन रही है. भारत भी अमेरिका के दस बड़े व्यापारिक साझीदार देशों में एक है और फिलहाल अमेरिका के साथ भारत का व्यापार मुनाफा (तकरीबन 22 बिलियन डॉलर) की स्थिति में है यानी अमेरिका को होनेवाले भारतीय निर्यात का मोल अमेरिका से होनेवाले आयात से ज्यादा है. वैसे अमेरिका को भारतीय निर्यात में हीरा, दवाइयां, मछली, कपड़े आदि प्रमुख हैं, लेकिन भारत अमेरिका को इस्पात तथा एल्यूमीनियम और इनसे बने उत्पादों का भी अच्छी मात्रा में निर्यात करता है, जिन पर अमेरिका ने आयात शुल्क बढ़ाने की घोषणा की है. विकल्प के तौर पर या तो भारत को अमेरिका से अपने लिए तरजीही बरताव की मांग करनी होगी या फिर बात और अल्यूमीनियम निर्यात के मामले में उसे नये बाजार तलाशने होंगे. ऐसे में भारत के लिए चुनौती आर्थिक मोर्चे पर एल्यूमीनियम और इस्पात के बने सामानों के सबसे बड़े निर्यातक चीन के साथ प्रतिद्वंदिता की स्थिति से निबटने की होगी. इस ट्रेड वार से आर्थिक मंदी की आशंका है. इसलिए इससे निबटने की तैयारी भी पहले से होनी चाहिए, ताकि किसी चुनौती का सामना आत्मविश्वास से किया जा सके. वैश्विक खींचतान में कूटनीतिक संतुलन और राष्ट्रीय हित को साधने के इंतजाम भी किये जाने चाहिए.
देशबन्धु
लेनिन ,भगत सिंह बामियान के बुद्ध
पूर्वोत्तर के तीन विधानसभा चुनावों में जीत के बाद गदगद प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि लोगों ने भाजपा को वोट देकर नफरत की राजनीति को नकारा है। हालांकि भाजपा कहीं भी अकेले के दम पर सत्ता में नहीं आई, त्रिपुरा, नगालैंड में उसने गठबंधन किया और मेघालय में मात्र दो सीटें जीतकर भी सत्ता हथियाने की शातिर चाल चली। इसलिए यह कहना कि लोगों ने भाजपा को वोट दिया, पूरी तरह सही नहीं है। और जहां तक बात नफरत की राजनीति को नकारने की है, तो उसका सच भी सामने आ रहा है।
त्रिपुरा में चुनाव परिणाम आने के कुछ घंटों बाद ही हिंसा शुरु हो गई और भाजपा के लोगों ने दिखा दिया कि उनकी राजनीति में नफरत के लिए कितनी सारी जगह है। वे विरोधियों को हराते नहीं हैं, बल्कि बदला लेते हैं। और इसी बदले की भावना का परिणाम है कि त्रिपुरा में लेनिन की प्रतिमा को बुलडोजर से ढहा दिया गया और जब यह काम हो रहा था, तब भाजपा की टोपी पहने कार्यकर्ता भारत माता की जय के नारे लगा रहे थे। रूसी क्रांति के जनक लेनिन ने दमन और शोषण की सत्ता के खिलाफ जनता में प्रतिरोध की ताकत जगाई थी। उनकी राजनीति का केेंद्र वह सर्वहारा वर्ग था, जो जीवन की बुनियादी जरूरतों से भी वंचित था।
मोदीजी खुद को कभी चायवाला, कभी फकीर बताकर इसी गरीब वर्ग के हिमायती बनते हैं। अगर वे सच में गरीबों के बारे में सोचते हैं तो उनकी और लेनिन की विचारधारा में कोई अंतर ही नहीं होना चाहिए। फिर क्यों भाजपा के लोग लेनिन की मूर्ति तोड़कर इस तरह अपनी जीत का जश्न मना रहे हैं, मानो उन्होंने साक्षात लेनिन को ही मात दे दी हो। जिन भगत सिंह की शहादत को भारत माता के ये तथाकथित सपूत समय-समय पर भुनाने की कोशिश करते हैं, वे भी लेनिन को अपना आदर्श मानते थे। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि फांसी के फंदे पर झूलने से कुछ घंटों पहले भी भगत सिंह रिवोल्यूशनरी लेनिन नाम की किताब पढ़ रहे थे। उन्हें मालूम था कि कुछ घंटों बाद वे इस दुनिया में नहीं होंगे, फिर भी जब तक सांसे हैं, वे लेनिन के विचारों को आत्मसात करना चाहते थे।
21 जनवरी 1930 को जब उन्हें अदालत में पेश किया गया, वहां भी उन्होंने लेनिन जिंदाबाद के नारे लगाए। अगर भाजपा लेनिन का विरोध करती है, तो एकतरह से वह भगतसिंह का भी विरोध कर रही है। त्रिपुरा में जिस तरह लेनिन की मूर्ति गिराई गई, उसे देखकर बामियान के बुद्ध याद आ गए। अफगानिस्तान में प्राचीन सिल्क रूट पर स्थित बामियान की पहाड़ियों में चौथी और पांचवी सदी की बनी बुद्ध की दो मूर्तियां थीं। मार्च 2001 में तालिबान के नेता मुल्ला मोहम्मद उमर ने इन मूर्तियों को डायनामाइट से उड़वा दिया था। बुद्ध ने शांति, अहिंसा, करुणा का संदेश दिया था, जबकि तालिबानी धर्म के नाम पर आतंक की सत्ता स्थापित करना चाहते थे। इसलिए शांतिदूत बुद्ध उन्हें नागवार गुजरे। क्या इसी तरह भाजपा को लेनिन नागवार गुजर रहे हैं, जो समाज से गैरबराबरी दूर करना चाहते थे।
आज मोदीजी सबका साथ और सबका विकास का जो नारा देते हैं, 101 साल पहले 1917 में लेनिन ने ऐसे ही सिद्धांतों के साथ रूसी क्रांति की शुरुआत की थी। इस क्रांति ने रूस ही नहीं दुनिया की राजनीति को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया था और गरीबों को अपने अधिकारों के लिए लड़नेे और सम्मान के साथ जीने के लिए प्रेरित किया। तब की पूंजीवादी सत्ता लेनिन द्वारा शुरू की गई क्रांति का दमन नहीं कर पाई। लेकिन आज मोदीजी के अनुयायी लेनिन के मूर्तिभंजक बन गए। क्या इनके विचार इतने कमजोर हैं कि इन्हें एक मूर्ति से ही खतरा लगने लगा? जनता ने तो आपको पांच साल का शासन दे दिया है, फिर नफरत की सत्ता क्यों ये लोग कायम करना चाहते हैं?