नवभारत टाइम्स
ट्रूडो का दौरा
सात दिवसीय भारत दौरे पर आए कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने जिस सादगी से साबरमती आश्रम से लेकर स्वर्णमंदिर तक की यात्रा की, वह देश के लिए अलग तरह की बात थी। सादगी भरी यह सुंदरता कम राजनेताओं में देखने को मिलती है। इस बीच कनाडाई मीडिया ने उनकी जमकर खिंचाई की। कहा कि भारत में एक जूनियर मिनिस्टर उन्हें रिसीव करने आया। यह भी कि वे इधर-उधर घूमते फिर रहे हैं, कोई उन्हें पूछ भी नहीं रहा। बहरहाल, ये सारे कटाक्ष दौरे के छठें दिन खारिज हो गए, जब जस्टिन ट्रूडो दिल्ली पहुंचे और राष्ट्रपति भवन में उन्हें गार्ड ऑफ ऑनर दिया गया। ट्रूडो की बेटी एला-ग्रेस ने राष्ट्रपति भवन में जैसे ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देखा, दौड़कर उनके गले लग गई। दरअसल, दोनों में अच्छी जान पहचान है। इस मुलाकात के पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ट्विटर से सन 2015 के कनाडा दौरे की वह तस्वीर ट्वीट की थी, जिसमें वह एला के साथ खेल रहे थे। दौरे के आखिरी चरण में दोनों देशों के बीच छह क्षेत्रों में समझौते हुए जिसमें इलेक्ट्रॉनिक्स, पेट्रोलियम, स्पोर्ट्स, कॉमर्स एंड इंडस्ट्रियल पॉलिसी और उच्च शिक्षा के अलावा साइंस, टेक्नोलॉजी व इनोवेशन शामिल हैं। भारत कनाडा का आठवें नंबर का आयातक है और दोनों देशों के बीच पिछले साल 8.4 अरब डॉलर का व्यापार हुआ है। अभी चार सौ से अधिक कनाडाई कंपनियां भारत में काम भी कर रही हैं। आपसी कारोबार का दायरा बढ़ाने को लेकर दोनों देश उत्सुक हैं और इस दौरे के बाद शायद इसमें तेजी देखने को मिले। बहरहाल, प्रधानमंत्री ट्रूडो के दौरे की एकमात्र दुखती रग रहा आतंकवाद, जो दोनों देशों की समस्या है और जिस पर कड़ाई से रोक लगाने को लेकर दोनों ही प्रतिबद्ध हैं। वजह जो भी रही हो, पर इस दौरे में एक बड़ी चूक दर्ज की गई। सन 1986 में पंजाब सरकार के मंत्री मलकीत सिंह सिद्धू पर जानलेवा हमला करने वाले आतंकवादी जसपाल अटवाल को दिल्ली स्थित कनाडाई उच्चायोग में भोज के लिए आमंत्रित करना पुराने घावों को कुरेद गया। यह दर्द इसलिए भी ज्यादा हुआ, क्योंकि ट्रूडो अपने देश में सिख आतंकवाद को लेकर अपने नरम लहजे के लिए जाने जाते रहे हैं। चाहे वह खालसा दिवस पर होने वाली रैली में हिस्सा लेने की बात हो या खालिस्तानी आतंकवाद का समर्थन करने वाले संदिग्ध चरित्र के लोगों को मंत्रिमंडल में जगह देने की, भारत का रुख इस बारे में हमेशा आलोचनात्मक ही रहा है। ऐसा होना जायज है क्योंकि जिस अलगाववादी आंदोलन ने आज तक भारत को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है, वह खालिस्तान मूवमेंट ही था। हल्ला मचने पर गेस्ट लिस्ट से आनन-फानन में अटवाल का नाम हटा दिया गया, लेकिन इससे जो नुकसान होना था, वह हो गया। इस एक किरच को हटा दें तो दोनों देशों के बीच जो समझौते हुए हैं, वे आपसी रिश्तों को नई ऊंचाई तक ले जाने वाले हैं।
जनसत्ता
संघर्ष अविराम
दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय फलक पर भी पाकिस्तान को झटका लगा है। पिछले हफ्ते एफएटीएफ यानी फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स की पेरिस में हुई बैठक में पाकिस्तान को, आतंकवादियों को वित्तीय मदद रोक पाने में नाकाम रहने की वजह से, निगरानी सूची में डालने का फैसला किया गया।
नियंत्रण रेखा पर हिंसा की घटनाएं कब थमेंगी, कोई नहीं जानता। यों तो भारत और पाकिस्तान के बीच 2003 से संघर्ष विराम समझौता लागू है, लेकिन इस समझौते की धज्जियां उड़ने की खबरें रोज आती हैं। इसका यह अर्थ नहीं कि यह समझौता अकारथ था। संघर्ष विराम समझौते से पहले के दशक की तुलना में समझौता लागू होने के बाद के दशक में नियंत्रण रेखा पर टकराव और हिंसा की घटनाएं बहुत कम हुर्इं। लेकिन पिछले चार-पांच साल में ऐसी घटनाएं इतनी ज्यादा हुई हैं कि लगता ही नहीं कि दोनों देशों ने संघर्ष विराम नाम का कोई समझौता भी कर रखा है। भारत और पाकिस्तान के रिश्ते दशकों से काफी उतार-चढ़ाव भरे रहे हैं। खटास कई बार तीखी तकरार में बदल जाती है। इस इतिहास को देखते हुए सरहद पर अशांति पैदा हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। लेकिन जो सबसे चुभने वाली बात है वह यह कि एक देश आतंकियों को सीमा पार कराने के लिए झड़प और गोलीबारी का सहारा ले। यह बहुत बार देखा गया है कि सरहद पर तैनात पाकिस्तानी सैनिक भिडंत का कोई फौरी कारण न होते हुए भी गोलीबारी शुरू कर देते हैं। पर वास्तव में यह अकारण नहीं होता। कारण यह होता है कि वे घुसपैठियों को अपनी सीमा से दूसरी तरफ दाखिल कराना चाहते हैं।
चूंकि भारतीय सेना ने नियंत्रण रेखा पर चौकसी और कड़ी कर दी है, इसलिए पाकिस्तान की बैट या बॉर्डर एक्शन टीम घुसपैठ कराने के प्रयासों में नाकाम रहने पर बौखला कर भारतीय सैनिकों पर हमला कर देती है। इसी तरह के हमले को एक बार फिर, बीते सप्ताह, भारतीय सैनिकों ने विफल कर दिया। इस कार्रवाई में पाकिस्तान की चार चौकियों के तबाह होने और उसके कई सैनिकों के ढेर होने की खबर है। पिछले कुछ दिनों से पाकिस्तानी सैनिक इन्हीं चार चौकियों से लगातार भारतीय सैन्य चौकियों को निशाना बना कर गोलाबारी कर रहे थे। इन चौकियों से आतंकियों को भारतीय सीमा में दाखिल कराने का बार-बार प्रयास किया जा रहा था। भारतीय सैनिक अगर चौकस नहीं रहते, तो बैट के इस हमले में काफी नुकसान हो सकता था। भारत की जवाबी कार्रवाई में मौके पर तैनात उसके सैनिकों की चौकसी के अलावा रक्षा क्षेत्र से जुड़ी खुफिया एजेंसी की तत्परता और दक्षता की भी अहम भूमिका रही। हमारी सेना को बैट के हमले के बारे में पहले से ही खुफिया सूचनाएं मिल गई थीं। नियंत्रण रेखा के पार पाकिस्तानी सैनिकों और आतंकियों के जमा होने की खबरें मिली थीं। घुसपैठियों की खातिर रास्ता बनाने के लिए उस पार से जमकर गोलाबारी की गई। पर उन्हें मुंह की खानी पड़ी।
दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय फलक पर भी पाकिस्तान को झटका लगा है। पिछले हफ्ते एफएटीएफ यानी फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स की पेरिस में हुई बैठक में पाकिस्तान को, आतंकवादियों को वित्तीय मदद रोक पाने में नाकाम रहने की वजह से, निगरानी सूची में डालने का फैसला किया गया। एफएटीएफ ने अपनी रिपोर्ट में पाकिस्तान को संयुक्त राष्ट्र से प्रतिबंधित आतंकी संगठनों और व्यक्तियों के वित्तीय लेन-देन पर रोक न लगाने का दोषी पाया था। एफएटीएफ की निगरानी सूची में डाले जाने से न केवल दुनिया की निगाह में पाकिस्तान की छवि पर और बट््टा लगा है, बल्कि उसकी अर्थव्यवस्था को भी नुकसान उठाना पड़ सकता है। उसे विदेश व्यापार में और दूसरे देशों तथा अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं से कर्ज लेने में मुश्किल पेश आएगी। क्या पाकिस्तान इससे कोई सबक लेगा?
अमर उजाला
घटेगा बस्ते का बोझ
छात्रों का बस्ता हल्का करने की दिशा में केंद्र सरकार ने जो सदिच्छा जताई है, उसका स्वागत करना चाहिए। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर के मुताबिक, अगले महीने नई शिक्षा नीति से संबंधित रिपोर्ट आने वाली है, और उस पर अगर सहमति बन जाती है, तो 2019 से स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में कई सुखद बदलाव दिख सकते हैं। बच्चों को भारी-भरकम स्कूली बच्चे से निजात दिलाने की मांग वर्षों से हो रही है। हाल का एक अध्ययन भी बता चुका है कि आठ से तेरह साल तक के बच्चों को पांच से दस किलो का वजनी बस्ता लेकर स्कूल जाना पड़ता है। इससे उनकी पीठ और गर्दन में दर्द रहता है, तो कुछ बच्चे हड्डी की बीमारी से ग्रस्त हो जाते हैं। दरअसल एनसीईआरटी ने एक ही विषय की कई किताबें पाठ्यक्रम में शामिल कर दी हैं। उसका पाठ्यक्रम अगर बी.ए. और बी.कॉम. के कोर्स से ज्यादा है, तो यही अपने आप में बच्चों पर डाले गए बोझ के बारे में बताने को काफी है। नतीजतन पढ़ाई के बोझ से दबे बच्चे खेल-कूद के लिए समय नहीं निकाल पाते, जिससे उनका शारीरिक विकास कमोबेश बाधित होता है। नई शिक्षा नीति में बच्चों का बस्ता हल्का करने की बात तो है ही, इसमें सालाना परीक्षा में फेल होने वाले छात्रों को फिर से परीक्षा देने का एक और मौका देने का प्रावधान भी है। यह अच्छा है कि नई शिक्षा नीति में शिक्षकों की कमतर योग्यता का मुद्दा भी उठाया गया है। लेकिन इससे जुड़ा एक कड़वा सच यह भी है कि 2015 तक महज पांच लाख शिक्षकों को ही प्रशिक्षित किया गया, जबकि लक्ष्य इस दौरान बीस लाख शिक्षकों को प्रशिक्षित करने का था। स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में कमियां दिखती हैं, तो इसका एक बड़ा कारण शिक्षकों का प्रशिक्षण न होना भी है। खासकर उत्तर प्रदेश में यह बड़ी समस्या है, जहां एक और राजनीतिक निष्ठा के आधार पर कम योग्य शिक्षा मित्रों की नियुक्ति कर ली जाती रही है, तो दूसरी ओर, नकल पर सख्ती बरतने के कारण इस साल यूपी बोर्ड के लाखों छात्रों ने परीक्षा छोड़ दी है। बेशक सभी राज्य शिक्षा बोर्डों में एकरूपता लाना व्यावहारिक व्यावहारिक और वांछनीय नहीं है, लेकिन क्या यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि इस अवसर पर उत्तर प्रदेश में भी स्कूली शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए एक कारगर रोडमैप तैयार हो।
हिंदुस्तान
समाधान की समस्या
यह बात 2016 के क्रिसमस की है। अमेजन कंपनी ने कैंब्रिज में पहली बार डिलिवरी के लिए ड्रोन का इस्तेमाल किया। हालांकि यह डिलिवरी प्रयोग के तौर पर की गई थी, जिसमें ऑर्डर देने के 13 मिनट के अंदर ही ड्रोन से पॉपकॉर्न का एक बड़ा सा पैकेट डिलिवर कर दिया। इस प्रयोग ने जो उम्मीदें पैदा कीं, उन पर कई कंपनियां आज भी गंभीरता से काम कर रही हैं। यह माना जा रहा है कि डिलिवरी का काम अब जल्द ही सड़कों और गलियों में दौड़ते वाहनों के जरिए नहीं, बल्कि आसमान से उड़कर आने वाले ड्रोन के जरिए हो जाया करेगा। पिछले कुछ समय में पिज्जा डिलिवरी करने वाली कंपनियां इसमें कुछ ज्यादा ही दिलचस्पी दिखा रही हैं। आइसलैंड के रेक्येवीक शहर में तो बाकायदा यह सेवा शुरू भी हो चुकी है। हालांकि निजता के अधिकार की बात करने वाले इसका विरोध भी कर रहे हैं। उनका कहना है कि ड्रोन सामान तो किसी एक के पास पहुंचाएगा, लेकिन इस बीच वह कई लोगों की निजता में घुसपैठ कर सकता है। लेकिन इस बीच ड्रोन से डिलिवरी के समर्थन में एक और तर्क यह आया है कि ड्रोन डिलिवरी प्रदूषण को कम करेगी। एक ड्रोन वातावरण में उतना प्रदूषण नहीं फैलाता, जितना कि एक ट्रक या एक मोटरसाइकिल फैलाती है। यह तर्क काफी चल निकला है, इसीलिए ड्रोन डिलिवरी का प्रचलन बढ़ाने की मांग जगह-जगह से उठने लगी है।
लेकिन पिछले दिनों जब अमेरिका के एक शोधकर्ता ने इस दावे पर शोध किया, तो पाया कि मामला इतना आसान नहीं है। विज्ञान किसी चीज के प्रदूषण को इस बात से नापता है कि उसका कार्बन फुटप्रिंट कितना है, यानी उससे कार्बन का उत्सर्जन कितना होता है? उन्होंने पाया कि प्रदूषण कम होने का यह दावा हर मामले में सही नहीं है। यह ठीक है कि ड्रोन डीजल, पेट्रोल या गैस से नहीं चलते और वे वातावरण में वैसे धुआं भी नहीं छोड़ते, जैसे ट्रक या मोटरसाइकिलें छोड़ती हैं। लेकिन इसी के साथ यह भी समझना होगा कि ड्रोन अपनी उड़ान और अपने बाकी संचालन के लिए विद्युत चालित बैटरी का इस्तेमाल कुछ उसी तरह करते हैं, जैसे हमारे मोबाइल फोन। फिलहाल दुनिया के ज्यादातर हिस्सों का सच यह है कि वहां विद्युत उत्पादन जीवश्म ईंधन के जरिये ही होता है। जहां जल विद्युत बन रही है, वहां भी बांधों के निर्माण के लिए बड़ी संख्या में पेड़ों की कटाई होती है। हां, अगर सौर ऊर्जा से बनी बिजली का इस्तेमाल हो, तो यह तर्क कुछ हद तक दिया जा सकता है, लेकिन बस कुछ हद तक ही। हम जैसे बिजली से चलने वाले ड्रोन इस्तेमाल करते हैं, वैसे ही बिजली से चलने वाली गाड़ियां भी इस्तेमाल कर सकते हैं। इस शोध में पाया गया कि अगर आपको आधा-एक किलो तक का सामान भेजना है, तब तो ड्रोन डिलिवरी ऊर्जा बचाएगी, लेकिन अगर आपको सौ किलो का समान पहुंचाना है, तो ड्रोन से बहुत कम विद्युत का इस्तेमाल करके ट्रक माल की डिलिवरी कर देगा।
यह एक उदाहरण है कि पर्यावरण से निपटने के जिन उपायों की बाजार में जोर-शोर से वकालत चल रही है, उसमें बहुत सारे हवाई दावे हैं। हालांकि दावे कितने भी हवाई हों, लेकिन अच्छी बात यह है कि दुनिया ने अब समाधान खोजना तो शुरू कर दिया है। वैसे यह कोई नई बात भी नहीं कि समाधान का हर रास्ता उलझाने वाली बहुत सी बाधाओं के बाद ही निकलता है।
राजस्थान पत्रिका
मतलब के बोल!
लगता है चंद नेताओं ने देश को अशांत बनाए रखने की सुपारी उठा रखी है। तमाम दलों में बिखरे ऐसे नेता रह-रहकर ऐसी चिंगारी छोड़ते रहते हैं जो देश को सुलगाती रहे। ताजा चिंगारी छोड़ी है उत्तर प्रदेश के भाजपा विधायक विक्रम सैनी ने। एक सार्वजनिक कार्यक्रम में खुलकर बोले कि, ‘देश में कानून नहीं है, इसलिए जितने चाहो, बच्चे पैदा करो।’ दुनिया में आबादी के लिहाज से दूसरे सबसे बड़े देश के एक विधायक के इस तरह के बोल क्या सभ्य समाज के लिए शोभा देते हैं? विधायक यहीं नहीं रुके। बोल गए कि, ‘कहीं हम दो, हमारे 18 और कहीं हम दो, हमारे एक’ वाला फॉर्मूला चलने वाला नहीं। ये विधायक उत्तरप्रदेश में सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी के हैं। अब तो दिल्ली और उत्तर प्रदेश के समेत अधिकांश राज्यों में भाजपा सरकार है। चाहे तो जनसंख्या नियंत्रण कानून बना सख्ती से लागू करा भी सकती है। बढ़ती आबादी पर अंकुश लगाना सबकी नैतिक जिम्मेदारी है। अधिक बच्चे होने पर चुनाव लड़ने से रोकने के कुछ प्रावधान सरकारें लाई हैं और परिणाम देखने को मिल रहे हैं। अधिक बच्चे पैदा करने के लिए उकसाना एक बात है लेकिन अधिक बच्चों को पालना क्या आज के दौर में तर्कसंगत लगता है? ऐसे में कोई विधायक सार्वजनिक रूप से अधिक बच्चे पैदा करने का आह्वान करे, तो आश्चर्य तो होगा ही। भाजपा के तमाम वरिष्ठ नेता अपने जनप्रतिनिधियों को नापतौल के बोलने की नसीहतें तो खूब देते हैं लेकिन ऐसे बयान देने वालों पर शायद ही कभी कार्रवाई होती हो। दूसरे दलों में भी भड़काऊ बयान देने वाले नेताओं की कमी नहीं है। लेकिन बड़ी जिम्मेदारी उस पर बनती है जो शासन में बैठा हो। ऐसे बयानों से देश हर समय तनाव के दौर से गुजरता रहता है। बीते पांच सालों में उत्तर प्रदेश में हुए दंगों को भड़काने में भी राजनेताओं की ही प्रमुख भूमिका रही है। राजनीतिक फायदा उठाने की सोच रखने वाले दल और नेता अनजाने में ऐसा नुकसान पहुंचा रहे हैं जिसकी भरपाई नहीं हो सकती। नेता राजनीति करें लेकिन मुद्दों पर। राजनीति में धर्म को बीच में न लाएं। जो नेता ऐसा करते हैं उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए।
दैनिक जागरण
सरकार से मुकद्दमेंबाजी
सरकार से मुकदमेबाजी1यह न तो सामान्य है और न ही शुभ कि सुप्रीम कोर्ट में ऐसे मामलों की संख्या बढ़ती चली जाए जिनमें सरकार को प्रतिवादी बनाया जा रहा है। विधि मंत्रलय के अनुसार जहां बीते वर्ष ऐसे मामलों की संख्या 4229 थी वहीं उसके एक वर्ष पहले इस तरह के मामले 3497 ही थे। विधि मंत्रलय ने इस संदर्भ में जीएसटी के साथ-साथ नोटबंदी सरीखे मामलों के उदाहरण भी दिए। इन उदाहरणों से यदि कुछ स्पष्ट हो रहा है तो यही कि सरकार अपने स्तर पर अथवा संसद के जरिये जो भी फैसले ले रही है उनके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंच जाया जा रहा है। यदि यह सिलसिला इसी तरह कायम रहा तो शासन करना और कठिन हो सकता है। यह सही है कि सुप्रीम कोर्ट को सरकार के फैसलों और यहां तक कि संसद द्वारा पारित किए गए कानूनों की समीक्षा करने का अधिकार है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि सुप्रीम कोर्ट हर फैसले की समीक्षा करने बैठ जाए। दुर्भाग्य से पिछले कुछ समय से ऐसा ही हो रहा है। स्थिति यह है कि विधेयकों के रूप-स्वरूप को लेकर भी याचिकाएं दायर होने लगी हैं। इस क्रम में लोकसभा अध्यक्ष के अधिकार को भी चुनौती दी जा रही है। आम तौर पर इस तरह की चुनौती जनहित याचिकाओं के नाम पर दी जाती है। इसमें कहीं कोई दो राय नहीं कि जनहित याचिकाओं ने न्याय को एक गरिमा प्रदान की है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि संकीर्ण इरादों के तहत भी जनहित याचिकाएं दाखिल होने लगी हैं। ऐसी याचिकाओं का एक मकसद सरकार के काम में अड़ंगा लगाना ही होता है। किस्म-किस्म की जनहित याचिकाएं दायर करने वाले तत्व किस कदर सक्रिय हो गए हैं, इसका पता इससे चलता है कि पंजाब नेशनल बैंक में घोटाला सामने आते ही इस बात को लेकर एक याचिका पेश कर दी गई कि इस मामले की जांच इस-इस तरह से होनी चाहिए। यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को खारिज करते हुए यह टिप्पणी की कि ऐसी याचिकाएं दायर करना प्रचार पाने का जरिया बन गया है। 1यदि सरकार का हर फैसला सुप्रीम कोर्ट पहुंचने लगेगा तो इससे न केवल आवश्यक महत्व के मसलों पर अनिश्चितता व्याप्त होगी, बल्कि ऐसे लोगों को बल भी मिलेगा जिनका काम ही अड़ंगे लगाना है। बेहतर हो कि सुप्रीम कोर्ट हर मामले की समीक्षा करने की प्रवृत्ति पर पुनर्विचार करे। आम तौर पर सरकार के खिलाफ दायर होने वाली याचिकाओं की सुनवाई करने के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट की ओर से यह तर्क दिया जाता है कि विधायिका अथवा कार्यपालिका अपना काम सही तरह नहीं करेगी तो किसी को तो हस्तक्षेप करना होगा। सवाल यह है कि क्या विधायिका अथवा कार्यपालिका इसी तर्क का सहारा लेकर सुप्रीम कोर्ट के मामलों में हस्तक्षेप कर सकती है? ध्यान रहे कि लंबित मुकदमों का बोझ बढ़ता ही चला जा रहा है। एक ओर जहां यह जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट अपनी लक्ष्मण रेखा का ध्यान रखे वहीं दूसरी ओर सरकार को भी यह देखने की आवश्यकता है कि ऐसे मामलों की संख्या भी क्यों बढ़ रही है जिसमें वह स्वयं मुकदमेबाजी में उलझी हुई है।
प्रभात खबर
निजीकरण राह नहीं
न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी- किसी समस्या के समाधान का एक रास्ता यह भी हो सकता है. लेकिन यह समझदारी भरा रास्ता नहीं है. हालिया बैंक घोटालों के संदर्भ में कुछ विशेषज्ञों और टिप्पणीकारों की राय है कि फर्जीवाड़ा न तो किसी एक सरकारी बैंक तक सीमित है, न ही कोई एक दफे की बात है. उनके मुताबिक, चूंकि सरकारी बैंक फर्जीवाड़ा नहीं रोक पा रहे हैं, तो इसका उपचार यही है कि उनका निजीकरण कर देना चाहिए. बैंकों में निजीकरण के पक्ष में जोर पकड़ती दलीलों के बीच वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक सारगर्भित बात कही है कि बैंकों का निजीकरण समस्या का कोई समाधान नहीं है. ऐसा करना एक तो व्यावहारिक तौर पर बहुत कठिन है, दूसरे निजी क्षेत्र की वित्तीय संस्थाओं के फर्जीवाड़े से बचे होने के कोई प्रमाण कोई प्रमाण होने के कोई प्रमाण नहीं हैं. वित्त मंत्री का बयान सामयिक और सराहनीय है. सरकारी बैंकों के निजीकरण का तर्क आगे और तूल पकड़ेगा, तो बैंकों के करोड़ों आम ग्राहकों के मन में अपनी जमा पूंजी को लेकर शंका पैदा होगी, जो साख के आधार पर चलने वाले वित्तीय बाजार के लिए घातक साबित हो सकती है. निजीकरण का तर्क देने वाले टिप्पणीकार निकट अतीत में झांककर देखें, तो उन्हें सरकारी बैंकों के होने का औचित्य साफ तौर पर देख पाने में मदद मिलेगी. साल 2008 की मंदी की मार से विकसित मुल्कों की अर्थव्यवस्थाएं कराह रही थीं, लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था मंदी से बेअसर रही. उस वक्त अर्थशास्त्रियों ने ध्यान दिलाया था कि देश के कुल बैंकिंग कारोबार का दो तिहाई से भी ज्यादा हिस्सा सरकारी बैंकों के पास है और सरकारी बैंकों ने पूंजी से जुड़े जोखिम के मामले में चूंकि बढ़-चढ़कर पेशकदमी न करते हुए संयम से काम लिया था, इस कारण भारत वैश्विक आर्थिक मंदी की मार से एक हद तक बचा रहा. दूसरी बात बट्टे खाते खाते की रकम के बढ़वार की है. बेशक सरकारी बैंकों पर फंसे हुए कर्जे का बोझ ज्यादा है, पर निजी बैंक इस मामले में पीछे नहीं हैं. रिजर्व बैंक के अनुसार, सरकारी और निजी बैंकों ने आपसी सहमति से बीते साढ़े पांच सालों (2012-13 से 2017 के सितंबर तक) में 3.67 लाख करोड़ की पूंजी बट्टे खाते में गयी. इसमें 27 सरकारी क्षेत्र के बैंक हैं तो 22 निजी क्षेत्र के. विशेषज्ञों का कहना है कि पीएनबी घोटाले में गड़बड़ी निगरानी और अंकुश के तंत्र में हुई है, शीर्ष प्रबंधन ने अपेक्षित सतर्कता नहीं बरती. अंदरूनी तौर पर बैंक का बोर्ड और निगरानी की बाहरी संस्था के रूप में रिजर्व बैंक निगरानी की अपनी अपेक्षित भूमिका निभाने में नाकाम रहे. बैंकों में लेन-देन से संबंधित हिफाजती इंतजाम के बारे में बैजल समिति ने कुछ सिफारिशें की थीं. इन सिफारिशों की रोशनी में बैंकों में प्रबंधन, नियमन और निगरानी की प्रणाली की खामियों को ठीक करने की जरूरत है. सरकारी बैंकों का निजीकरण कहीं से इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता है.