आज के हिंदी/अंग्रेजी अख़बारों के संपादकीय: 29, मार्च 2018

जनसत्ता

खापों पर शिकंजा
दूसरी जाति या धर्म में दो बालिगों की शादी को लेकर सर्वोच्च अदालत ने जो फैसला सुनाया है, वह ऐतिहासिक है। यह फैसला इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि अब खाप पंचायतों की मनमानी पर लगाम लग सकेगी। एक खाप के ‘फैसले’ के खिलाफ दायर जनहित याचिका पर दिए चौवन पेज के फैसले में सर्वोच्च अदालत ने साफ कहा कि दो बालिगों की मर्जी से की गई शादी में खाप पंचायत या किसी भी पक्ष का दखल गैरकानूनी है। इस मामले में न माता-पिता, न समाज और न ही कोई पंचायत दखल दे सकती है। अगर ऐसी शादी में कहीं कुछ गलत नजर आता है तो इसका फैसला करना कानून और अदालत का काम है, न कि किसी और का। प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाले तीन सदस्यीय पीठ ने खाप पंचायतों को साफ-साफ चेताया है कि वे कानून हाथ में न लें और समाज की ठेकेदार न बनें। अदालत ने आन के नाम पर की जाने वाली हत्याओं (ऑनर किलिंग) को रोकने के लिए कानून बनाने की सिफारिश की है। जब तक कानून नहीं बन जाता तब तक अदालत के दिशा-निर्देश लागू रहेंगे, जिन्हें छह हफ्ते के भीतर लागू किया जाना है। अदालत ने सुधारात्मक उपाय और रोकथाम के कदम भी सुझाए हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि इनसे ऑनर किलिंग जैसी सामाजिक बुराई को रोकने में मदद मिल सकेगी।

सर्वोच्च अदालत का यह फैसला व्यक्ति की पसंद, उसकी आजादी और आत्मसम्मान को रेखांकित करता है। किसी की पसंद को सम्मान या आन के नाम पर कुचलने और उसे शारीरिक-मानसिक रूप से प्रताड़ित करने वाली घटनाएं समाज के लिए कलंक हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि 2014 से 2016 के दौरान आन के नाम पर हत्या की दो सौ अट्ठासी वारदातें हुर्इं। बेतुके और बर्बर फैसले सुनाते वक्त खाप पंचायतें भूल जाती हैं कि उनसे ऊपर कानून की भी सत्ता है। एक जाति या गोत्र में शादी, प्रेम संबंध, अवैध संबंध, जमीनी विवाद जैसे मसलों पर कई बार खापों के फैसले सुन कर हैरत होती है। मसलन, मुंह काला करना, गांव में निर्वस्त्र घुमाना, पति-पत्नी को भाई-बहन घोषित कर देना, पीट-पीट कर मार डालना, ऐसा आर्थिक दंड लगाना जिसे भर पाना ही संभव न हो, सामाजिक बहिष्कार, जाति बाहर कर देना, गांव छोड़ने का हुक्म दे देना, आदि। इसलिए खापों की इस गैरकानूनी और मनमर्जी वाली व्यवस्था पर लगाम क्यों नहीं लगनी चाहिए? सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू कराना सरकार की जिम्मेदारी है। अदालत ने साफ कहा है कि दूसरी जाति या धर्म में शादी करने वाले बालिगों की सुरक्षा की जिम्मेदारी पुलिस और प्रशासन की है।

अगर सर्वोच्च अदालत के दिशा-निर्देशों पर अमल नहीं होता है तो संबंधित अधिकारियों को खमियाजा भुगतना होगा। लेकिन सवाल है कि खापों से प्रशासन निपटेगा कैसे? यह एक बड़ी चुनौती है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में कई खापों ने दहेज, शादी-विवाह में फिजूलखर्ची और कन्याभ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ मुखर पहल की है। अगर खापें ऐसे ही सकारात्मक कदम ऑनर किलिंग जैसी सामाजिक बुराइयों को खत्म करने के लिए भी उठाएं, तो इससे समाज में बड़ा बदलाव आ सकता है। यह कोई मुश्किल काम नहीं है। लेकिन समस्या यह है कि खापों को राजनीतिकों का पूरा संरक्षण रहता है। कोई भी नेता अपनी जाति की खाप के खिलाफ मुंह खोलने की हिम्मत नहीं दिखा पाता है, क्योंकि उसे वोट खिसकने का डर सताता है। ऐसे में सरकार और प्रशासन की पहल के साथ-साथ खापों और इन्हें संरक्षण देने वाले राजनीतिकों को अपनी मानसिकता बदलने की जरूरत है!


हिंदुस्तान

प्रधानमंत्री और तलाशी
इसे सोशल मीडिया और खबरिया चैनलों के जमाने का एकदिवसीय हंगामा भी कहा जा सकता है, लेकिन पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहिद अब्बासी की न्यूयॉर्क हवाई अड्डे पर तलाशी या शायद जामा-तलाशी ली गई, वह मामला काफी गंभीर है। यह ठीक है कि इस खबर में वे सारे मसाले थे, जिससे टीवी दर्शकों को बांधकर रखा जा सकता था और वेबसाइट के हिट बढ़ाए जा सकते थे। सोशल मीडिया पर दिन भर इसे पाकिस्तान की अगली-पिछली तमाम करतूतों से जोड़कर भी देखा जा रहा था। न जाने कैसे इस घटना से जुड़ा वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल हो गया और खबर की सनसनी को बढ़ाने में उसका भी काफी योगदान रहा। लेकिन अगर इसे इन सब चटखारों से अलग करके देखें, तो यह सीधे तौर पर एक संप्रभु देश के प्रधानमंत्री से र्दुव्येवहार का मामला है। यह ठीक है कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की यह यात्र सरकारी नहीं थी। वह वहां इलाज करा रहीं अपनी बहन को देखने के लिए गए थे। इस वजह से यह तर्क दिया जा सकता है कि उनकी इस यात्र पर प्रोटोकॉल लागू नहीं होता और इसलिए उनसे वही व्यवहार किया गया, जो आम यात्रियों से होता है। फिर भी यह आपत्तिजनक है। क्या खुद अमेरिका स्वीकार करेगा कि उसके राष्ट्रपति किसी देश की यात्र पर जाएं और वहां उनकी तलाशी हो?निजी यात्र के तर्क में इसलिए भी दम नहीं है कि कई नेताओं की आधिकारिक यात्र के दौरान भी ऐसा हुआ है। जॉर्ज फर्नाडिस जब भारतीय रक्षा मंत्री के तौर पर अमेरिका की यात्र पर गए थे, तो हवाई अड्डे पर उनकी जामा तलाशी हुई थी। वापस लौटकर उन्होंने इसकी शिकायत तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से की थी। बात वहीं दबा दी गई थी, लेकिन बाद में जब अमेरिका के एक पूर्व राजनयिक ने अपनी किताब में इसका जिक्र किया, तो यह जगजाहिर हो गई। तभी यह भी पता लगा था कि लालकृष्ण आडवाणी जब गृह मंत्री के तौर पर अमेरिका गए थे, तो तलाशी के दौरान उनके जूते-मोजे तक उतरवा लिए गए थे। इसके अलावा एपीजे अब्दुल कलाम जब राष्ट्रपति पद से रिटायर हो चुके थे, तो एक अमेरिकी यात्री हवाई जहाज पर चढ़ने के दौरान उनकी तलाशी ली गई थी, बावजूद इसके कि उनकी सुरक्षा में लगे जवानों ने उनका परिचय दिया था। ऐसा देश के कई मंत्रियों और अधिकारियों के साथ हो चुका है। प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता शाहरुख खान को भी जांच के नाम पर कई घंटे तक हवाई अड्डे पर बिठाकर रखा गया था। इन खास लोगों को छोड़ दें, तो अमेरिका जाने वाले आम लोगों को तो इस प्रक्रिया में रोज ही खासा परेशान होना पड़ता है।यह भी कहा जाता है कि किसी देश के मन में आतंकवाद को लेकर दहशत कितनी ज्यादा है, इसे अमेरिकी हवाई अड्डों पर होने वाली तलाशी प्रक्रिया के पागलपन से समझा जा सकता है। पिछले कुछ साल में तकरीबन सभी देशों में यह तलाशी प्रक्रिया काफी कड़ी हुई है, लेकिन अमेरिका में यह सख्ती एक दूसरी अति तक जा पहुंची है। ऐसे आरोप अक्सर सामने आते हैं कि वहां लोगों की चमड़ी का रंग और उनका नाम देखकर तलाशी का स्तर तय किया जाता है। समय जिस तरह बदल रहा है, उसमें अमेरिका या किसी भी देश की ऐसी मजबूरियों को समझा जा सकता है। लेकिन किसी देश के प्रधानमंत्री या मंत्री के साथ बर्ताव की तमीज तो अमेरिका को सीखनी ही होगी।


अमर उजाला

जीवनसाथी चुनने की आजादी
दो वयस्क लोगों की आपसी पसंद से होने वाली शादी में किसी तीसरे व्यक्ति या खाप पंचायत जैसे समूह को गैरकानूनी करार देने वाला सर्वोच्च अदालत का फैसला बेहद अहम है, बावजूद इसके कि इसकी राह में चुनौतियां भी कम नहीं हैं। खाप पंचायत पर शीर्ष अदालत का यह कोई पहला फैसला नहीं है, बल्कि इससे पहले 2011 में भी ऑनर किलिंग से संबंधित एक मामले की सुनवाई करते हुए उसने खाप पंचायतों को ‘कंगारू कोर्ट की संज्ञा देते हुए अवैध करार दिया था। इसके बावजूद खाप पंचायतों का अंतरजातीय या फिर दूसरे धर्म के साथ ही सगोत्र विवाह के खिलाफ फरमान जारी करना और संबंधित जोड़ों को ‘सजा’ देना जारी है। इसकी जड़ें गहराई तक सामाजिक संरचना में देखी जा सकती हैं, जिनका हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान में व्यापक असर है और यह इत्तफाक नहीं है कि लैंगिक असमानता के मामले में भी ये राज्य पिछड़े हुए हैं। अक्सर आपसी पसंद से होने वाली शादियों को खुद की और अपने समाज की आन से जोड़कर देखा जाता है और बदले में युवा जोड़ों की हत्या तक कर दी जाती है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि 2014 से 2016 के दौरान ही ऑनर किलिंग के 228 मामले दर्ज किए गए थे। खाप पंचायतों की सामाजिक भूमिका से इन्कार नहीं किया जा सकता, मगर उन्हें यह हक नहीं है कि वे अपनी रजामंदी से शादी करने वाले जोड़ों के खिलाफ फरमान जारी करें। सर्वोच्च अदालत ने इसे संविधान के अनुच्छेद 19 (अभिव्यक्ति की आजादी) और अनुच्छेद 21 (जीने का अधिकार) से जोड़ा है और कहा है कि व्यक्ति की पसंद उसकी आजादी और आत्मसम्मान का हिस्सा है। इसके साथ ही सर्वोच्च अदालत ने ऑनर किलिंग रोकने के लिए दिशा-निर्देश भी जारी किए हैं और इस संबंध में कानून बनाने की सिफारिश भी की है। वैसे विधि आयोग ने तो 2012 में ही विवाह में बाहरी हस्तक्षेप रोकने संबंधित एक विधेयक का मसौदा तैयार किया था, जिसमें खाप पंचायतों को गैरकानूनी जमावड़ा बताकर उन पर रोक लगाने की सिफारिश की गई थी। गेंद अब सरकार और संसद के पाले में है, जिसे जल्द ही कोई कानून बनाना चाहिए, ताकि दो वयस्क लोगों की रजामंदी से होने वाली शादियों में कोई दखल न दे सके।


राजस्थान पत्रिका

खेल भावना कहाँ?

खेल अगर मैच जीतने का जरिया भर बनके रह जाए तो क्या उसे खेल माना जाए? सदियों से ये सवाल उठता रहा है। अलग-अलग मौकों पर, अलग-अलग तरीके से। कभी उत्तेजक दवाइयां लेकर पदक जीतने के बाद तो कभी क्रिकेट गेंद के साथ छेड़छाड़ के बाद। ऐसे सवाल उठते हैं। क्रिकेट गेंद से छेड़छड़ के आरोप साबित होने के बाद आस्ट्रेलिया क्रिकेट बोर्ड ने स्टीव स्मिथ और डेविड वार्नर पर एक साल के लिए प्रतिबंध लगा दिया है। स्मिथ और वार्नर को कप्तान और उपकप्तान पद से पहले ही हाथ धोना पड़ चुका है। खेलों में कोई एक जीतता है तो किसी दूसरे की हार होना तय है। लेकिन मैच जीतने के लिए गेंद से छेड़छाड़ का ये पहला मामला नहीं है। अनेक मौकों पर अलग-अलग टीम के खिलाड़ियों पर इसकी गाज गिर चुकी है। सख्त कार्रवाई के बावजूद ऐसी घटनाएं सामने आती रहती हैं। कहते हैं जीत-हार से बड़ी मानी जाती है खेल भावना। यह वही भावना है जो अलग-अलग देशों के खिलाड़ियों को एक-दूसरे से मिलाती है। इसके बावजूद बीते कुछ दौर में खेलों में फैली ये गंदगी हैरान करने वाली है। अब बात सिर्फ जीत तक ही सीमित नहीं रह गई है। नामी खिलाड़ी पैसों के लिए मैच हारने से भी गुरेज नहीं करते। सट्टेबाजी को लेकर क्रिकेट तो पूरी तरह संदेह के घेरे में आ चुका हैं। अधिकांश मैचों की विश्वसनीयता पर सवाल उठ चुके हैं। आस्ट्रेलिया के इस मामले में कई सवाल उठते हैं। टीम का कप्तान ही अगर गेंद से छेड़छाड़ की घटना में शामिल रहा हो तो क्या उस पर एक साल का प्रतिबंध वाजिब माना जाए। स्मिथ और वार्नर पर क्यों नहीं जिंदगी भर का प्रतिबंध लगाया जाए?
फैसला कठोर हो सकता है लेकिन खेलों की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए कड़े कदम उठाने ही चाहिए। खेल प्रतिस्पर्धाएं दुनिया के तमाम देशों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान का संदेश देती हैं। एक-दूसरे को समझना, एक पदक जीतने से बड़ी बात है। ये खेल, सांस्कृतिक समरोह और साहित्य ही हैं। जिसने दुनिया को अब तक एक सूत्र में बांधे रखा है। वरना राजनीति और कूटनीति के भरोसे रहे। तो तनाव के अलावा कुछ नजर ही नहीं आता। ऐसे में प्रयास यही हों कि खेलों को खेल भावना के साथ ही खेला जाए। इसके लिए तमम देशों के खेल संगठनों को अपने स्तर पर प्रयास करने चाहिए। समीक्षा करनी चाहिए कि ऐसा हो क्यों रहा है और इसे रोकने के लिए किया क्या जाए? खिलाड़ियों को भी समझना होगा कि यदि सभी जीतने लगेंगे तो फिर हारेगा कौन?


दैनिक भास्कर

सूचनाओं के इस हमाम में दलों की नैतिकता
कांग्रेस और भाजपा के बीच आंकड़ों की चोरी और दुरुपयोग के बहाने छिड़ी जंग को कैंब्रिज एनालिटिका कंपनी के पूर्व कर्मचारी क्रिस्टोफर वाइली ने ब्रिटिश संसद के समक्ष अपने इकबालिया बयान से रोचक बना दिया है। उनके यह कहने के बाद कि कांग्रेस उनकी कंपनी की ग्राहक थी सत्तारूढ़ भाजपा की बांछें खिल गई हैं और उसने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से माफी की मांग शुरू कर दी है। इससे पहले कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने कहा था कि कैंब्रिज एनालिटिका कंपनी से उनका कोई वास्ता नहीं है। कैंब्रिज एनालिटिका डाटा माइनिंग और राजनीतिक सलाह देने वाली ऐसी कंपनी है, जिसकी स्थापना व्हाइट हाउस के पूर्व सलाहकार स्टीव बैनन ने की थी। यह कंपनी राजनीतिक दलों और नेताओं के पक्ष में पासा पलटने में उस्ताद मानी जाती है और इसके खाते में 2016 की डोनाल्ड ट्रम्प की जीत तो है ही 2010 में लालू प्रसाद को हराकर नीतीश कुमार को सत्ता दिलाने का श्रेय भी है। आंकड़ों की चोरी और राजनीतिक जनमत को प्रभावित करने की यह शृंखला फेसबुक से शुरू होकर ग्लोबल साइंस रिसर्च जैसी संदेहास्पद साख वाली कंपनी से होते हुए कैंब्रिज एनालिटिका तक जाती है। ग्लोबल साइंस रिसर्च चोरी किए गए आंकड़े कैंब्रिज को उपलब्ध कराती थी। वाइली ने ब्रिटिश संसद की समिति के समक्ष यह कहकर यूरोप में हंगामा मचा दिया है कि ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से अलग होने का पूरा काम भी धोखाधड़ी का ही था। एक तरफ इस कंपनी की सेवाएं लेने वालों में कांग्रेस का नाम है तो दूसरी तरफ नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल(यू) का नाम भी आ रहा है। अगर कांग्रेस पार्टी केंद्र में शासन कर रही भाजपा की प्रतिद्वंद्वी है तो जद (यू) भाजपा की सहयोगी दल। सूचनाओं के इस हमाम में यूरोप और अमेरिका से लेकर भारत तक बहुत सारे राजनीतिक दल निर्वस्त्र खड़े हैं। वाइली ने पूरा ब्योरा न देते हुए कहा है कि भारत में कई तरह की सेवाएं ली जाती थीं जिनमें कुछ क्षेत्रीय स्तर पर भी होती थीं। डाटा माइनिंग करने वाली यह कंपनियां पहले पोस्ट-ट्रुथ का उत्पाद करती हैं और फिर उसके माध्यम से जनमत में तोड़फोड़ करती हैं। इन स्थितियों ने आधुनिक लोकतंत्र के समक्ष बड़ी चुनौती पैदा की है। देखना है कि राज्य नामक संस्था इससे निपटने में कामयाब होती है या सूचना और लोकतंत्र की कोई नई पारिस्थितिकी उभरती है।


दैनिक जागरण

परीक्षा ही फेल
केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड यानी सीबीएसई की ओर से दसवीं की गणित और बारहवीं की अर्थशास्त्र की परीक्षा फिर से कराने की घोषणा से यही प्रकट होता है कि इन दोनों विषयों के प्रश्नपत्र न केवल लीक हो गए, बल्कि बड़े पैमाने पर वितरित भी कर दिए गए। यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा कि यह आपराधिक कृत्य किसने और कितने बड़े पैमाने पर किया, लेकिन इसमें दोराय नहीं कि इस कारण देश के लाखों छात्रों पर तुषारापात हुआ है। गणित की परीक्षा के साथ ही दसवीं के ज्यादातर छात्रों की परीक्षा खत्म हो गई थी और वे इससे खुश थे कि परीक्षा का बोझ सिर से उतरा, लेकिन उनके राहत की सांस लेने के पहले ही यह खबर आ गई कि इस विषय की परीक्षा फिर से देनी होगी। चूंकि हाईस्कूल में गणित अनिवार्य होती है इसलिए सभी छात्रों को नए सिरे से परीक्षा की चिंता करनी होगी। इनकी संख्या 16 लाख से भी अधिक है। नि:संदेह इंटरमीडिएट के केवल उन्हीं छात्रों को दोबारा परीक्षा के दौर से गुजरना होगा जो अर्थशास्त्र की पढ़ाई कर रहे थे, लेकिन आखिर इसका क्या मतलब कि करे कोई और भरे कोई? यह किसी त्रसदी से कम नहीं कि लाखों छात्रों को उस विषय की परीक्षा में फिर से देने के लिए विवश होना पड़े जिसे वह पहले दे चुके हैं। चूंकि दसवीं की गणित और बारहवीं की अर्थशास्त्र की परीक्षा दोबारा होने से लाखों छात्रों और अभिभावकों के साथ-साथ शिक्षकों को भी अनावश्यक परेशानी का सामना करना पड़ेगा इसलिए इन विषयों के पर्चे लीक होने के मामले में उदाहरण पेश करने वाली कोई ठोस कार्रवाई होनी चाहिए। ऐसा इसलिए और भी आवश्यक है, क्योंकि सीबीएसई बोर्ड की परीक्षा की शुचिता पर गंभीर प्रश्नचिन्ह लग गया है। समझना कठिन है कि एक ऐसे समय जब हर तरह की परीक्षाओं के पर्चे लीक होने का खतरा कहीं अधिक बढ़ गया है तब किसी ने यह सुनिश्चित क्यों नहीं किया कि सीबीएसई परीक्षा की गोपनीयता बनाए रखने के तंत्र में सेंध न लगने पाए?1इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि मानव संसाधन विकास मंत्री ने दो विषयों की परीक्षा फिर से कराए जाने की नौबत आने पर खेद जताया और प्रधानमंत्री ने भी नाराजगी प्रकट की, क्योंकि बीते कुछ समय से विभिन्न परीक्षाओं के पर्चे लीक होने का सिलसिला कायम है। चंद दिनों पहले ही कर्मचारी चयन आयोग की परीक्षा के पर्चे लीक होने के मामले की जांच सीबीआइ को सौंपनी पड़ी थी। इसके पहले भी अन्य कई परीक्षाओं के पर्चे लीक हो चुके हैं। यह ठीक नहीं कि प्रतियोगी परीक्षाओं के साथ-साथ स्कूल और कॉलेज स्तर की परीक्षाओं के भी पर्चे लीक होने लगें। पर्चे लीक होने का सिलसिला संबंधित संस्थाओं के साथ ही शासन तंत्र की विश्वसनीयता को भी चोट पहुंचाता है। छात्रों के साथ-साथ आम जनता के मन में यह धारणा गहराती है कि अब हर कहीं सेंध लगाना आसान हो गया है। बेहतर हो कि हमारे नीति-नियंता यह समङों कि अगर परीक्षा आयोजन के तौर-तरीकों में आमूल-चूल परिवर्तन नहीं लाया जाता तो परीक्षाओं के पर्चे लीक ही होते रहेंगे.


प्रभात खबर

डेटा भंडार पर खतरा

कभी खनिज-तेल को सबसे कीमती धन की संज्ञा मिली थी, लेकिन इक्कीसवीं सदी सूचना-प्रौद्योगिकी के विस्तार की है और इस प्रद्योगिकी का कच्चा माल यानी ‘डेटा’ सबसे कीमती संसाधन बनकर उभरा है. लिहाजा, डेटा पर अधिकार तथा हिफाजत का मसला किसी देश की संप्रभुता तथा अंतरराष्ट्रीय संबंधों के लिहाज से अब बहुत अहम है.

मसलन, फेसबुक के मंच से हुई डेटा चोरी और इसके जरिये अमेरिकी चुनावों को प्रभावित करने का हाल का मसला देखा जा सकता है. सेवा-क्षेत्र के तेज विस्तार पर टिकी भारतीय अर्थव्यवस्था की एक मुश्किल है कि वह तेजी से डिजिटल इंडिया बनने की राह पर है, लेकिन डेटा की हिफाजत का कोई आधारभूत कानून मौजूद नहीं है. आधार-संख्या को सामाजिक कल्याण की विविध योजनाओं सहित मोबाइल और बैंकिंग जैसी सेवाओं के लिए अनिवार्य बनाने के निर्देश को चुनौती देनेवाली याचिकाओं की सुनवाई के क्रम में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘डिजिटल इंडिया’ की इस बुनियादी कमी की तरफ ध्यान दिलाया है.

इस साल जनवरी में सर्वोच्च न्यायालय के पांच जजों की पीठ ने सरकारी सामाजिक कल्याण की योजनाओं से आधार-संख्या को जोड़ने के निर्देश की संवैधानिक वैधता पर नये सिरे से सुनवाई शुरू की. इससे पहले आधार-संख्या से जुड़े डेटा के ऑनलाइन लीक होने की खबरें आ चुकी थीं. लेकिन, सरकार का पक्ष था कि आधार के डेटा भंडार में सेंधमारी नहीं हुई है, लोगों का इस पर पूरा भरोसा है और आधार-संख्या का डेटा पूरी तरह सुरक्षित है.

कोर्ट ने सुनवाई के क्रम में आधार-संख्या के नियामक आधार प्राधिकरण को डेटा के हिफाजती इंतजाम के बारे में अपना पक्ष रखने को कहा. मामले में शीर्ष अदालत का अवलोकन है कि आधार-संख्या मुहैया कराने में निजी ऑपरेटर संलग्न रहे हैं, सो वे आधार-संख्या के नामांकन के वक्त दर्ज सूचनाएं अपने पास रख सकते हैं.

कोर्ट के मुताबिक एक आशंका यह भी है कि आधार-संख्या को सत्यापन का एक मंच की तरह इस्तेमाल करनेवाली कंपनियां ग्राहक की पहचान-सूचक जानकारियां कॉपी करके उसका दुरुपयोग करें. अच्छी बात यह है कि आधार के प्रतिनिधि ने कोर्ट के अवलोकन के बाद माना कि फिलहाल आधार के लिए यह जानना मुश्किल है कि किसी व्यक्ति की आधार-संख्या का सत्यापन कोई कंपनी किन उद्देश्यों से कर रही है. बहरहाल, यह मानकर संतोष नहीं किया जा सकता कि सूचना-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में जो कुछ आज सुरक्षित जान पड़ रहा है, वह भविष्य में सुरक्षित नहीं भी हो सकता है.

आधार के प्रतिनिधि की यह बात आंशिक रूप से सच हो सकती है, लेकिन डेटा की हिफाजत के बुनियादी इंतजामों के अभाव को इस तर्क से छुपाया नहीं जा सकता. निजता के अधिकार को शीर्ष अदालत ने अपने एक फैसले में मौलिक अधिकारों में माना है. इस मौलिक अधिकार की रक्षा के निमित्त देश के सबसे बड़े डेटा-भंडार के रूप में उभरे आधार प्राधिकरण तथा सरकार को जवाबदेही भरे कदम उठाने की जरूरत है.


 देशबन्धु

साम्प्रादायिक
रामनवमी के बाद से प.बंगाल और बिहार में सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी है। यूं तो किसी भी किस्म की हिंसा, अराजकता चिंताजनक होती है, लेकिन जब इसमें सांप्रदायिक तनाव मिल जाता है, तो हालात और घातक हो जाते हैं। पिछले चार सालों में भारत के समाज में धार्मिक विभाजन की खाई साफ नजर आने लगी है। दो धर्मों, समुदायों के बीच अविश्वास, संदेह खड़ा कर दिया गया, जिसका खामियाजा समाज को भुगतना पड़ रहा है। प्रधानमंत्री लालकिले से जब सांप्रदायिक एकता की बात करते हैं, तो उसमें सतहीपन झलकता है, क्योंकि उनके कार्यकाल में देश में सांप्रदायिक, धार्मिक एकता कमजोर हुई है। हम जिस गंगा-जमुनी तहजीब की बात करते रहे हैं, वह महज जुमला नहींथा, बल्कि इस देश की संस्कृति और परंपरा थी, जिसे अब साजिशन खत्म किया जा रहा है। रामनवमी पर शस्त्रों के साथ जुलूस निकालना और उसके बाद हिंसा का भड़कना इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। भारत में तो सदियों से दुर्गापूजा और रामनवमी मनाए जाते रहे हैं, लेकिन उत्सव में हिंसा के लिए कोई स्थान नहींथा। पर चुनाव नजदीक हैं तो राजनीति के लिए हिंसा के लिए जगह बना दी।

प.बंगाल मुख्यत: शक्तिपूजक यानी देवी दुर्गा का उपासक है, यहां शारदीय नवरात्र का खास महत्व होता है, लेकिन बीते कुछ वर्षों में चैत्र नवरात्र और उसके बाद रामनवमी को राजनीति ने तवज्जो देनी शुरु कर दी। रामनवमी पर अस्त्रों के साथ जुलूस निकालना शुरु कर दिया। सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस रामनवमी के जुलूस में अस्त्र-शस्त्र साथ रखने के खिलाफ थी। लेकिन मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के आदेशों के बावजूद बीजेपी प्रदेश प्रभारी दिलीप घोष ने कहा था कि रैलियों में पारंपरिक हिंदू हथियार भी होंगे।

राज्य सरकार के तमाम निर्देशों के बावजूद रविवार सुबह पुरुलिया इलाके में बजरंग दल के सदस्यों ने तलवार लहराते हुए रैली निकाली। रैली में बजरंग दल के सदस्य हाथ में तलवार लेकर श्रीराम के नारे लगा रहे थे। यह भी कहा जा रहा है कि प्रशासन की तरफ से रैली की अनुमति नहीं दी गई थी। खबरें हैं कि सार्वजनिक तौर पर हथियार ले जाने की रोक का उल्लंघन करते हुए रामनवमी पर कई हथियारबंद रैलियां संघ से जुड़े संगठनों ने राज्य के विभिन्न भागों में निकाली थीं। पुरुष, महिलाओं यहां तक कि बच्चों ने भगवा झंडे लहराते हुए धारदार हथियारों जैसे तलवार, चाकूओं के साथ रैली निकाली। और अंतत: वही हुआ, जिसका डर था।

प.बंगाल में कई जगह हिंसा भड़की, कम से कम तीन लोगों की इसमें मौत हुई, कई घायल हुए और आसनसोल-दुर्गापुर के डीसीपी अरिंदम दत्त चौधरी का तो दाहिना हाथ ही प्रदर्शनकारियों द्वारा फेेंके गए बम में उड़ गया। अब इस हिंसा पर घटिया किस्म की राजनीति शुरु हो गई है। उधर बिहार का हाल भी इससे अलग नहींहै। केन्द्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के सुपुत्र अर्जित शाश्वत एफआईआर के बावजूद पुलिस की गिरफ्त से बाहर हैं और अदालत में उनकी अग्रिम जमानत पर सुनवाई चल रही है। बीते सप्ताह ही अर्जित के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी हुआ है, इसके बाद उन्हें पटना में जुलूस में शामिल होते, मीडिया से मुखातिब होते देखा गया, लेकिन नीतीश सरकार की पुलिस को वे नहीं मिले।

आरोप है कि हिंदू नववर्ष की शोभा यात्रा के दौरान 17 मार्च को भाजपा ने भागलपुर के सैंडिस कंपाउंड से जुलूस निकाला था जिसका नेतृत्व अर्जित कर रहे थे। बिहार पुलिस का कहना है कि यह जुलूस बिना अनुमति के निकाला गया था। जुलूस जब भागलपुर के नाथनगर पहुंचा था तो आपत्तिजनक गाने को लेकर दो पक्षों के बीच पत्थरबाज़ी, आगजनी और हिंसा की घटना हुई थी। इससे पहले बिहार में भाजपा उपचुनाव हारी तो उसके बाद अररिया में भारत विरोधी नारे वाले कथित वायरल वीडियो और दरभंगा में कथित रूप से मोदी चौक के नाम को लेकर हुई हत्या को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिशें हुईं थीं। जिन पर किसी तरह काबू पाया गया था। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार लालू प्रसाद के कार्यकाल को कई बार जंगल राज कह चुके हैं, लेकिन यह सच्चाई है कि उनके शासन में सांप्रदायिक दंगे नहींहुए थे। जबकि नीतीश कुमार इस मोर्चे पर नाकाम दिख रहे हैं। वे पिछले दिनों कई बार यह दोहरा चुके हैं कि उनकी सरकार सूबे में सदभाव कायम रखने के लिए प्रतिबद्ध है।

उन्होंने 22 मार्च को बिहार दिवस के मौके पर पटना के गांधी मैदान में कहा था कि राज्य में कुछ लोग गड़बड़ी फैलाने की कोशिश कर रहे हैं। लोगों को सतर्क रहने की जरूरत है। मैं हाथ जोड़ कर प्रार्थना करता हूं कि झगड़ा लगाने वालों के जाल में न फंसे। लेकिन अब जो हालात है, उन्हें देखकर तो यही लगता है कि जनता ही नहीं, सरकार भी झगड़ा कराने वालों के जाल में फंस चुकी है। औरंगाबाद, भागलपुर, मुंगेर, समस्तीपुर जैसे कई इलाकों में रामनवमी के जुलूस के बाद से सांप्रदायिक तनाव फैल गया है।

हालात काबू में करने के लिए मोबाइल, इंटरनेट सेवा बंद करना, फ्लैग मार्च निकालना, कर्फ्यू लगाना जैसे उपाय किए जा रहे हैं। लेकिन यह तो बीमारी के बाद का केवल ऊपरी इलाज है। असली समस्या तो बीमारी की जड़ है। जो सरकार की नीतियों के कारण और मजबूत होती जा रही है। सांप्रदायिक सद्भाव के मामले में भाजपा का ट्रैक रिकार्ड अच्छा नहींहै और अब ऐसी घटनाओं से उसकी साख और खराब हो रही है।


The Hindu

Curbing The Khaps

any crimes committed in the name of defending the honour of a caste, clan or family may have their origin in India’s abominable caste system, but there are other contributing factors as well. Entrenched social prejudices, feudal structures and patriarchal attitudes are behind what are referred to as ‘honour killings’. While these cannot be eradicated overnight through law or judicial diktat, it is inevitable that a stern law and order approach is adopted as the first step towards curbing groups that seek to enforce such medieval notions of ‘honour’ through murder or the threat of murder, or ostracisation. It is in this context that the Supreme Court’s strident observations against khap panchayats and guidelines to deal with them acquire significance. It is not the first time that the apex court has voiced its strong disapproval of khaps, or village assemblies that assume the authority to discipline what they deem behaviour that offends their notions of honour. Previous judgments have made it clear that the life choices of individual adults, especially with regard to love and marriage, do not brook any sort of interference from any quarter. In the latest judgment, a three-judge Bench headed by Chief Justice Dipak Misra has located the problem as one that violates the liberty and dignity of individuals, and something that requires preventive, remedial and punitive measures.

The High Courts of Punjab and Haryana and Madras have laid down guidelines to the police on creating special cells and 24-hour helplines to provide assistance and protection to young couples. The Supreme Court has now gone a step further and asked the police to establish safe-houses for couples under threat. The direction asking police officers to try and persuade khaps to desist from making illegal decisions may appear soft. But in the same breath, the court has also empowered the police to prohibit such gatherings and effect preventive arrests. How far it is feasible to videograph the proceedings of such assemblies remains to be seen, but it may be a deterrent against any brazen flouting of the law. The verdict is also notable for dealing with some points made often in defence of khap panchayats, rejecting outright the claims that they were only engaged in raising awareness about permissible marriages, including inter-caste and inter-faith ones, and against sapinda and sagotramarriages. The court has rightly laid down that deciding what is permitted and what is not is the job of civil courts. While these guidelines, if they are adhered to, may have some salutary effect on society, the government should not remain content with asking the States to implement these norms. It should expedite its own efforts to bring in a comprehensive law to curb killings in the name of honour and to prohibit interference in the matrimonial choices of individuals.


 Indian Express

Why Karnatka

The outcome of the Karnataka assembly election, scheduled for May 12, is likely to have a major bearing on the future course of both the BJP and the Congress. Though each state poll has its own political logic, the Karnataka result could set the tempo for the upcoming assembly elections in Rajasthan, Madhya Pradesh and Chhattisgarh later this year and even shape the contours of the 2019 general election. If the BJP regains the state, it could disorient the Opposition, which has lost state after state since the Narendra Modi government was sworn in in 2014. A Congress win could boost the confidence of the Opposition, which seems to have sensed an opening following its success in bypolls in UP, Bihar, Rajasthan, MP and Odisha.

Karnataka is central to the BJP’s plans for southern India since the party has a significant electoral presence in the state having won office in 2008. Five states and the union territories of Puducherry and Lakshadweep send 131 seats to the Lok Sabha, but the BJP continues to be a bit player in the region barring in Karnataka. The absence of a government in the south also diminishes the BJP’s claims to be a pan-India party: Since 2014, it has formed governments across north, west, central and eastern India but has failed to crack the south. The very strengths that helped the BJP to deepen its presence in rest of India are threatening to queer its pitch in the south. The Congress in Karnataka under Siddaramaiah has countered the BJP’s aggressive nationalist plank by embracing a Kannada subnationalist agenda: This narrative subtly frames the BJP as a Hindi-Hindutva party that is unable to recognise the cultural nuances of Kannada society. Talk of the Finance Commission assigning greater weightage to population while devolving central funds too has inadvertently fed into this political narrative, which suggests that the Centre is prejudiced. Siddaramaiah has also pitchforked the Lingayat demand for religious minority status to the centrestage close to the election to tame the BJP’s attempt to consolidate Hindu communities under its umbrella. The BJP’s push on a Hindu identity, embellished by campaigners like Yogi Adityanath, is now squaring against Siddaramaiah’s social coalition that includes sections of OBCs, Dalits and Muslims, a coalition forged by targeted welfare programmes and underlined by Kannada subnationalism. A win in Bengaluru may help the BJP wrest the narrative and open up political spaces in the southern states.

Retaining office in Karnataka is essential for the Congress to claim leadership of the non-BJP political segment. The party seems to have figured that it can hope to rebuild only by empowering state leaders. It has backed Siddaramaiah all through and allowed him to project himself as the Congress face in the state. It’s a gamble that could transform the Congress into a more federal party, a character that distinguished it in the 1950s and 60s.


Times Of India

Law And Marriage

Following its judgment invalidating triple talaq, the Supreme Court has now set up a Constitution bench to examine the practices of polygamy and nikah halala, a custom by which a woman has to marry and consummate a marriage with someone else before remarrying her previous husband. The Quran does not encourage these practices, contrary to common perception, but patriarchy gives them social sanction among a few Indian Muslims. Either way, they have no place in our constitutional republic. Whatever form our various family laws have, marriage is a formal union between two individuals with certain rights and obligations, and it must be fair to both partners.

Legal reform should ensure equal rights to men and women across religious communities. The aim should not be to make marriage more binding on unwilling parties, but to make the terms better. Whatever our cultural differences, individual rights are sacrosanct. In a recent judgment on khap panchayats, the Supreme Court has made it clear that no custom or community writ can override the marriage of consenting adults.

Of course, social practices are not easy to extinguish by law alone. Moreover, even our codified family and customary laws disadvantage women in various ways in marriage, divorce, property and so on. Provisions on conjugal rights and adultery and division of matrimonial assets continue to harm women. All of them need to be made compatible with egalitarian constitutional principles. Even as we hope for a comprehensive and common family code that applies to all Indians, irrespective of faith, the courts now have to make sure that nobody is deprived of their rights in the name of religious or social custom.

Right now, the Domestic Violence Act does provide redress to all Indian women across communities, if subjected to polygamy or coercion. But the Muslim women who have petitioned the court want a clear strikedown of these practices within their community. The court must hear and amplify the voices of these women, rather than the patriarchal ulema who appoint themselves the sole spokesmen of the Muslim community. It must also extend that effort to all communities and acknowledge women’s agency and rights, no matter what social force stands in their way. No protective father or vengeful partner, no possessive caste or religious order, should stand in the way of individual rights.


The Telegraph

Not Free

ndia may not be the leader of the free world, but its government has decided that some of its institutes of higher education should have the freedom to make their own academic and administrative decisions. Last week, the University Grants Commission announced that 60 institutions, including colleges, Central and state universities and private institutes, would be granted varying degrees of autonomy. At first, this seems like a step in the right direction — among other things, it will enable places of learning to start new courses and hire foreign faculty without having to seek permission from the UGC. The human resource development minister, Prakash Javadekar, hailed the move by saying that the government is willing to fund the institutions while also handing over control to them. Delving into the fine print, however, leads to some questions.

First, it must be asked whether the institutes have the infrastructure required to put their autonomy to good use; if they do not, it puts them at risk of being denied an extension of their deemed status.

Second, how much freedom are the institutions actually getting? Autonomy will allow them to introduce new courses only if they are able to fund these themselves. There are two logical outcomes to this: either the institutes will be unable to make the changes they want, or fees will increase exponentially.

The former defeats the purpose of being granted autonomy in the first place; the latter goes directly against the idea of education being accessible to all citizens, as hiked fees will be impossible for students from marginalized communities to afford. Mr Javadekar may say that the government is trying to liberalize higher education, but in practice they might just be rendering it more exclusive.

This would not be surprising: governments have always viewed education as a form of political capital. They would be loath to relinquish control over educational institutions, which foster critical thinking and can quickly turn into spaces for dissent. This attitude has been evident in the agenda of the ruling party, which has targeted inclusive, pluralistic education in the humanities by drastically reducing seats and withdrawing funding from public universities. While preventing the misuse of funds is important, the idea of the university as a space of freedom and learning must also be upheld. Granting autonomy means little when the institutions ‘ ability to make use of that freedom is limited.


New Indian Express

Attack On Journlism Bound To Boomerang

 

Don’t shoot the messenger’, is an old saying of the jungle. It’s normally used in a benign, metaphorical sense. But modern-day messengers—those ubiquitous reporter-journalists—are actually being eliminated, literally being crushed to death, for bringing to cold public light illegal activities and uncomfortable facts. There was nothing metaphorical about the way three journalists in Bihar and Madhya Pradesh lost their lives recently. In the latter, the journalist was involved in a sting operation through which collusion between the sand mafia and the police in Bhind district was exposed. The grey area was minimal. Fearing for his life, the journalist had sought protection. This was ignored, and a CCTV camera caught his death under the wheels of a truck.

In Bihar, two journalists were mowed down by an SUV driven allegedly by a former village head’s husband. These are neither the first nor the only such incidents. Nor is the phenomenon India-specific. But journalists being silenced forever, rather than engaged on points of dispute, proves they were on to something right. The violence is often at the behest of law enforcement agencies. In Delhi last week, two woman journalists were attacked by Delhi cops, one of them molested, the other’s camera snatched, while they were covering a protest march. Unthinkable as it may sound, media associations had to take to the streets and meet the Union Home Minister to get FIRs registered against the ‘culprits’, unfortunately the cops.

How did the fourth estate become so vulnerable? A debate is on within; outside realms sadly do not reflect it. The public mostly revels in the idea of a venal journalist, a “presstitute”, the kind who gets caught out in stings. But there are some who are dying, often the sole breadwinners of their families. We need a change of mindset. The murder of a journalist or an attack on journalism is bound to boomerang. Venal journalists, like corrupt cops or judges, need to be weeded out by law. But if journalism itself is attacked, it makes society at large far more vulnerable.

 

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