आज के हिंदी/अंग्रेजी अखबारों के संपादकीय: 30 अप्रैल, 2018

नवभारत टाइम्स

रिश्ते की नई जमीन

भारत और चीन के रिश्ते में एक नए अध्याय की शुरुआत हुई है। चीन के वुहान में राष्ट्रपति शी चिन फिंग और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच द्विपक्षीय संबंधों पर कोई समझौता नहीं हुआ, पर दोनों नेताओं की अनौपचारिक मुलाकात ही अपने आप में दुनिया के लिए एक अहम संदेश है। इस मुलाकात का मकसद एक झटके में तमाम समस्याएं सुलझा लेना या कोई बड़ा समझौता कर लेना था भी नहीं। इस वार्ता में पारंपरिक राजनय से हटकर रिश्तों की एक नई इबारत लिखी गई है। देखना है, विश्व की और ताकतों का इस पर क्या रवैया रहता है। लेकिन यह तय है कि विश्व की इन दो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के करीब आने से विश्व का शक्ति संतुलन प्रभावित होगा। भारत और चीन ने बदलते विश्व परिदृश्य को महसूस कर लिया है। अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के संरक्षणवादी रवैये के बाद विश्व व्यापार का स्वरूप बदल गया है। अब क्षेत्रीय कारोबारी समीकरणों का महत्व बढ़ने वाला है। अभी अमेरिका से व्यापार युद्ध शुरू हो जाने के बाद चीन को भारत के विशाल बाजार की बहुत ज्यादा जरूरत है। फिर, चीन अपने व्यापारिक तंत्र को मध्य एशिया तक बढ़ाना चाहता है। इसके लिए भी भारत का सहयोग अहम है। ट्रंप की अपने आंतरिक मोर्चे को जरूरत से ज्यादा महत्व देने की नीति की वजह से चीन की अंतरराष्ट्रीय भूमिका बढ़ सकती है। चीन अपने साथ भारत को लेकर इस स्तर पर अपनी हैसियत और बढ़ाना चाहता है। पर्यावरण को लेकर दोनों देश पहलकदमी कर ही चुके हैं। अब और क्षेत्रों में भी सक्रियता बढ़ सकती है। दूसरी तरफ ट्रंप के अनिश्चित रवैये और उनकी सख्त वीजा पॉलिसी से परेशान भारत को भी चीन की जरूरत है। बहरहाल मोदी- चिन फिंग मुलाकात में इस बात पर सहमति बनी कि उन क्षेत्रों की पहचान की जाए, जिनमें भारत और चीन साथ मिलकर अफगानिस्तान में काम कर सकते हैं। यह पहला मौका होगा, जब चीन ने युद्ध प्रभावित देश अफगानिस्तान में किसी प्रॉजेक्ट में सीधे तौर पर उतरने का फैसला लिया है। प्रेस ब्रीफिंग में विदेश सचिव विजय गोखले ने बताया कि दोनों नेताओं ने आतंकवाद को दोनों देशों के लिए खतरा माना और इससे निपटने के लिए सहयोग की प्रतिबद्धता जताई। आपसी संवाद मजबूत करने और परस्पर विश्वास विकसित करने के लिए दोनों अपनी-अपनी सेना को रणनीतिक दिशा-निर्देश जारी करेंगे। दोनों इस नतीजे पर पहुंचे कि सीमा संबंधी मामले के लिए विशेष दूत नियुक्त किए जाएं जो पारदर्शी तरीके से यह मुद्दा सुलझाने की तरकीब सुझाएं। दोनों राष्ट्राध्यक्षों में गंगा सफाई से लेकर व्यापार संतुलन तक कई अहम मुद्दों पर भी बात हुई। इस बात पर सहमति बनी कि ज्यादा से ज्यादा भारतीय फिल्में चीन आएं और चीन की फिल्मों को भारत में जगह मिले। देखना है, दोनों देश रिश्ते की इस नई जमीन पर किस तरह आगे बढ़ते हैं।


जनसत्ता

वुहान की राह

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चीन का दो दिन का दौरा दोनों देशों के रिश्तों के इतिहास में एक बड़ा वाकया था, खासकर इसलिए कि पिछले साल तिहत्तर दिन चले डोकलाम गतिरोध के कारण महीनों तक लगातार तनातनी का माहौल रहा था। यात्रा का मकसद इस खटास को दूर करना था। दरअसल, इसकी कवायद और पहले से शुरू हो गई थी, जिसे भारत के विदेश सचिव और विदेशमंत्री के चीन दौरे तथा दोनों तरफ के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैठक से बल मिला था। डोकलाम गतिरोध दूर हो जाने के बाद चीन से रिश्ते सामान्य बनाने की पहल न करना कूटनीतिक जड़ता ही होती। फिर, तनातनी जारी रहने की सूरत में दक्षिण एशिया के पड़ोसी देशों में भारत को नाहक एक प्रतिद्वंद्विता का तनाव झेलना पड़ा है, क्योंकि चाहे श्रीलंका हो या बांग्लादेश या नेपाल या फिर मालदीव, चीन ने पिछले कुछ बरसों में इन देशों में अपनी पैठ तेजी से बढ़ाई है। लेकिन क्या चीन भी संबंध सुधार के लिए उतना ही उत्सुक था? राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने तो यही जताया। उन्होंने दो बार प्रोटोकॉल तोड़ कर प्रधानमंत्री मोदी की अगवानी की। बेजिंग से बाहर दूसरे शहर में आकर स्वागत किया। दोनों नेताओं के बीच बातचीत निर्धारित समय से ज्यादा चली। साथ-साथ संग्रहालय देखा, वहां भी निर्धारित वक्त से ज्यादा रहे। साथ-साथ चहलकदमी की। साथ-साथ नाव की सैर की। अवसरोचित टिप्पणियों से ही नहीं, भंगिमाओं और व्यवहार से भी सौजन्य और संबंध सुधार का संदेश दिया गया।

शिखर वार्ता अनौपचारिक थी। और जैसा कि पहले से तय था, कोई साझा बयान जारी नहीं हुआ, न कोई समझौते हुए। दरअसल, यह बस आपस में आई खटास दूर करने की कोशिश थी। मोदी ने अगले साल भारत में इसी तरह की शिखर वार्ता आयोजित करने की पेशकश की और उसके लिए शी को निमंत्रित किया। यह फिलहाल साफ नहीं है कि शी ने इस पेशकश को मंजूर किया है या नहीं। बहरहाल, मोदी के इस दौरे की तुलना 1988 में हुए राजीव गांधी के चीन दौरे से की जा रही है। भारत-चीन युद्ध के छब्बीस साल बाद बेजिंग गए राजीव गांधी की देंग श्याओ पेंग से मुलाकात काफी अहम साबित हुई थी, जो कि दोनों के बीच हुए कारोबारी समझौतों में भी दिखी। मोदी का दौरा कहीं ज्यादा अनौपचारिक रहा। ज्यादा चिंता इस बात की रही कि डोकलाम जैसे प्रकरण की पुनरावृत्ति न हो। सीमा पर शांति बनाए रखने और गलफहमी या कोई अप्रिय स्थिति पैदा होने पर उसे बातचीत से सुलझाने और वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तैनात दोनों तरफ के सैनिकों के बीच आपसी भरोसा बढ़ाने पर सहमति बनी है।

जहां तक सीमा विवाद का सवाल है, इसे सुलझाने के लिए दोनों तरफ के विशेष प्रतिनिधियों की वार्ता प्रक्रिया और इस सिलसिले में अरसा पहले तय हुए सैद्धांतिक ढांचे पर एक बार फिर विश्वास जता कर चुप्पी साध ली गई। न अरुणाचल का जिक्र आया, न व्यापारिक असंतुलन का, न एनएसजी का, न जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को आतंकवादियों की अंतरराष्ट्रीय सूची में डालने का। शी की बेहद महत्त्वाकांक्षी योजना बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव पर भी चर्चा होने के कोई संकेत नहीं दिए गए, जिस योजना के तहत चीन एक आर्थिक गलियारे का निर्माण पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में कर रहा है। क्या असहमति वाले खास मुद्दे जानबूझ कर किनारे कर दिए गए, ताकि वुहान के आयोजन की चमक फीकी न पड़े?


 हिंदुस्तान

बदलते समय में

इंसान और कुदरत का रिश्ता भी बहुत अजीब है। कभी इंसान कुदरत को बदलने पर तुल जाता है, तो कभी खुद कुदरत ही इंसान को बदल डालती है। बेशक, ज्यादा बड़ी कामयाबी कुदरत के हाथ ही लगती है। कुदरत इस काम को कैसे अंजाम देती है, इसका सबसे अच्छा उदाहरण पिछले दिनों बजाऊ जनजाति के एक अध्ययन से हुआ। इंडोनेशिया, मलेशिया और फिलीपींस जैसे देशों में रहने वाले बजाऊ लोग अपना सारा जीवन समुद्र की लहरों पर ही गुजार देते हैं। वे जमीन पर नहीं, नावों पर ही सारा जीवन गुजार देते हैं। उनके समुदाय को एक तरह का समुद्री कबीला माना जाता है और उन्हें ‘बोट पीपुल’ या नौका समुदाय भी कहा जाता है। वे अपने खाने-पीने के साधन समुद्र से ही जुटाते हैं और इसी से मिली चीजों का कारोबार करते हैं। वे जब समुद्र में डुबकी लगाते हैं, तो अपने शिकार को पकड़ने के बाद ही बाहर निकलते हैं। किसी भी आम इंसान के लिए यह करना आसान नहीं। पिछले दिनों जब वैज्ञानिकों ने इसका रहस्य जानने की कोशिश की, तो पता पड़ा कि बजाऊ लोगों के शरीर में पाई जाने वाली पित्ती या स्प्लीन आम इंसानों के मुकाबले काफी बड़ी होती है, जिससे वह उनके शरीर में दस फीसदी अतिरिक्त ऑक्सीजन की आपूर्ति करती है। इससे उन्हें काफी देर तक सांस लेने की जरूरत नहीं पड़ती और वे काफी लंबी डुबकी लगा लेते हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया बर्कले के प्रोफेसर रासमस नीलसन के अनुसार, समुद्र ने उनके शरीर को आनुवंशिक रूप से बदल दिया है।

बजाऊ जनजाति के लोग ऐसा अकेला उदाहरण नहीं हैं। तिब्बत वासियों और नेपाल के शेरपाओं पर हुए एक अध्ययन में यह पाया गया था कि उनकी शरीर-रचना काफी ऊंचाई पर रहने के लिए सबसे ज्यादा अनुकूल है। जिस पहाड़ी ऊंचाई पर बहुत से लोग ‘अल्टीट्यूट सिकनेस’ के शिकार हो जाते हैं, वहां ये लोग बहुत आराम से तेजी के साथ आते-जाते रहते हैं। वहां भी वैज्ञानिकों ने यही पाया कि उनकी कोशिकाओं में पाया जाने वाला माइटोकॉन्ड्रिया और उनके फेफड़े पूरी तरह बदल चुके हैं। वे इस तरह से बन चुके हैं कि वायु के कम दबाव में भी जरूरत के मुताबिक ऑक्सीजन सोख लेते हैं और पूरे शरीर में ऑक्सीजन और हर कोशिका में ऊर्जा की ज्यादा आपूर्ति करते हैं। यही वजह है कि दुनिया का कोई भी एवरेस्ट शिखर अभियान शेरपाओं की मदद के बगैर पूरा नहीं हो पाता। वे इन अभियान दलों के लिए सामान उठाने से लेकर खाना बनाने तक के सारे काम करते हैं। एवरेस्ट शिखर पर सबसे पहले पहुंचने वाले मानव शेरपा तेनजिंग को कौन भूल सकता है? तीन साल पहले नेपाल के एक नौजवान शेरपा ने 24 घंटे के भीतर ही एवरेस्ट शिखर पर पहुंचकर वापस आने का रिकॉर्ड बनाया था। पहाड़ पर जीने वालों की जिंदगी को खुद पहाड़ ने ही झुककर आसान बना दिया है।

इन दोनों ही उदाहरणों में एक अच्छा संदेश भी छिपा है। इन दिनों जब पर्यावरण बदलाव की चिंता हर माथे पर लकीरें खींच रही हैं, ये उदाहरण बता रहे हैं कि ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं है। कुदरत अकेले नहीं बदलती, वह अपने साथ चलने वालों को बदलती चलती है। समस्या सिर्फ उनकी है, जो इस बदलाव से इनकार कर देते हैं। जैसे कि रेप्टाइल समूह के वे सारे पशु, जो नहीं बदल सके, लुप्त हो गए। आज उन्हें हम डायनासोर के नाम से जानते हैं।


राजस्थान पत्रिका

इस दोस्ती की माएने

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का चीन दौरा संपन्न हो गया। मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग 24 घंटे में 6 बार मिले, 9 घंटे साथ रहे। नौका विहार किया, साथ लंच किया और चाय भी पी। इस अनौपचारिक शिखर बैठक में कोई खास एजेंडा तो नहीं था लेकिन दोनों नेताओं में सीमा पार शांति, आतंकवाद के खात्मे, सैन्य सहयोग, गंगा सफाई और व्यापार संतुलन जैसे मुद्दों पर बातचीत हुई। खास बात रही अफगानिस्तान में दोनों देशों कीओर से संयुक्त आर्थिक परियोजनाएं चलाने पर सहमति बनना इससे पाकिस्तान की त्यारियां जरूर चढ़ेगी, लेकिन भारत को भी सचेत रहना होगा। एशिया में अफगानिस्तान ही ऐसा देश है जहां अभी चीन सामाजिक, सैन्य और आर्थिक क्षेत्रों में घुसपैठ नहीं कर सका है। यहां की सरकार और अवाम दोनों ही अभी तक भारत को अपना सबसे विश्वसनीय दोस्त समझती है। तालिबान से मुक्ति के बाद भारतीय सहयोग से ही वहां पुनर्निर्माण के कार्य संचालित होते रहे हैं। पाकिस्तान नहीं चाहता कि अफगानिस्तान में शांति के लिए भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फायदा मिले। दूसरी ओर चीन, भारत के अन्य पड़ोसी देशों बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका में अपनी पैठ बनाने में कामयाब रहा है। पाकिस्तान तो उसका पिट्ट है ही। यदि चीन, अफगानिस्तान में पहुंच बनाने में कामयाब हो गया तो परिणाम हमारे लिए नकारात्मक भी हो सकते हैं। | एक अहम चिंता जो सियासी विशेषज्ञों को सता रही है वह डोकलाम और  वन बेल्ट वन रोड प्रोजेक्ट (ओबीओआर) पर सीधे कोई चर्चा नहीं होना है। डोकलाम दोनों देशों के बीच तनाव का बड़ा कारण रहा है। सैटेलाइट तस्वीरों में चीन की ओर से इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर सैन्य ठिकाने, हवाई पट्टी और सड़कों का निर्माण दर्शाया गया है। चीन यहां शांति चाहता है तो फिर इतनी तैयारी क्यों? ओबीओआर परियोजना में पाक अधिकृत कश्मीर से कॉरिडोर का निर्माण हो रहा है। इससे यह विवादित क्षेत्र चीन की सीधी पहुंच में आ जाएगा। भारत इस पर एतराज भी जता चुका है। हालांकि कर्नाटक चुनाव से पहले मोदी के चीन दौरे और 2019 के आम चुनाव से पहले जिनपिंग के भारत दौरे के राजनीतिक मायने भी निकाले जा रहे हैं। कुल मिलाकर ऐसे दौरे तभी सार्थक माने जाएंगे जब दोनों देशों की आर्थिक प्रगति हो, राजनीतिक स्थिरता, क्षेत्रीय संतुलन और शांति बनी रहे।


दैनिक जागरण

राहुल का आक्रोश

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जन आक्रोश रैली के जरिये एक प्रकार से मोदी सरकार के खिलाफ अपने गुस्से का ही इजहार किया। भले ही उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की हो कि देश में कहीं कुछ नहीं हो रहा और चारों और निराशा है, लेकिन यह एक विडंबना ही है कि जिस दिन वह यह सब कुछ कह रहे थे उस दिन सरकार की इस उपलब्धि की चर्चा हो रही थी कि उसने देश के सभी गांवों में बिजली पहुंचाने का काम तय समय से पहले ही पूरा कर दिया। दरअसल जब किसी की आलोचना नीर-क्षीर ढंग से नहीं की जाती तब ऐसा ही होता है। राहुल गांधी को चारों तरफ गड़बड़ी और अव्यवस्था नजर आ रही है तो संभवत: इस कारण कि वह गुस्से से भरे हुए हैं। क्या यह अजीब नहीं कि जो राहुल गांधी कुछ समय पहले तक यह प्रचारित किया करते थे कि मोदी सरकार गुस्से वाली सरकार है वही अब स्वयं गुस्से का प्रदर्शन करने में लगे हुए हैं? शायद यही कारण है कि वह विदेश नीति पर भी सरकार की निराधार आलोचना करने में संकोच नहीं कर रहे? समझना कठिन है कि नरेंद्र मोदी की हाल की चीन यात्र को निशाना बनाने की क्या जरूरत थी? राहुल गांधी ने सवाल पूछा कि क्या प्रधानमंत्री ने चीनी नेतृत्व से डोकलाम पर चर्चा की? यह सवाल उछालने के पहले अच्छा होता कि वह यह स्पष्ट करते कि जिस समय डोकलाम में तनातनी जारी थी उस समय उन्हें चीनी राजदूत से मुलाकात करने और उसे छुपाने की क्या आवश्यकता थी? और भी अच्छा यह होता कि वह यह स्पष्ट करते कि क्या उस दौरान उन्होंने डोकलाम में चीनी सेना के हस्तक्षेप पर प्रतिवाद किया था?1जन आक्रोश रैली में राहुल गांधी ने जिस तरह यह कहा कि उन्हें देश का कायाकल्प करने के लिए 60 माह चाहिए उससे यह तो साफ हुआ कि वह प्रधानमंत्री बनने के लिए व्यग्र हैं। यह कोई बुरी बात नहीं, लेकिन आखिर उन्होंने एक तरह से नरेंद्र मोदी के शब्दों का ही इस्तेमाल क्यों किया? ध्यान रहे कि 2014 के आम चुनाव के पहले मोदी भी ऐसा ही कहते थे। देश में कांग्रेस के लंबे शासन और मनमोहन सरकार के 10 साल के कार्यकाल को करीब से देखने वाले राहुल गांधी को इतना पता होना चाहिए कि इतने बड़े देश का कायाकल्प महज 60 माह में नहीं हो सकता। अगर ऐसा हो सकता होता तो फिर उन्हें बताना चाहिए कि कांग्रेस के 60 साल के शासन में सभी गांव बिजली से लैस क्यों नहीं हो सके? चूंकि अगले आम चुनाव करीब आ रहे हैं इसलिए यह सहज ही समझा जा सकता है कि राहुल गांधी अभी से चुनावी माहौल बनाने में जुट गए हैं, लेकिन यदि वह वास्तव में मोदी और भाजपा को चुनौती देना चाहते हैं तो फिर उन्हें कुछ तार्किक और तथ्यपरक बातें करनी होंगी। इससे भी ज्यादा जरूरी यह है कि वह वैकल्पिक विचारों और ठोस नीतियों के साथ सामने आएं। यह निराशाजनक है कि वह ऐसी प्रतीति करा रहे हैं कि मोदी सरकार की चौतरफा निंदा करने मात्र से उनका काम आसान हो जाएगा।


प्रभात खबर

बेहतर होते रिश्ते

बदलती वैश्विक व्यवस्था में चीन और भारत हाशिये से निकलकर केंद्रीय भूमिका निभाने के लिए तैयार हैं. बीते सप्ताह राष्ट्रपति शी जिनपिंग और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुलाकात इस तथ्य का स्पष्ट रेखांकन है. आपसी विवादों को परे रखकर आत्मीयता और खुलेपन से हुई दोनों नेताओं की बैठक वर्तमान समय की बड़ी कूटनीतिक घटना है. दो दशक पहले दुनिया की अर्थव्यवस्था में चीन का हिस्सा चार फीसदी से कम था, पर आज यह 15 फीसदी के स्तर पर है.भारतीय अर्थव्यवस्था में निरंतर बढ़ोतरी हो रही है और अनुमान है कि अगले एक दशक के भीतर भारत विश्व की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बन जायेगा. वर्ष 1990 और 2011 के बीच 45 करोड़ चीनी गरीबी से उबरे, तो 1994 से 2012 के बीच भारत में गरीबी दर में 50 फीसदी की कमी आयी और 13 करोड़ लोग निर्धनता के चंगुल से बाहर आये. भारत और चीन बड़ी आबादी के देश हैं तथा आर्थिक और सामाजिक मोर्चे पर उन्हें अभी बहुत कुछ हासिल करना है. द्विपक्षीय व्यापार बढ़ने और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक मसलों में साझेदारी के बावजूद आपसी और क्षेत्रीय मामलों को लेकर दोनों देशों के संबंधों में असहजता भी है. ऐसे में वुहान में दोनों नेताओं की बैठक का महत्व बहुत बढ़ जाता है. राष्ट्रपति जिनपिंग ने उचित ही कहा है कि परस्पर विश्वास ही भारत-चीन संबंधों के सुव्यवस्थित विकास का आधार है. बीते कुछ सालों में दोनों नेता एक-दूसरे के मेहमान हुए हैं और कई अवसरों पर उनकी मुलाकातें भी हुई हैं. दोनों देशों के मंत्रियों और अधिकारियों का आने-जाने का सिलसिला लगातार जारी है. प्रधानमंत्री मोदी ने भी चीनी नेता की इस बात से सहमति जतायी है कि चीन और भारत के मजबूत रिश्ते वैश्विक राजनीति की स्थिरता के लिए भी बहुत जरूरी हैं. संरक्षणवाद, आतंक, युद्ध, हिंसा और बड़े देशों की स्वार्थी तनातनी से वैश्वीकरण, मुक्त व्यापार और संतुलित अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर नकारात्मक असर पड़ रहा है. चीन और भारत समेत सभी विकासशील और अविकसित देशों की आकांक्षाओं के रास्ते में ये चुनौतियां बाधक हैं. संतोष की बात है कि इन समस्याओं पर दोनों नेता समान राय रखते हैं और इनके समाधान के लिए सहयोग की इच्छा रखते हैं. पाकिस्तान समेत दक्षिण एशिया के अन्य देशों तथा हिंद महासागर में चीनी प्रभाव के आक्रामक विस्तार भारतीय हितों के लिए नुकसानदेह हैं. भारत ने समय-समय पर चीन को भी अपनी चिंताओं से अवगत कराया है. यह भारतीय कूटनीति और उसके संयम का ही नतीजा है कि चीन भी आपसी तनावों को बढ़ाने की निरर्थकता को समझ गया है. आपसी भरोसा मजबूत करने और विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने के राष्ट्रपति जिनपिंग के आग्रह में ऐसे संकेत पढ़े जा सकते हैं. एक मशहूर कहावत है कि आप अपने दोस्त चुन सकते हैं, पर पड़ोसी नहीं. इस बात को समझते हुए दोनों नेता दोस्ती की नयी इबारत लिखने की राह पर हैं.


देशबन्धु

चाय पकौड़े के बाद पान

हमारे खान-पान की परंपरा है कि चाय-पकौड़े के बाद पान पेश किया जाता है। लेकिन भाजपा के राज में यह शायद रोजगार की परंपरा बन चुकी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, तीन बार मुख्यमंत्री बनने के बावजूद खुद का प्रचार चायवाला के तौर पर करवाना पसंद करते हैं और मीडिया इसमें उनका भरपूर साथ देता है। चायवाला वाला जुमला इतना प्रचारित कर दिया गया है, मानो चाय का ठेला लगाने वाले किसी व्यक्ति को ही सीधे चुनाव जीतकर देश संभालने दे दिया गया हो। चाय से बात आगे बढ़ी तो पकौड़ों पर जाकर अटक गई। एक टीवी चैनल को दिए साक्षात्कार में बेरोजगारी पर मोदीजी ने कहा कि अगर आपके दफ्तर के बाहर कोई पकौड़ा बेचता है, तो वह रोजगार नहीं है क्या? इस तरह देश में पकौड़ा रोजगार पर चर्चा शुरु हो गई। विपक्षियों ने पकौड़ों का खोमचा लगाकर भाजपा सरकार का सांकेतिक विरोध किया। यह प्रहसन चल रहा था कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने राज्यसभा में पकौड़ा राजनीति पर अपने विचार प्रकट किए। अब यह बात भी आई गई हो गई।

चाय-पकौड़े के बाद अब पान की दुकान लगाकर रोजगार हासिल करने का मंत्र त्रिपुरा की भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री बिप्लव देब ने दिए हैं। उन्होंने नसीहत दी है कि राज्य के युवा सरकारी नौकरियों के लिए नेताओं के पीछे भागने की बजाय पान की दुकान खोल लेते, तो उनका बैंक बैलेंस लाखों में होता। एक सेमिनार में त्रिपुरा के मुख्यमंत्री ने कहा कि युवा सरकारी नौकरी के लिए कई वर्षों तक राजनीतिक दलों के पीछे भागते हैं और अपने जीवन के कई अनमोल वर्ष बरबाद कर देते हैं। अगर यही युवा राजनीतिक दलों के पीछे भागने की बजाय पान की दुकान खोल लेते तो अब तक उनके बैंक में 5 लाख रुपये होते।

उन्होंने यह समझाइश भी दी कि यह संकीर्ण सोच है कि ग्रेजुएट खेती या पशुपालन नहीं कर सकते हैं, क्योंकि ऐसा करने पर उनका स्तर गिर जाएगा। बात तो सही है, काम तो कोई भी छोटा या बड़ा नहीं होता। लेकिन यहां मुद्दा यह नहीं है कि हम किस काम को छोटा या बड़ा मानते हैं, मुद्दा तो यह है कि सरकार रोजगार देने के अपने वादे को पूरा क्यों नहीं करती है? और किसानों या पशुपालकों की दुर्दशा भी किससे छिपी है।

भाजपा सरकार में किसान देश भर में कहीं रैलियां निकाल रहे हैं, कहीं भूख हड़ताल कर रहे हैं, और फिर भी उनकी समस्याओं का हल नहीं मिल रहा तो आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं। बीते दिनों महाराष्ट्र में एक किसान ने अपने आत्महत्या के पत्र में बाकायदा प्रधानमंत्री को जिम्मेदार ठहराया है। मवेशियों को पालने वाले भी धर्म के स्वयंभू रक्षकों के आतंक से ग्रसित हैं। मवेशियों को चराने के लिए ले जाना या बेचने के लिए ले जाना उनके लिए जानलेवा बनता जा रहा है। इसके बाद भाजपा किस मुंह से नौजवानों को खेती करने या पशुपालक बनने की सलाह देती है। और अगर यही करना है तो फिर पूरे देश में कृषि और पशुपालन की पढ़ाई के संस्थान ही खोलने चाहिए। इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट या अन्य तमाम कोर्स बंद ही कर देना चाहिए।

इंजीनियर बनने वाला नौजवान तो अपनी योग्यता के अनुरूप ही नौकरी चाहेगा। पांच-सात साल जी-तोड़ मेहनत, खर्चीली पढ़ाई कोई इसलिए तो नहीं करता कि उसे पकौड़ा बेचने या पान बेचने की नसीहत मिले। एनसीआरबी के आंकड़े हैं कि हर दिन 26 युवा बेरोजगारी की हताशा के कारण आत्महत्या कर रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने भी भारत में बेरोजगारी की स्थिति पर चिंता जतलाई है। आईएलओ के मुताबिक वर्ष 2018 में भारत में बेरोजगारों की संख्या 1.86 करोड़  रहने का अनुमान है। जबकि 2019 में यह संख्या 1.89 करोड़ तक बढ़ सकती है। कहां तो भाजपा ने 2014 की चुनावी घोषणा में हर साल 2 करोड़ लोगों को रोजगार का वादा किया था, और कहां उसके शासन में बेरोजगारी डराने वाली स्थिति पर पहुंच चुकी है।

त्रिपुरा की ही बात करें, जहां हाल ही में भाजपा ने वाममोर्चे को परास्त करने का इतिहास रचा और बूढ़े मानिक दा की जगह युवा बिप्लव देब को सत्ता की कमान मिली, वहां भाजपा के चुनावी घोषणापत्र में एसईजेड बनाने की घोषणा है, जिसके कारण हर घर में एक रोजगार का वादा है। भाजपा ने युवाओं को स्मार्टफोन देने की घोषणा भी वहां की थी। तो क्या इस स्मार्टफोन पर कितने पान, कहां पहुंचाने हैं और किसे किस तरह का पान पसंद है, यह सब फीड किया जाएगा। युवा पान लगाने की कला में अपना स्किल डेवलेपमेंट दिखाएंगे? पान के साथ पीक का तो रिश्ता अटूट है, फिर इस पीक से मोदीजी के स्वच्छ भारत अभियान का क्या होगा?


Indian Express

The Wuhan Moment

 There was never an expectation that the informal summit between Prime Minister Narendra Modi and the Chinese President Xi Jinping at Wuhan in Central China over the weekend would produce major breakthroughs on the multiple contentions dividing Delhi and Beijing. The summit was not about top-down negotiations between the two leaders. The intense but informal engagement in a picturesque setting spread over two days was part of an effort to enhance “strategic communication” between the two rising Asian powers. It has not come a day too soon. Over the last couple of years, it had become increasingly clear that the framework established when Prime Minister Rajiv Gandhi met Chairman Deng Xiaoping in Beijing at the end of 1988 was breaking down. Their idea that the two sides could significantly expand their bilateral relations while purposefully addressing differences had become unsustainable. Repeated military confrontations on the disputed frontier, growing trade deficit in favour of Beijing, and the deepening divergence on many regional and global issues demanded that the two sides take a deep political breath and start all over again.

That precisely is what Wuhan was about. For nearly a year, Delhi and Beijing have been considering an informal leaders-level dialogue to reduce the current unacceptable levels of mistrust, generate a better appreciation of each other’s interests and avoid the escalation of disputes into costly conflicts. At Wuhan, there was no attempt to gloss over a range of widening cracks in the bilateral relationship. A close reading of the separate press statements issued by the two sides revealed the divergent perceptions on all critical issues in the relationship. Whether it was the methodology to prevent the recurrence of Doklam type of incidents, the approach to sustainable bilateral trade, the norms for regional connectivity, relations with third parties like the US and Pakistan, or appropriate ways of countering terrorism, Delhi and Beijing are not on the same page.

But Modi and Xi agreed on one important thing — to keep talking at a moment of great global disruption. The history of international relations suggests that political friction between rising powers is quite common. Such friction becomes quite difficult to manage when the rising powers are neighbours. Modi and Xi recognise this is a very sensitive moment in the evolution of bilateral relationship that has become evermore important for peace, stability and prosperity in Asia and beyond. They acknowledge the need for political maturity and diplomatic skill in putting a very difficult bilateral relationship on an even keel.


 Times Of India

Positive Talks

Both President Xi Jinping and Prime Minister Narendra Modi like to reflect on the antiquity of Chinese and Indian civilisations respectively. But that won’t necessarily resolve problems between the two countries in the present. More of this approach was evident in the informal summit between the two leaders in Wuhan last week, when Xi took Modi on a guided tour of the Hubei provincial museum storing antiquities. Gains from the trip were not confined, however, to Xi’s hospitality, the face-time between the two leaders, or the bonhomie and symbolism on display. There were tangible outcomes as well, which could alleviate some of the stress in the India-China relationship.

The two sides agreed, for example, to undertake a joint economic project in Afghanistan. If such projects do indeed come to fruition – especially in Afghanistan where Pakistan is keen to exorcise any Indian presence – they would work wonders in terms of lowering distrust between New Delhi and Beijing. Also promising is the “strategic guidance” given by Xi and Modi to their countries’ respective militaries to build trust and predictable engagements in managing the border. If this means heading off future confrontations between the two armed forces, as was witnessed in Doklam last year, it’s indeed welcome.

The tone of the summit was best summed up by Modi’s enunciation of his own five mantras (akin to the 1954 Panchsheel Treaty) – thinking, contact, cooperation, determination and dreams – that he said could define the new India-China relationship. However, in that context it’s worthwhile remembering that the earlier Panchsheel came apart, and that talks and bonhomie have been experienced before only to disappoint later. Xi’s visit to India in 2014 was similarly cordial but also saw incursion of Chinese troops in Ladakh. Plus, mechanisms to resolve the border issue appear to have ground to a halt.

To be sure, special representatives of both countries have been “urged” to intensify their efforts to settle the border issue. But such efforts have been ongoing for decades without result. If the two leaders really wish to think big about the future of the India-China relationship, they must take control of the process and settle the border. After all, an undefined border is the fundamental reason confrontations between the two militaries arise. It makes little sense for the Chinese to claim Arunachal Pradesh now, as they overran and then relinquished it in 1962.


 Telegraph

Live In Fear

The truth hurts, and few know this better than journalists in India. Last year, India slipped three places on the World Press Freedom Index to the 136th position among 180 countries. This year, it has fallen two more notches – it now ranks 138th, just one place ahead of Pakistan. Such a steady downward spiral is worrying for a number of reasons. India is the world’s largest democracy, with robust constitutional guarantees of free speech and expression. Yet, ever since the general elections in 2014 saw the Bharatiya Janata Party come to power at the Centre, the media have suffered a series of clampdowns on their freedoms as well as a rapid disappearance of spaces for dissent. The index may have recorded a decline in press freedoms all over the world, but the relative suffering of journalists in other countries does not make the plight of the Indian media any easier. It is bad enough that journalists under totalitarian regimes either have to self-censor or risk persecution and death; it is even worse when those in countries with democratically elected leaders face the same problems.

The ruthlessness of the attacks on the fourth estate in India has been alarming. Reporting in conflict zones has always been risky, but the danger to the lives of journalists has now extended to other parts of the country. The index report observed that the murders of at least three Indian journalists last year – one of them was Gauri Lankesh, a vocal critic of right-wing politics and the ruling party – were motivated by the work they did. Then there are repeated attempts to muffle journalistic voices – such as accusing them of sedition, an offence that can lead to life imprisonment – in order to ensure that they censor themselves. To make matters worse, hatred for – and violence against – journalists critical of the administration is incited and rapidly spread over social media by trolls who reportedly enjoy the State’s backing. If this were not enough, the prime minister himself has made his dispensation’s disregard for the fourth estate evident. He recently cautioned members of his party against making statements that the media could use “selectively” to “create a controversy”. In a democracy, the relationship between the government and the media is a significant one. That relationship is badly damaged when the elected leader – who is otherwise known to maintain prolonged silences on the subject of extreme human rights violations in his country – questions the integrity of the journalistic institution in front of the world.


New Indian Express

Will Evil Kim Sign His Own Death Warrant

As the leaders of India and China gingerly puffed at a peace pipe Friday in Wuhan in central China, another historic summit was taking place some 1,400 km to the northeast in Freedom House, on the southern side of the Demilitarized Zone (DMZ) separating the two Koreas. Historic because this was the first time that a North Korean leader set foot in the South since the end of the Korean war in 1953. (Two South Korean Presidents did visit the North for summits, in 2000 and 2007).

As a beaming ‘Supreme Leader’ Kim Jong-un strode towards the line that divides the two Koreas on the morning of April 27, shaking the hand of South Korean President Moon Jae-in before crossing, and then inviting Moon to step across to the North for another round of frenzied photographs, many forgot that this was a evil, malevolent man with a lot of blood on his hands.

A man who had threatened to turn not just his southern neighbour, but the west coast of the US, almost 10,000 km away, into a radioactive wasteland with his ever-growing arsenal of nuclear warheads and missiles. A man who ordered the execution of two of his officials in August 2016 using anti-aircraft guns. After their intimate private meetings, similar to the one taking place in Wuhan, the two Korean leaders “solemnly declared before the 80m Korean people and the whole world that there will be no more war”, and that they would work towards a “nuclear free Korean peninsula”.

But before an exultant US President Donald Trump decides to meet the ‘Rocketman’, he might want to consider two things: One, the North has signed many such agreements in the past: in 1992, with South Korea. In 1994, with the US. In 2005, with four neighbours and the US, and in 2012, again with the US. They all collapsed. Two, Kim knows the only thing that prevents him from meeting the same fate as Iraqi leader Saddam Hussein and Libyan strongman Muammar Gaddafi is the fact that he has nuclear weapons. Why would he want to sign his own death warrant?

 

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