आज के हिंदी अखबारों के संपादकीय: 21 फ़रवरी, 2018

नवभारत टाइम्स 

ओबोर का विकल्प 

अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और भारत अपने साझा हितों पर नियमित रूप से चर्चा करते हैं, इसका मतलब यह नहीं कि हम चीन के ओबोर का कोई जवाब तैयार कर रहे हैं। सचाई यह है कि क्षेत्रीय सुरक्षा को लेकर पिछले कुछ समय में इन चारों मुल्कों में अंडरस्टैंडिंग लगातार बढ़ी है। बीते साल नवंबर में फिलीपींस की राजधानी मनीला में आसियान सम्मेलन के मौके पर भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान की बैठक हुई थी, जिसमें हिंद-प्रशांत क्षेत्र को मुक्त, खुला, समृद्ध और समावेशी बनाने के उपायों पर बातचीत हुई थी। आतंकवाद और परमाणु प्रसार जैसी साझा चुनौतियों पर भी विचार व्यक्त किए गए थे। यह साझेदारी दुनिया के शक्ति समीकरण पर गहरा असर डाल सकती है। लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि चारों मुल्क एक-दूसरे के हितों की रक्षा के साथ-साथ एकदूसरे की समृद्धि में भी अपना योगदान दे सकते हैं। चीन की विस्तारवादी नीति इन चारों को प्रभावित करती है इसलिए इनका एकजुट होना समय की जरूरत है। भारत ने चीन के ओबोर प्रोजेक्ट से अपनी सुरक्षा प्रभावित होने की बात शुरू में ही उठाई थी। चीन भले ही कहे कि उसकी इस परियोजना से भारत समेत क्षेत्र के सारे मुल्क लाभ उठा सकते हैं, पर चीन के इरादे अब दुनिया में संदेह से ही देखे जाते हैं। ऐसे में एक ऐसी परियोजना का आकार लेना जरूरी है जो मध्य एशिया के तेल और गैस के भंडारों और पूर्वी यूरोप के बाजारों तक हमारी आसान पहुंच सुनिश्चित करे। इसके लिए फिलहाल दो ही रास्ते दिखते हैं। एक पाकिस्तान होकर और दूसरा ईरान होकर। पाकिस्तान का रास्ता चीन के कब्जे में है। बचा ईरान का रास्ता तो इस शिया मुल्क से अमेरिका के रिश्ते अभी अच्छे नहीं हैं। सवाल है। कि क्या अमेरिका ऐसी किसी योजना पर सहमत होगा, जिसमें ईरान की भागीदारी हो? मुमकिन है कि जापान और ऑस्ट्रेलिया के पास कोई और योजना हो, जो सामने आए तो उस पर बात हो।


जनसत्ता 

दुरुस्त आयद 

राजस्थान सरकार को आखिरकार अपराध-कानून में संशोधन का विवादास्पद विधेयक वापस लेना ही पड़ा। यह विधेयक खासकर अपने दो प्रावधानों के कारण तीखी आलोचना का विषय बन गया था और इसके चलते राज्य सरकार की काफी किरकिरी हुई। एक प्रावधान यह था कि किसी भी मौजूदा या सेवानिवृत्त जज और मौजूदा या सेवानिवृत्त अफसर के खिलाफ सरकार की अनुमति के बिना जांच शुरू नहीं हो सकती; अनुमति के लिए कम से कम छह माह तक इंतजार करना पड़ेगा। दूसरा प्रावधान यह था कि जब तक सरकार जांच की अनुमति नहीं दे देती, आरोप या आरोपी की पहचान की बाबत समाचार प्रकाशित या प्रसारित नहीं किया जा सकेगा। राज्य सरकार की दलील थी कि ऐसे प्रावधान इसलिए किए जा रहे हैं ताकि जज और अफसर अपना काम निर्भीक होकर कर सकें। यह दलील निहायत बेतुकी थी। किसी जज के खिलाफ जांच या कार्रवाई के संबंध में प्रक्रियाएं उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय ने तय कर रखी हैं, इसलिए राज्य सरकार को इस बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं थी। जहां तक अफसरों या लोकसेवकों का सवाल है, उनके खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए सरकार की अनुमति का प्रावधान पहले से है।

विधेयक का मकसद था कि जब तक सरकार अनुमति न दे, तब तक जांच भी शुरू न हो सके; आरोपी के बारे में खबर भी न बन सके। अगर आपराधिक मामले में पुलिस जांच ही नहीं कर पाती, तो कैसे पता चलता कि मामला मुकदमा चलाने लायक है या नहीं। फिर खबर पर रोक क्यों? इन प्रावधानों से राज्य सरकार ने अपना मिजाज और अपनी मंशा जाहिर कर दी। राजस्थान सरकार पर आरोप लगने लगा कि वह भ्रष्टाचार तथा दूसरे मामलों में भी आरोपी अफसरों को बचाना चाहती है, वरना वह ऐसे प्रावधानों वाला अध्यादेश क्यों जारी करती, और फिर इस तरह का विधेयक क्यों लाती? जहां विपक्ष इस विधेयक के खिलाफ लामबंद था, वहीं पत्रकार भी क्षुब्ध थे। एडीटर्स गिल्ड ने बाकायदा बयान जारी कर विधेयक वापस लेने की मांग की थी। विधेयक से पहले, पिछले साल सितंबर में उपर्युक्त प्रावधानों वाला एक अध्यादेश सरकार जारी कर चुकी थी। विधेयक को उसी अध्यादेश की जगह लेनी थी। लेकिन तेईस अक्तूबर को जब विधेयक विधानसभा में पेश किया गया, तब तक उसका विरोध काफी व्यापक शक्ल अख्तियार कर चुका था। शायद भाजपा के भीतर भी विधेयक को लेकर थोड़ी-बहुत नाराजगी थी। इसलिए मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने कदम पीछे खींचने में ही भलाई समझी और विधेयक को प्रवर समिति को भेज कर एक प्रकार से ठंडे बस्ते में डाल दिया। और अब औपचारिक रूप से उसे वापस भी ले लिया है।

अगर सरकार अब भी विधेयक को लेकर अड़ी रहती, तो उसे फिर वैसे ही तीखे विरोध का सामना करना पड़ता। हाल के उपचुनावों में बुरी तरह शिकस्त खाने के बाद और आगामी विधानसभा चुनावों को देखते हुए ऐसा करना काफी जोखिम-भरा साबित होता। राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में इसी तरह के प्रावधानों वाला मानहानि विधेयक आया था, जिसे देश भर में हुए जबर्दस्त विरोध के बाद वापस लेना पड़ा। विडंबना यह है कि राजस्थान में वैसा ही एक अलोकतांत्रिक कानून बनाने की पहल उस पार्टी की सरकार ने की थी, जो पार्टी मानहानि विधेयक के विरोध में आगे रही थी। प्रधानमंत्री कहते हैं कि लोकतंत्र उनकी पार्टी की रगों में है। क्या उनकी पार्टी की राजस्थान सरकार ने इसी का परिचय दिया? लोकतंत्र का मतलब सिर्फ चुनाव नहीं होता, यह भी होता है कि मानवाधिकारों का, अभिव्यक्ति के अधिकार समेत नागरिक अधिकारों का कितना खयाल रखा जाता।


अमर उजाला 

घरेलू राजनीति का असर 

करीब हफ्ते भर के प्रवास पर भारत आए कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो की यात्रा पर उनके अपने देश की घरेलु राजनीति का छाया महसूस की जा सकती है, जिनकी सत्तारुढ लेबर पार्टी को खालिस्तान समर्थक माना जाता है। वास्तव में प्रधानमंत्री बनने के बाद से नरेन्द्र मोदी विदेशी राष्ट्राध्यक्षों की अगवानी करने प्रोटोकॉल तोड़कर न केवल हवाई अड्डे पर मौजूद रहे हैं बल्कि शी जिनपिंग, शिंजो अबे और नेतन्याहू जैसे नेताओं को तो उन्होने अपने गृह प्रदेश गुजरात का भी नजारा दिखाया है। दूसरी ओर ट्रूडो की अगवानी के लिए ऐसा कोई इंतजाम नहीं किया गया, यहां तक की उनके आगरा प्रवास के समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी मौजूद नहीं थे। यही स्थिती गुजरात में भी रही, हालांकि ट्रूडो ने मुख्यमंत्री रुपाणी से मुलाकत की। यह भी सच है कि ट्रूडो की खातिरदारी में न्यूनतम प्रोटोकॉल का पूरा ख्याल रखा गया है और उनके कहीं आने-जाने पर किसी तरह की रोक नहीं लगाई गई है। आधिकारिक तौर पर तौर भले ही ट्रूडो के प्रति इस ‘ठंडे व्यव्हार’ के बारे में नहीं बताया गया है,लेकिन इसकी जड़ में खालिस्तानी अलगाववादियों के प्रति उनकी नर्मी को कारण माना जा सकता है। दरअसल ट्रुड़ो की सरकार में रक्षामंत्री हरजीत सिंह सज्जन सहित तीन ऐसे मंत्री हैं जिन्हें खालिस्तान समर्थक माना जाता है। यही नहीं, खुद ट्रुड़ो प्रधानमंत्री बनने के बाद खालिस्तान की मांग को जीवित रखने वाले ‘खालसा दिवस’ जैसे कार्यक्रम में भी शामिल हो चुके हैं, वरना दूसरे कनाडाई प्रधानमंत्री इससे परहेज करते रहे हैं। कनाडा की आबादी में मुश्किल से तीन फीसदी भारतीय हैं और उनका बहुत थोड़ा-सा हिस्सा ही ऐसे लोगों का है, जो खालिस्तान का समर्थन करते हैं। ट्रुडो पंजाब भी जाने वाले हैं, जहां कैप्टन अमरिन्दर सिंह न केवल अगवानी करने वाले हैं बल्कि स्वर्ण मन्दिर में भी उनके साथ रहेंगे। प्रवास के आखिरी चरण में ट्रुडो2और प्रधानमंत्री मोदी की मुलाकात भी तय है जिससे उम्मीद करनी चाहिए कि दोनों देशों के रिश्तों में जो ठंड़ापन दिख रहा है, वह दूर होगा। समय आ गया है, जब दोनों देशों के रिश्तों को 1980 के दशक के उस दौर की छाया से बाहर निकाल कर आगे ले जाया जाए, जब खालिस्तानी अलगाववाद ने रिश्तों में खटास ला दी थी।


हिन्दुस्तान 

सतर्क करती रिपोर्ट

भारत में नवजात बच्चों की स्थिति पर यूनीसेफ की रिपोर्ट चौंकाने वाली है। इसमें सबसे खराब स्थिति में पाकिस्तान भले दिखे, भारत कोई बहुत बेहतर स्थिति में नहीं है। भारत उन दस देशों में है, जहां नवजात बच्चों की सबसे ज्यादा चिंता करने की जरूरत है। रिपोर्ट चौंकाती है कि लाख जतन के बावजूद नवजात शिशु मृत्यु-दर के मामले में हम बहुत कुछ नहीं कर सके हैं और आज भी बांग्लादेश, इथियोपिया, गिनी-बिसाऊ, इंडोनेशिया, माली, नाइजीरिया, पाकिस्तान और तंजानिया के साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं, जिनके बारे में रिपोर्ट बहुत मुखर है कि नवजात का जीवन सुरक्षित करने के लिए सबसे ज्यादा चिंता करने की जरूरत इन्हीं को है। रिपोर्ट के अनुसार, पाकिस्तान सबसे ज्यादा जोखिम वाला देश है, जहां प्रति 22 नवजात में से एक अपना पहला महीना पूरा करने से पहले ही दम तोड़ देता है, जबकि भारत में यह संख्या प्रति हजार पर 26 है, यानी थोड़ा बेहतर। आश्चर्यजनक रूप से बांग्लादेश, नेपाल और भूटान भी इस मामले में हमसे बेहतर हैं। नवजात शिशुओं के लिए सबसे सुरक्षित जापान है, जहां प्रति एक हजार में यह दर एक से भी नीचे है।

आखिर तमाम तरक्की के बाद भी हम नवजात और मातृ मृत्यु-दर के मामले में इतने विपन्न क्यों हैं? क्यों हमारे देश में हर साल जन्म लेने वाले दो करोड़ साठ लाख में से छह लाख, 40 हजार नवजात मौत के मुंह में समा जाते हैं? यह जरूर सुखद है कि भारत ने पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु-दर में नियंत्रण पाया है और इस मामले में तमाम देशों से आगे है। लेकिन बड़ा सवाल है कि जिस देश ने पांच साल से नीचे वाली मौतों पर अप्रत्याशित नियंत्रण पाया हो, वह नवजातों के मामले में फिसड्डी क्यों है? इनमें से 80 फीसदी मामलों में तो सिर्फ सतर्कता से बचाया जा सकता है।

यूनीसेफ की रिपोर्ट चौंकाती कम, सतर्क ज्यादा करती है। भारत में नवजात मृत्यु, शिशु व मातृ मृत्यु-दर हमेशा से बहस में रही हैं, लेकिन इन पर अपेक्षा के अनुरूप काम नहीं हुआ। चिकित्सा विज्ञान में बहुत कुछ कर लेने के बावजूद इस मामले में हम अब भी संभल नहीं पाए हैं। इसका बड़ा कारण परिवेशगत और भौगोलिक ढांचे के साथ मूलभूत सुविधाओं की कमी है। सरकारी नीतियों की अदूरदर्शिता व प्रशासनिक लापरवाही ने सुदूर इलाकों में वे सुविधाएं मुकम्मल नहीं होने दी हैं, जिनकी सबसे ज्यादा जरूरत है। दूरदराज के तमाम इलाकों में आज भी प्रसव के लिए किसी तरह लादकर उन प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों तक लाना पड़ता है, जहां आमतौर पर न्यूनतम सुविधाएं और संसाधन तक नहीं होते। यही कारण है कि नवजात क्या, शिशु और मातृ मृत्यु-दर पर भी हम नियंत्रण नहीं कर पा रहे।

बड़ा तथ्य यह है कि हमारे यहां जितनी महिलाएं हर रोज बच्चा पैदा करने के दौरान मरती हैं, उससे कहीं ज्यादा गर्भ संबंधी बीमारियों का शिकार होती हैं, जिसका दंश उनके साथ लंबे समय तक चलता है। अगली जचकी में भी इसका असर पड़ता है और फिर यह सिलसिला चलता जाता है। इससे निजात सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था में आमूल बदलाव से ही संभव है। 2030 तक नवजात मृत्यु-दर का आंकड़ा 12 पर समेटने का लक्ष्य भी शायद तभी पूरा हो सकेगा। एक चिंताजनक पहलू इस तालिका में भी बालिका शिशु मृत्यु-दर का अधिक होना है, जिसके लिए सामाजिक ताने-बाने का बारीक अध्ययन कर समाधान तलाशने की जरूरत है।


राजस्थान पत्रिका
आप का अहंकार 
आज के दौर में राजनीति भ्रष्टाचार और अहंकार की पर्याय होकर क्यों रह गई है? यह सवाल हर एक भारतीय को कचोटता है लेकिन जवाब किसी को नहीं मिल पा रहा। सरकारें किसी भी दल की हों, खबरें आती हैं तो घोटालों की या फिर मंत्रियों-विधायकों के अहंकार की। ऐसा अहंकार जिससे लोकतंत्र शर्मसार हो रहा है। ताजा खबर दिल्ली के मुख्य सचिव के साथ बदसलूकी की है। बदसलूकी का आरोप सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी के विधायक पर लगा है। आईएएस एसोसियेशन ने लिखित में इस घटना का ब्यौरा सार्वजनिक किया है। खास बात यह है कि यह घटनाक्रम मुख्यमंत्री की मौजूदगी में होने की बात कही गई है। आरोपों में कितना दम है यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा लेकिन आईएएस एसोसियेशन ने आरोप लगाए हैं तो कहीं न कहीं कुछ सच्चाई रही होगी। आम आदमी पार्टी देश की इकलौती ऐसी पार्टी है जिसने भारतीय राजनीति में चमत्कार कर दिया है। ऐसे चमत्कार जो शायद फिर हो, न हो। अन्ना हजारे के आंदोलन से उपजी आम आदमी पार्टी ने देश की राजनीति को पारदर्शी बनाने का दावा भी किया था साथ ही साथ भ्रष्टाचार मुक्त बनाने का भी। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की तीन साल की सरकार पर वे सब आरोप लग चुके हैं जो इससे पहले कांग्रेस और भाजपा सरकारों पर लगते रहे थे। दिल्ली सरकार के मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के मामले भी चल रहे हैं और मारपीट के भी। इतना ही नहीं पिछले दिनों राज्यसभा चुनाव में पैसे के बल पर टिकट खरीदने और बेचे जाने के आरोप भी पार्टी पर लगे। आम आदमी पार्टी खुद को नाम के मुताबिक आम लोगों की पार्टी कहती आई है। लेकिन इसी पार्टी पर आरोप ये भी लगने लगे हैं कि सड़कों पर कार्यकर्ताओं के बीच बैठकर फैसले लेने वाली पार्टी अब बंद कमरों में फैसले लेने लगी है। ये फैसले भी पार्टी के सर्वेसर्वा कहे जाने वाले एक-दो लोग ही लेते हैं। सवाल यह है कि ऐसे में पार्टी विधायक प्रशासनिक महकमे के मुखिया के साथ ही बदसलूकी करने लगें तो दूसरे दलों और उनमें क्या फर्क रह जाएगा? दिल्ली की इस घटना को महज राजनीतिक आरोप बताकर हवा में उड़ाने से काम चलने वाला नहीं। दिल्ली सरकार को मामले की निष्पक्ष जांच और पूरे प्रकरण में दोषी के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी ही चाहिए।

दैनिक जागरण
दैनिक जागरण 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खेती की दशा सुधारने और किसानों की आय बढ़ाने के लिए चार अलग-अलग स्तरों पर विभिन्न उपाय अमल में लाने की घोषणा की उसकी महत्ता तभी है जब वांछित नतीजे हासिल किए जा सकें। इस मामले में जितनी सक्रियता दिखाने की जरूरत केंद्र सरकार को है उतनी ही राज्य सरकारों को भी। खेती और किसानों की दशा सुधारने के सवाल पर कई बार राज्य सरकारें ऐसा व्यवहार करती हैं मानो जो भी करना है वह सब केंद्र सरकार को ही करना है। यह रवैया सही नहीं। केंद्र सरकार को किसान कल्याण के लिए अपने कदम बढ़ाने के साथ ही यह सुनिश्चित करना चाहिए कि राज्य सरकारें भी इस जरूरत को समझें कि खेती किसानी का भला उनकी भी जिम्मेदारी है प्रधानमंत्री ने भरोसा दिलाया कि उनकी सरकार खेती पर होने वाले खर्च को कम करने के साथ ही ऐसे कदम उठाएगी जिससे किसानों को अपनी पैदावार की उचित कीमत मिले इसके अलावा उन्होंने अनाज के साथ-साथ फलों एवं सब्जियों को बाजार तक पहुंचाने के क्रम में उन की बर्बादी रोकने के कदम उठाने की भी बात कही और खेती से इतर ऐसा कुछ करने पर भी जिससे किसानों को अतिरिक्त आय हो। इस सबके आधार पर यह कहा जा सकता है कि सरकार ने समस्या की पहचान कर ली है लेकिन यह काम पहले भी हो चुका है।

एक अर्से से यह कहा जा रहा है कि किसानों के संकट में आने का मूल कारण खेती की लागत बढ़ना, उपज का उचित मूल्य ना मिलना और किसानो के पास कृषि से इतर आमदनी के साधन न होना है। संकट यह है कि इन कारणों का सही तरह निवारण नहीं किया जा पा रहा है। अब तो यह भी देखने में आ रहा है कि जब कभी कोई फसल अच्छी हो जाती है तो उसके दाम गिर जाते हैं और इस तरह किसान भरपूर पैदावार के बाद भी घाटे में रहता है। इस समस्या से तभी निपटा जा सकता है जब किसान इससे अच्छी तरह परिचित होंगे कि कौन सी फसल उगाना बेहतर होगा। इसी तरह उन्हें इसके लिए भी प्रेरित करना होगा कि वे खेती के अतिरिक्त पशुपालन, मछली पालन आदि पर भी ध्यान दें। इन उपायों पर काम करने के साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि फल-सब्जियों और अनाज के भंडारण और उन्हें एक से दूसरे स्थान तक ले जाने की बेहतर व्यवस्था बने। अगर बीते तीन सालों में इस व्यवस्था को साकार करने पर ध्यान दिया गया होता तो शायद आज हालात कुछ अलग होते। इसमें दोराय नहीं कि लंबित सिंचाई परियोजनाओं को समय पर पूरा करने, सिंचाई के आधुनिक तौर-तरीकों को अपनाने से स्थिति कुछ न कुछ बदलेगी, लेकिन अगर ग्रामीण भारत की तस्वीर वास्तव में बदलनी है तो फिर ऐसे भी उपाय करने होंगे कि ग्रामीण आबादी कि कृषि पर निर्भरता घटे। इस लक्ष्य की पूर्ति उद्योगीकरण को गति देने से ही संभव है। विश्व बैंक और अन्य संस्थाओं ने यह पाया है कि भारत में वेतन भोगी वर्ग की संख्या बहुत कम है। ऐसा क्यों है, इस पर गंभीरता से विचार करने में और देर नहीं की जानी चाहिए।


दैनिक भास्कर

खालिस्तान के मुद्‌दे पर कनाडा को कड़ा संदेश

सरकारी स्तर पर इनकार के बावजूद भारत ने कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो की सप्ताह भर की यात्रा के प्रति अपनी बेरुखी से खालिस्तान के मुद्‌दे पर विरोध जता दिया है। हवाई अड्‌डे पर जूनियर कैबिनेट मंत्री द्वारा स्वागत, फिर गुजरात के मुख्यमंत्री का बाद में मिलना और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का आगरा दौरे के समय बिल्कुल न मिलना, यह सब ऐसे प्रसंग हैं, जिन्हें दोनों देश अच्छी तरह समझ रहे हैं। हालांकि, 23 फरवरी को वे भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मिलेंगे और तब उनका औपचारिक स्वागत भी किया जाएगा लेकिन, इस बीच उनका जिस ठंडे तरीके से स्वागत किया जा रहा है, वह एक कड़ा संदेश है। भारत अपनी एकता और अखंडता के साथ किसी प्रकार का समझौता करने को तैयार नहीं है। यह बात प्रधानमंत्री मोदी ने जस्टिन ट्रूडो से जुलाई 2017 मनीला में हुई मुलाकात में कही थी। इसके बावजूद ट्रूडो महोदय ने अपनी यात्रा में खालिस्तान समर्थक नेता रक्षा मंत्री हरजीत सिंह सज्जन और नवदीप सिंह बैंस को साथ लाने से परहेज नहीं किया। सज्जन पिछले साल जब आए थे, तब पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने उनसे मिलने से इनकार कर दिया है लेकिन, इस बार बुधवार को अमृतसर में वे जस्टिन ट्रूडो से मिल रहे हैं। यह इतिहास है कि भारत में खालिस्तान आंदोलन और उसके कारण हुई व्यापक हिंसा को कनाडा से उकसाया गया और जगजीत सिंह चौहान और बलवीर सिंह संधू जैसे नेता वहीं रहते थे। आज भी कनाडा और अमेरिका में सिख प्रवासियों का ऐसा समूह है जो फिर से उस आंदोलन को पुनर्जीवित करना चाहता है और वह अपने इस काम में गुरद्वारों और राजनीतिक दलों की मदद ले रहा है। इससे पहले कनाडा के प्रधानमंत्री रहे हार्पर स्टीफेन ने वैसे लोगों के कार्यक्रमों में जाने से इनकार किया था और उसी वजह से 2012 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और 2015 में नरेंद्र मोदी की कनाडा यात्रा संभव हो सकी थी। इस बीच जस्टिन ट्रूडो चुनावी मजबूरियों के चलते टोरंटो में खालसा दिवस के जलसे में शामिल होकर उस आंदोलन को फिर से हवा देते दिख रहे हैं। ऐसे में भारत की पहली रणनीति कनाडा के प्रधानमंत्री से क्षोभ व्यक्त करने और दूसरी रणनीति उपेक्षा की हो सकती है। सरकार दूसरी को अपना रही है। अच्छा हो कि अब भारत पहली रणनीति पर वापस आए और कनाडा को भारत की भावना से अवगत कराए। 

 


प्रभात खबर

चोरी और सीनाजोरी

जरा इस स्थिति के विरोधाभास की कल्पना कीजिए- पंजाब नेशनल  बैंक से फर्जीवाड़े के जरिये हजारों करोड़ रुपये की निकासी के मामले में जिस व्यवसायी के कारोबारी ठिकानों पर छापे पड़ रहे हैं, उस व्यवसायी को लग रहा है कि मेरे साथ इंसाफ का बरताव नहीं हुआ. यही नहीं, वह सार्वजनिक तौर पर कह रहा है कि बैंक को धोखा उसने नहीं दिया, बल्कि धोखा तो उसके साथ हुआ है! पीएनबी से जुड़े बैंकिंग घोटाले के मुख्य किरदार नीरव मोदी द्वारा बैंक को लिखी गयी चिट्ठी का एक संदेश यह भी है, हालांकि, इस चिट्ठी को पूरी तरह से सत्यापित होना शेष है, फिर भी, चूंकि नीरव मोदी के नज़दीकी सूत्रों ने चिट्ठी के सही या गलत होने को लेकर कोई आपत्ति नहीं जतायी है, सो माना जा सकता है। कि यह पत्र नीरव मोदी की ही है. चिट्ठी बहाने से लिखी गयी है. इसमें बैंक से मनुहार की गयी है कि चालू खाते से रकम निकालने की अनुमति दी जाये, ताकि नीरव मोदी की कंपनी अपने कर्मचारियों को वेतन दे सके. इस

निवेदन को दर्ज करने के बाद चिट्ठी आरोप की भाषा पर उतर आती है. करनी पर पछतावे की सूरत उसमें बैंक पर दोषारोपण के स्वर में कहा गया

” है कि निकासी की रकम बढ़ा-चढ़ाकर बतायी में भी अपराधी अपने दोष जा रही है, देनदारी तो महज साढे छह हजार स्वीकार करता है. नीरव ।

में कदम उठाये और उसने मौका ही नहीं दिया उसमें स्वर चुनौती का है। कि दोष उसका नहीं, बल्कि मतलब, बैंक ने चूंकि देनदार को विकल्पहीन उसको दोषी ठहरानेवाली बनाया, सो वह रकम की वसूली की उम्मीद व्यवस्था का है, न करे, और, आखिर में चिट्ठी बैंक को ही

|- गुनहगार ठहराने के अंदाज में कहती है कि उसने मामले को सार्वजनिक कर एक कारोबारी ब्रांड को नुकसान किया है, मतलब जवाबदेही नीरव मोदी की नहीं, बल्कि बैंक की है. मामले के सच-झूठ और दोषी-निर्दोष का फैसला तो न्याय प्रक्रिया से होगा, लेकिन चिट्ठी का संदश अपराध की मानसिकता और उसके समाजशास्त्र के लिहाज से बहुत मानीखेज है, कभी-कभार कोई व्यक्ति सजा में नरमी की उम्मीद से गुनाह कबूल कर लेता है. करनी पर पछतावे की सूरत में भी अपराधी अपने दोष स्वीकार करता है. बहुधा ऐसा भी होता है कि अपराधी एकदम नाउम्मीद हो जाये, उसे कहीं से कोई सहायता मिलती न दिखे और वह मजबूरी में अपराध स्वीकार करे, नीरव मोदी की कथित चिट्ठी में ऐसी कोई स्थिति नहीं है, उसमें स्वर चुनौती का है कि दोष उसका नहीं, बल्कि उसको दोषी ठहरानेवाली व्यवस्था का है. हर स्थिति में बिना सजा के बच निकलने के भरोसे के बगैर ऐसी चिट्ठी लिखना मुमकिन नहीं है. इस बात पर सोच-विचार किया जाना चाहिए कि वे कौन-सी ऐसी ताकतें होती हैं, जिनके बूते किसी अपराधी के भीतर व्यवस्था से ऊपर और हमेशा बगैर दंडित हुए रहने का भरोसा पैदा होता है,


देशबन्धु

अंधेर नगरी के हम बाशिंदे

इस वक्त अंघेर नगरी में रह रहे हैं, जहां चौपट राजा राज कर रहा है। इस नगरी में विकास के नाम पर सब कुछ मिलने का ख्वाब दिखाया जाएगा, बस न्याय की बात करें तो दोषी की जगह उसे फंसाया जाएगा, जिसकी गर्दन फांसी के फंदे में फिट बैठती हो। जाहिर है, चौपट सरकार को हर फंदे के लिए जनता की गर्दन ही नजर आती है। भ्रष्टाचार रोकने और कालाधन जब्त करने के लिए नोटबंदी लागू कर दी। जिन्होंने भ्रष्ट तरीकों से धन कमाया, उसे भ्रष्ट तरीकों से ही बचा भी लिया, नोटबंदी का उन पर कोई असर नहीं पड़ा। लेकिन जनता ने ईमान की कमाई ईमानदारी के साथ ही बैंकों में जमा कर दी। चार सालों से जनता इंतजार कर रही है कि देश में भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा, विदेशों में पड़ा काला धन वापस आ जाएगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। इधर देश के सार्वजनिक बैंकों की हालत कर्ज लेकर दबा ले जाने वालों के कारण खस्ता होने लगी तो उसे भी ठीक करने के लिए जनता से ही धन उगाही की गई।

फरमान जारी कर दिया गया कि इंडिया कैशलेस बनेगा। सब अपना धन बैंकों में रखें। सारे काम काज में बैंकों से ही लेन-देन हो। अगर किसी के खाते में निश्चित राशि से कम धन हुआ तो बैंक उस पर और वसूली करेगा। अरे भाई, जब बैंकों का दबदबा इतना बढ़ाना था, तो उनका भरोसा भी बढ़ा देते। अजीब गोरखधंधा है कि बैंक हमारे ही धन से चलें और हमसे ही तगादे भी करें। और माल्या, मोदी 1, मोदी 2 जैसे लोग बैंकों का धन लूटकर चलते बनें तो भी सरकार बहादुर से कुछ करते न बने। ये सरकार इतनी पंगु, इतनी नाकारा है कि पहले लोग चोरी कर फरार होते थे, अब तो बाकायदा चोरी के साथ सीनाजोरी भी कर रहे हैं कि हम पैसे नहीं लौटाने वाले। जैसे नीरव मोदी, जिस पर 11 हजार 4 सौ करोड़ की रकम बैंक से लेने और चुकता न करने का आरोप है, वह अब चि_ी लिखकर कह रहा है कि इस मामले को उजागर कर बैंक ने राशि वसूलने के रास्ते बंद कर लिए हैं।

नीरव मोदी ने पंजाब नेशनल बैंक के मैनेजमेंट को एक पत्र लिखा है बैंक ने इस मामले को सार्वजनिक करके उससे बकाया राशि वसूलने के सारे रास्ते बंद कर लिए हैं। साथ ही दावा किया है कि पीएनबी जितनी बकाया रकम बता रहा है, वो राशि इससे बहुत कम है। उसके पास 5,000 करोड़ रुपये से भी कम का बकाया है। नीरव मोदी लिखता है कि 13 फरवरी को की गई मेरी पेशकश के बावजूद बैंक ने जानकारी 15 फरवरी को सार्वजनिक कर दी। बैंक की इस कार्रवाई ने मेरे ब्रांड और मेरे कारोबार को बर्बाद कर दिया है, जिसके कारण अब बकाया राशि वसूलने की बैंक की क्षमता सिमट कर रह गई है। अब तक आंखों में धूल झोंकना जैसे मुहावरे सुनते थे। लेकिन नीरव के इस पत्र के बाद तो ऐसे मुहावरे भी फीके लगने लगे हैं। फिलहाल कोई विशेषण, संज्ञा, उदाहरण याद नहींआ रहा, जिससे नीरव की इस फरेब भरी दिलेरी की तुलना की जा सके।

दुनिया के सारे ठग एक ओर, नीरव मोदी एक ओर। चौर्य कला पर धूम सीरीज की फिल्में बनाने वाले निर्माता अब ऐसी बदनीयती पर भी फिल्में बना सकते हैं। जिसमें नायक कहे कि मैंने चोरी की, लेकिन तुमने कानून का सहारा लिया, तो लो अब भुगतो, मैं तो देश के बाहर ऐश कर रहा हूं, तुम कानून -कानून खेलते रहो। मैं लूटा हुआ धन नहीं लौटाने वाला। सभ्य समाज की निगाह में ऐसे किरदार खलनायक होते हैं, लेकिन हमारी सरकार तो इन्हीं लोगों को शायद नायक मानती है। तभी उनकी शान के खिलाफ एक लफ्ज मोदीजी के मुंह से नही निकलता। आज नीरव की चि_ी आई है, कल को विजय माल्या और ललित मोदी भी वतन के नाम ऐसी ही भेजेंगे। जिसमें बेईमानी की दुर्गंध भरी होगी और सरकार देश को उसी में झोंंककर सांस लेने कहेगी। और अगर जनता ने नाक बंद करने की गुस्ताखी की तो विक्रम कोठारी जैसे कुछ और हंटर हमारी पीठ पर बरसाएगी। इससे पहले कि निर्दोषों की गर्दन पर फांसी का फंदा चढ़े, जनता आंखें खोले और समझे कि टके सेर भाजी, टके सेर खाजा मिलने को विकास नहीं कहते, इससे केवल अंधेर राज कहते हैं।

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